न्याय का संबंध ‘सुविधा’ से नहीं ‘सतर्कता’ से है। मणिपुर में महिलाओं के साथ हुई यौन हिंसा को लेकर सरकार और न्यायपालिका दोनो की प्रतिक्रिया आई है। सभी इसका स्वागत कर रहे हैं और शायद एक हद तक यह सही भी है लेकिन यह सुविधा की प्रतिक्रिया है, सतर्कता की नहीं!
पिछले लगभग 80 दिनों से मणिपुर जल रहा है, इस बीच प्रधानमंत्री संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस की तथाकथित रणनीतिक रूप से सफल यात्राएं कर चुके हैं लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक सुरक्षा दोनो ही मुद्दों को ध्यान में रखते हुए मणिपुर की स्थिति यह बताती है कि प्रधानमंत्री ‘निरपेक्ष असफलता’(Absolute failure)का सामना कर रहे हैं। प्रधानमंत्री की गैर-सतर्कता ने एक राज्य में ऐसी स्थिति को पैदा कर दिया है जिससे मानवता का सर शर्म से झुक गया है। मणिपुर में महिलाओं के साथ एक भीड़ ने जैसा बर्ताव किया है वह उसी चुप्पी की निरन्तरता का परिणाम है जिसे प्रधानमंत्री अपना ब्रह्मास्त्र समझते रहे हैं।
आज जब पूरी दुनिया ने उन महिलाओं का वीडियो सोशल मीडिया में देख लिया है तब प्रधानमंत्री जी का ‘मन पीड़ा से’ भरा है। 13 साल के मुख्यमंत्री काल और लगभग 9 सालों के प्रधानमंत्री काल के अनुभव के बाद भी उन्हे यह नहीं पता चल पाया कि मणिपुर में दो समुदायों के बीच आंतरिक कलह ने ‘सिविल वार’ का रूप धारण कर लिया है। उन्हे यह भी नहीं पता कि ऐसी स्थिति के दौरान महिलाओं और बच्चों के साथ कैसा व्यवहार होता है? यदि उन्हे सच में यह नहीं पता और उनकी टीम ने उन्हे यह सब नहीं बताया तो उन्हे और उनकी टीम को देश के नेतृत्व से पीछे हट जाना चाहिए।
आज उनके अपने‘मन की पीड़ा’ उन महिलाओं के दुख को कम नहीं कर सकेगी। जब उन्हे राज्य के उत्पातियों और मुख्यमंत्री को कठोर संदेश देना चाहिए था तब वो राजनैतिक नफा-नुकसान का आँकलन करने में लगे हैं। प्रधानमंत्री और उनकी तथाकथित दूरदर्शी विजन का आलम देखिए कि इन महिलाओं को लेकर रिपोर्ट पहले से ही डिजिटल मीडिया में उपलब्ध थी लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने कभी इस खबर का संज्ञान नहीं लिया, यह जानबूझकर था या अनजाने में लेकिन दोनो ही सूरत में प्रधानमंत्री को अपने पद को रिक्त कर देना चाहिए।
लगभग यही हाल सर्वोच्च न्यायालय का है। मेरी बात में हो सकता है कुछ लोगों को थोड़ा अतिरेक महसूस हो लेकिन महिला होने के नाते मैं यह बात जरूर जानना चाहूँगी कि जिस सर्वोच्च न्यायालय में ज्यादातर न्यायधीश वकालत के पेशे से यहाँ तक पहुंचे हैं, जिन्होंने दशकों तक आपराधिक मामलों और इस पृष्ठभूमि पर कार्य किया है, उन्हें क्या इस बात का भी अंदाज़ा नहीं हुआ कि मणिपुर में सिविल वार के हालात बन चुके हैं? अगर उन्हे यह नहीं भी पता चला हो तो, जब उनके पास याचिका पहुंची थी तभी उन्हे थोड़ी जांच परख कर लेनी चाहिए थी, आखिर मामला एक सम्पूर्ण राज्य, उसकी सुरक्षा और वहाँ हो रहे नागरिक अधिकारों के हनन का था। लेकिन बजाय इस याचिका पर कार्य करने के सर्वोच्च न्यायालय ने तत्काल ही यह कहकर खुद को अलग कर दिया कि वो ‘राज्य की कानून व्यवस्था को अपने हाथ में नहीं ले सकते’! क्या उन्हे यह नहीं पता था कि ऐसी स्थितियों में महिलाओं के साथ क्या क्या हो सकता है?
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सरकार से कुछ कठिन सवाल भी नहीं पूछ सकी न्यायपालिका!
कोई नहीं भूला है जब कोविड के दौरान सरकार मनमानी कर रही थी और न्यायपालिका सिर्फ सरकारी व्याख्या पर निर्भर थी। तमाम मानवाधिकारवादी वकील गुहार लगाते रहे लेकिन सर्वोच्च न्यायालय सरकारी वकील तुषार मेहता पर ही आकर रुक जाते थे। यदि कल तक सर्वोच्च न्यायालय राज्य की कानून व्यवस्था को अपने हाथ में नहीं ले सकते थे तो आज अचानक क्या हुआ? आज क्यों भारत के मुख्य न्यायधीश को यह कहना पड़ा कि ‘सरकार कार्यवाही करे अन्यथा वो कार्यवाही करेंगे’?
आज जो वीडियो पूरी दुनिया के सामने है वह तो बस उसका परिणाम है जो मणिपुर में चल रहा है। किसे पता ऐसे कितने वीडियो और होंगे? किसे पता कितनी ही महिलाओं का यौन शोषण किया गया होगा? लेकिन जब बेइज्जती मुँह के सामने आकर खड़ी हो गई, चारों तरफ नागरिकों के बीच हाहाकार मच गया तब जाकर माननीय सर्वोच्च न्यायालय को अपनी शक्ति का एहसास हुआ! क्या भारत की संस्थाओं की समझ एक वीडियो के जारी होने का इंतजार कर रही थी? शायद हाँ!
मैं तो करूँगी, और चाहे तो सर्वोच्च न्यायालय भी इस बात की समीक्षा कर ले कि महिलाओं के साथ बढ़ रहे यौन अपराधों के पीछे न्यायपालिका की घोर उदासीनता और राजनैतिक नेतृत्व का अक्षम और निकम्मा होना है। इस बात को सिलसिलेवार तरीक़े से कई उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है। मणिपुर में जिन महिलाओं के साथ यौन हिंसा की गई है, उस घटना की तारीख 4 मई है। मतलब यह घटना ढाई महीने पहले घटित हुई थी। मणिपुर की पुलिस को इस घटना की शिकायत दर्ज करने में ही लगभग 15 दिन(18 मई) लग गए। अभी भी FIR दर्ज नहीं हुई थी।
महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने और उनके शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के साथ खिलवाड़/छेड़छाड़ करती हुई भीड़ के मामले के बाद भी मणिपुर के प्रशासन की चेतना गंदे नाले में ‘विश्राम’ कर रही थी। घटना घटने के लगभग डेढ़ महीने बाद, 21 जून को FIR दर्ज हुई। लेकिन इसके बाद भी किसी भी आरोपी को गिरफ्तार नहीं किया गया। FIR के बाद तो कम से कम मुख्यमंत्री बिरेन सिंह को अपनी कुम्भकरणी निद्रा से जाग जाना चाहिए था लेकिन लोककल्याण मार्ग से आशीर्वाद प्राप्त बिरेन सिंह लगातार अपने ‘विश्राम’ में तल्लीन रहे। क्या मणिपुर में हुई इस FIR की खबर भी दिल्ली को नहीं लग पाई, या फिर उन्होंने इस पर भी अपनी ‘खामोशी’ को ओढ़े रहने में और पर्दा डालने में ही अपना लाभ खोजा?
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19 जुलाई को जब यह घृणित वीडियो जन सामान्य के सामने आया तब प्रधानमंत्री का मन पीड़ा से भरा और न्यायपालिका को अपनी शक्ति का एहसास हुआ!
मुझे नहीं पता कि इन दो घटनाओं में कोई संबंध है या नहीं लेकिन इनका जिक्र करना जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 जून को अपनी बहुप्रतीक्षित यात्रा पर अमेरिका पहुंचे। जब 21 जून को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में योग दिवस का कार्यक्रम शुरू किया उसी दिन मणिपुर पुलिस को घटना के डेढ़ महीने बाद FIR दर्ज करने की याद आई! क्या यह महज एक इत्तेफाक था? क्या यह FIR उनकी अमेरिका यात्रा के मीडिया चार्म को बनाए रखने तक रोक कर रखी गई थी, यदि यह समय पर दर्ज हो गई होती तो भारत के प्रधानमंत्री से देश के मीडिया द्वारा भले सवाल न पूछा जाता पर विदेशी मीडिया उनसे इस मुद्दे पर सवाल जरूर पूछता और उनकी यात्रा की चमक दमक धुंधली पड़ जाती? मुझे नहीं पता लेकिन यह इत्तेफाक ही हो तो अच्छा है अन्यथा यह शर्मनाक है! लेकिन सोचने की बात यह है कि मणिपुर की वर्तमान सरकार कितनी अधिक संवेदनहीन है कि ऐसे नृशंस अपराध पर भी पर्दा डालने का कार्य करती रही। 19 जुलाई को वीडियो जारी होने के बाद यदि एक दिन के अंदर अपराधी पकड़ में आ गए तो इसका मतलब है कि राज्य की मशीनरी के पास यह क्षमता और सूचना जरूर थी जिससे इन अपराधियों को पहले भी पकड़ा जा सकता था। लेकिन कहना पड़ेगा कि राज्य सरकार ने जानबूझकर अपराधियों को न पकड़ने का फैसला किया।
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4 मई के बाद 20 जुलाई के बीच पीड़ित महिलाओं पर क्या गुजरी होगी, उन्हे कितना विश्वास स्वतंत्रता, समानता आदि आदर्शों पर बचा होगा? उन महिलाओं के लिए भारत के मुख्य न्यायधीश, भारत के प्रधानमंत्री और भारत के संविधान के मायने कितने छोटे होंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।
निर्भया जैसी भयानक सामूहिक यौन दुष्कर्म की घटना घटने के बाद भी भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को लेकर अपराधियों में भय क्यों नहीं है यह आश्चर्य का विषय हो सकता है लेकिन यदि घटनाओं और उन पर आने वाली प्रतिक्रियाओं को ध्यान से देखें तो इसके बीज संस्थाओं के रवैयों में पाए जाएंगे। जिस वक्त पूरे देश में मणिपुर यौन हिंसा को लेकर नागरिकों में रोष था, CJI और पीएम गुस्से में नजर आ रहे थे। लगभग उसी समय महिला पहलवानों के यौन शोषण के आरोप का सामना कर रहे भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह को दिल्ली की एक अदालत ने ‘रेगुलर’ जमानत प्रदान कर दी।
एक ऐसा आरोपी जिस पर दिल्ली पुलिस की FIR तक दर्ज करने की हिम्मत नहीं हुई, जिस पर FIR दर्ज कराने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय को बीच में आना पड़ा, जो व्यक्ति खुलेआम नेशनल टेलीविज़न पर एक हत्या को कबूलकर चुका हो, जिसके ऊपर से POCSO ऐक्ट हटाने का दबाव लगातार इतना बढ़ा कि अंततः यह ऐक्ट दिल्ली पुलिस को हटाना ही पड़ गया उसे दिल्ली की एक अदालत ने आराम से रेगुलर जमानत पर रिहा कर दिया। दिल्ली पुलिस ने इस जमानत का विरोध भी नहीं किया, क्यों? पता नहीं! लेकिन बस इतना पता है कि दिल्ली पुलिस भारत के गृहमंत्रालय के अंतर्गत कार्य करती है। न्यायधीश ने आरोपी का प्रोफाइल जानते हुए भी उसे इस बात की चेतावनी देते हुए जमानत दे दी कि वह सबूतों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा। न्याय का इससे अधिक हास्यास्पद चेहरा देखने को मिलना मुश्किल है। संविधान प्रदत्त शक्तियों के बीच न्यायपालिका बिना कोई जिम्मेदारी दिखाए यह आशा नहीं कर सकती कि हर हालात में उसके निर्णय को सर माथे पर लगाया जाएगा।
अदालत में ब्रजभूषण ने यह भी माना कि उसने महिला पहलवानों को छुआ था लेकिन उसकी नीयत खराब नहीं थी वह तो उनके साँसों का पैटर्न जानना चाहता था! उसकी नीयत खराब थी या नहीं लेकिन साँसों का पैटर्न जानने के लिए किसी प्रशिक्षित डॉक्टर की सहायता क्यों नहीं ली गई? यदि महिला पहलवानों ने कहा है कि उनको गलत नीयत से छुआ गया है तो यही एक मात्र सच है! इतनी सब बातें जानने के बाद भी सांसद महोदय को छोड़ दिया गया।
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जब कानून की आड़ लेकर बिलकिस बानो का गैंग रेप करने वाले अपराधियों को छोड़ दिया गया तब भी पीएम को दुख होना चाहिए था लेकिन मीडिया में आया नहीं और प्रधानमंत्री ने कहा भी नहीं! तब भी न्यायपालिका को स्वतः संज्ञान लेकर प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी। कानून की आड़ लेकर कानून को ही नष्ट करने की प्रक्रिया ‘कानून का शासन’ तो नहीं हो सकती।
आखिर कैसे इतने घृणित माहौल में भी न्यायपालिका ऐसी टिप्पणी कर लेती है जैसी हाल ही में उत्तखराखंड उच्च न्यायालय ने की, जिसमें एक बलात्कार मामले पर सुनवाई करते हुए उन्होंने कहा कि कुछ महिलाएं पुरुष मित्र के साथ मतभेद होने पर बलात्कार कानून को हथियार बना कर दुरुपयोग कर रही हैं। यदि किसी मामले में ऐसा है भी तो क्या सार्वजनिक रूप से ऐसी टिप्पणियों से नहीं बचा जाना चाहिए था? अब भारत के मुख्य न्यायाधीश ही तय करें कि उन्हें उच्च न्यायालय की इस बात पर क्या कहना है क्योंकि अगर जनता बोलेगी तो ‘अवमानना’ हो जाएगी। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि ऐसी टिप्पणियाँ लैंगिक संघर्ष को कमजोर बनाती हैं और अपराधियों को मजबूत!
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न्यायपालिका को यह समझना है कि उसे हर दिन शोषितों की आकांक्षाओं पर खरा उतरना है। सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्थाओं से समय पर हस्तक्षेप की आशा की जाती है, एक दिन की भी देरी पूरी की पूरी मानवता को शर्मसार कर सकती है।
एक भी ऐसा मामला जिससे किसी महिला की अस्मिता जुड़ी हो उस पर ‘तारीख़’ बाँटने का रवैया उन शोषणकर्ताओं को बढ़ावा देता है जिन्हें सत्ता अपने चुनावी लाभ के लिए संरक्षण प्रदान करती है। ऐसा नहीं है कि यह सब न्यायपालिका को पता नहीं है, आख़िर क्या कारण है कि बलात्कार के मामले में 20 साल की सजा पाया राम रहीम अब तक सात बार पेरोल पर बाहर आ चुका है? हत्या और बलात्कार दोनो मामलों में आरोपित इस आदमी में ऐसा क्या खास है कि अभी 2023 के 6 महीने ही गुजरे हैं और राम रहीम को दो बार पैरोल मिल चुकी है? यदि क़ानून की कोई गाँठ ढीली पड़ गई है जिसका लाभ सरकार इस आदमी को दे रही है तो क्या न्यायपालिका को चुपचाप यह तमाशा देखते रहना चाहिए या फिर किसी ‘याचिका’ की प्रतीक्षा करनी चाहिए? राम रहीम की पैरोल इस बात को पुख्ता कर रही है कि यह आदमी समाज में रहने लायक है जबकि सच इसके पूरी तरह उलट है।
सभी जानते हैं कि बलात्कार के मामले में उन्नाव के भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को ताक़त कहाँ से मिल रहीं थी ? किस कारण से वह लगातार पुलिस से बचता रहा और अंततः जब पीड़ित को परिवार के कई सदस्यों को खोना पड़ा तब जाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही निर्णयात्मक कार्यवाही हुई! अपराधी कुलदीप सेंगर का कोई भी पुराना केस प्रदेश सरकार को याद नहीं आया लेकिन बलात्कार पीड़िता के चाचा का, जो इस मामले में सेंगर के खिलाफ पैरवी कर रहे थे, उसका 18साल पुराना केस सरकार को याद आ गया, कैसे? क्या इस मामले में न्यायपालिका को सरकार की नीयत पर सवाल नहीं उठाना चाहिए था?
पररिया, बिहार में हुए एक सामूहिक बलात्कार कांड(1988) में जिसमें एक समुदाय विशेष की कई महिलाओं के साथ कई पुलिस वालों ने एक साथ बलात्कार किया था उस मामले में अदालत की टिप्पणियाँ बेहद असभ्य और एक शोषणकारी पुरुष की टिप्पणियाँ प्रतीत होती हैं जिसमें जज साहब को यह कहने में भी कोई गुरेज नहीं होता कि महिलाओं ने एक हज़ार रुपये के लालच में बलात्कार का आरोप लगाया है। न्यायपालिका स्वयं तय करे कि 1988 की इस घटना और आज में क्या बदला है? निर्भया मामले(2013) के बाद आज 2023 के मणिपुर मामले तक क्या बदला है? सरकार अपने वोट बैंक और अपने नेताओं को बचाने के लिए खामोशी से बैठी रही ऐसे में यदि न्यायपालिका भी महिलाओं के साथ ‘समय पर’नहीं खड़ी होगी तो वह दिन दूर नहीं जब महिलाएँ यह मानने से भी इनकार कर देंगी कि इस देश में कोई न्यायालय है, कोई संविधान है!
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प्रधानमंत्री और सरकार की उपस्थिति तो पहले से ही संदिग्ध है।
CJI और पीएम को इन सब पर दुखी होना चाहिए। हर ऐसी बात पर बिना रोक-टोक प्रतिक्रिया देनी होगी जो महिला अस्मिता से जुड़ा है। महिलाओं के साथ किसी समाज का नजरिया और व्यवहार उसकी सभ्यता के दावों का परीक्षण होता है। आज के भारत के लिए इस परीक्षण के परिणाम मणिपुर जैसे मामलों से सामने हैं। वंचित वर्ग के मामले में कानून को मात्र अक्षरों के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता है। दो और दो जोड़कर सीधा चार लाने के निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जा सकता है। जब तक ब्रजभूषणों, सेंगरों और राम रहीमों पर समय रहते न्यायपालिका कार्यवाही नहीं करेगी तब तक मणिपुर होता रहेगा। जब न्यायपालिका की ‘उदारता’ और नेताओं के राजनीतिक संरक्षण में कोई समाज बाँटा जाता है तो उसकी परिणति मणिपुर जैसी ही होती है।
वक्त बदल गया है कुछ लोगों ने अप्राकृतिक रूप से सत्ता की प्राप्ति के लिए ‘आईटी-सेल’ जैसे राक्षसों का आविष्कार किया जिन्होंने सूचना की जगह ‘अफवाह’ को औजार बनाया, समाज को अनगिनत आधारों पर बांटना शुरू कर दिया और आज परिणाम सामने है। न्यायपालिका अपनी भूमिका को सिर्फ घटना के बाद की स्थिति के लिए ही सीमित नहीं कर सकती उसे ‘आहट’ पर भी कार्यवाही करनी होगी अन्यथा मणिपुर होता रहेगा और बाद में रहेगा सिर्फ और सिर्फ अफसोस! मेरा मानना है कि आज समय रोष का है, विलाप का नहीं! उस नेता को अस्वीकार कर देना चाहिए जिसे नागरिकों की तकलीफों में ‘खामोश’ रहने का हुनर आता है क्योंकि यह हुनर एक सभ्य समाज के लिए श्राप है।