राजनीतिक विमर्श में यह विषय गरम है कि राहुल गांधी को विनायक दामोदर सावरकर पर हमला बोलना चाहिए या नहीं? सावरकर की धरती महाराष्ट्र में ऐसा बोलना सही है कि नहीं? सावरकर पर हमला करके भारत जोड़ो यात्रा के मकसद पर भी कोई हमला हुआ है? एक गैर राजनीतिक सकारात्मक यात्रा क्या राजनीतिक और नकारात्मक हो गयी है? क्या राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा गुजरात चुनाव के नफा-नुकसान से जुड़ गयी है?
विनायक दामोदर सावरकर पर हमला बोलने से देश की फिजां में जो हलचल पैदा होती है, वह बताती है कि यह महज एक ‘स्वतंत्रता’ सेनानी पर हमला नहीं, एक विचारधारा पर हमला है। ‘माफीवीर’ एक ‘स्वतंत्रता’ सेनानी का अंग्रेजों के सामने समर्पण नहीं था, उस विचार का समर्पण था जो सांप्रदायिकता को बढ़ाने की कायरता को ही वीरता समझता था। यहां तक कि इसके लिए आजादी के लिए संघर्ष कर रही राजनीतिक विरादरी से संघर्ष और अंग्रेजों के सामने समर्पण भी कर सकता था।
बिरसा-इंदिरा की जयंती का दिन क्यों?
राहुल गांधी ने जब बिरसा जयंती पर सावरकर पर हमला बोला तो उन्होंने 1857 को पहला स्वतंत्रता संग्राम बताने वाली सोच पर भी हमला बोला। उन्होंने स्मरण कराया कि आदिवासियों का स्वतंत्रता संग्राम में जो संघर्ष रहा है वह 1857 से पहले से रहा है। वह संघर्ष राजपाट बचाने या पाने के लिए नहीं, सही मायने में अंग्रेजों को भगाने के लिए था।
इंदिरा गांधी की जयंती पर जब महाराष्ट्र की धरती से राहुल गांधी ने सावरकर पर हमला बोला तो इसका मतलब भी यही था कि जब-जब धर्म का राजनीति में इस्तेमाल हुआ है तो उसकी कीमत कुर्बानी देकर चुकानी पड़ी है। सावरकर के दो राष्ट्र की थ्योरी मोहम्मद अली जिन्ना को पसंद हो सकती है, हिन्दू और मुस्लिम फिरकापरस्तों की पसंद हो सकती है। लेकिन, यह न तो वर्तमान भारत की अखण्डता चाहने वालों को पसंद होगी और न ही अखण्ड भारत की कल्पना करने वालों को।
गुजरात में गांधी से बड़ा कोई ब्रांड नहीं
राहुल गांधी गुजरात में चुनाव प्रचार करने की ठान चुके हैं। गुजरात में महात्मा गांधी से बड़ा देशमार्का ब्रांड न था, न है और शायद हो भी न सके। ऐसे में जिस वीडी सावरकर पर महात्मा गांधी की हत्या की साजिश का आरोप लगा, उस पर हमला करते हुए गुजरात पहुंचना सियासी रूप से कहीं भी गलत नहीं है।
देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था। उन्होंने गांधीजी की हत्या के लिए हिन्दूवादी संगठनों की कट्टरता को जिम्मेदार ठहराया था। हिन्दू महासभा की आलोचना की थी जिसके जनक थे सावरकर। ऐसे सरदार वल्लभ भाई पटेल की धरती पर जाते हुए सावरकर पर हमला करना न तो अनुचित है और न ही राजनीतिक जरूरत के विपरीत।
सावरकर का बचाव कर रहे बुद्धिजीवी या राजनीतिक दल उन्हें स्वतंत्रता सेनानी बताने से ज्यादा कुछ नहीं कह पा रहे हैं। जिस द्विराष्ट्र के सिद्धांत को सावरकर ने आगे बढ़ाया, उस पर खामोश हैं। यह बात नोट की जानी चाहिए कि सावरकर के जिन्दा रहते ही देश ने उनके द्विराष्ट्र के सिद्धांत कि ‘हिन्दू-मुसलमान दो राष्ट्र हैं और ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते’, को खारिज कर दिया था। हम सभी धर्मों के सहअस्तित्व वाले संविधान का निर्माण कर चुके थे। जब 1966 में सावरकर का निधन हुआ तब वे राजनीतिक रूप से हाशिए पर और बिल्कुल अलग-थलग पड़ चुके थे। कोई हिन्दूवादी संगठन भी उनके साथ खड़ा नहीं था।
आरएसएस भी अपने सिद्धांत बदल चुका है। वह कहने लगा है कि भारत में रह रहे सभी हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक है। इस तरह संघ ने वीडी सावरकर के द्विराष्ट्र के सिद्धांत से समझौता किया है और कहीं न कहीं सावरकर को नकारा भी है। आज भी द्विराष्ट्र के सिद्धांत पर सावरकर का साथ देने के लिए न तो आरएसएस और न ही बीजेपी के बड़े नेता सामने आ रहे हैं।
गांधी को मानते हैं तो सावरकर को धिक्कारना होगा
राहुल गांधी भारतीय राजनीति में विचारधारा की लड़ाई को इस हद तक ले जाते हुए दिख रहे हैं कि अगर आप महात्मा गांधी को मानते हैं तो वीडी सावरकर को धिक्कारना होगा। एक ने सांप्रदायिक सौहार्द और भाईचारे के लिए अपनी जान दे दी। दूसरे ने ऐसे इंसान की जान लेने वालों का मार्गदर्शन किया। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि महात्मा गांधी के हत्यारों की वीडी सावरकर से कई बार मुलाकात हुई थी और वे उनके करीबी रहे थे।
भारत में बुद्धिजीवियों का एक धड़ा ऐसा है जो बीजेपी की नफरती सियासत के खिलाफ तो है लेकिन वह आरएसएस को बख्श देना चाहता है। उसे गैर राजनीतिक मानता है। राहुल गांधी ऐसा नहीं मानते। हो सकता है कि इसका राजनीतिक नुकसान हो, लेकिन इस डर से क्या अपनी सोच के हिसाब से सही को सही और गलत को गलत कहना बंद कर दिया जाएगा?
संघ पर चुप नहीं रहा जा सकता
आरएसएस भले ही राजनीतिक संगठन नहीं हो। मगर, वह राजनीति को संचालित कर रहा है क्या इसमें किसी को शक है? देश की राजनीति में संघ के प्रभाव को खारिज नहीं किया जा सकता। एक गैर राजनीतिक संगठन का यह प्रभाव खतरनाक है। इसके विरुद्ध बोलने का साहस राहुल गांधी खुलकर दिखा रहे हैं तो यह उनका साहस है और किसी की नज़र में दुस्साहस भी। मगर, राहुल अपनी जगह सही हैं।
देश की सियासत में बीजेपी से लड़ाई अब सिर्फ इस आधार पर नहीं होगी कि जनता से किसने कितने लोकलुभावन वादे किए या कोई सरकार कितनी अकर्मण्य या कर्मण्य रही है। जो विचारधारा के स्तर पर बीजेपी से लड़ेगा, वही राजनीति में बना रह सकता है। विचारधारा के आधार पर लड़ने का मतलब आरएसएस पर चुप्पी कतई नहीं हो सकता। इसमें संदेह नहीं कि राहुल गांधी ने भारतीय राजनीति को बदलने के लिए वैचारिक लड़ाई की राह पकड़ ली है। राहुल का संदेश साफ है- जो सावरकर के साथ है गांधी के खिलाफ है।