नेहरू-गांधी परिवार के लिए आज के हालात 44-45 साल पहले के हालात से काफ़ी मिलते-जुलते दिख रहे हैं। फ़िलहाल, कांग्रेस सत्ता में नहीं है, कथित भ्रष्टाचार के आरोपों में आज राहुल गांधी से ईडी लगातार दूसरे दिन पूछताछ कर रही है और कांग्रेस कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे हैं। 45 साल पहले भी कांग्रेस सत्ता में नहीं थी। पार्टी लगातार बिखर रही थी। इंदिरा गांधी पर गिरफ़्तारी की तलवार लटकी थी। और उनकी गिरफ़्तारी के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं ने देश भर में जबरदस्त प्रदर्शन किया था। तो सवाल है कि क्या अब राहुल की गिरफ़्तारी होगी? और यदि ऐसा हुआ तो क्या वैसा ही नतीजा निकलेगा जैसा 45 साल पहले इंदिरा गांधी के वक़्त हुआ था?
इन सवालों का सीधा जवाब अभी देना मुश्किल है, लेकिन उन घटनाक्रमों से एक संकेत मिल सकता है कि राजनीति की दिशा क्या हो सकती है।
यह आपातकाल के बाद के दौर की बात है। इंदिरा गांधी 1966 से 1977 तक लगातार तीन बार देश की प्रधानमंत्री रही थीं। 1977 में उनकी सरकार गिर गई और मोरारजी देसाई की सरकार सत्ता में आई। इस दौरान इंदिरा गांधी की दो बार गिरफ़्तारी हुई। दोनों बार कारण अलग-अलग रहे, लेकिन राजनीतिक हालात क़रीब-क़रीब एक जैसे थे।
इन घटनाक्रमों के तार आपातकाल से जुड़ते हैं। 25 जून 1975 में लगाए गए आपातकाल को 21 मार्च 1977 के दिन ख़त्म किया गया था। इसी दौरान ही इंदिरा ने जनवरी 1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा कर दी थी। जब चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी की सत्ता चली गई। जनता दल के नेता मोरारजी देसाई ने सरकार बनाई। नयी सरकार बनते ही इंदिरा गांधी को जेल भेजने की तैयारी शुरू हो गई थी। इस घटना का ज़िक्र इंदिरा की क़रीबी रहीं पुपुल जयकर ने भी अपनी किताब 'इंदिरा: ऐन एंटिमेट बायोग्राफी' में किया है। पुपुल जयकर ने अपनी किताब में लिखा है कि इंदिरा गांधी को आशंका थी कि कहीं मोरारजी सरकार उन्हें गिरफ्तार न करवा दे।
मोरारजी सरकार बनने के बाद इंदिरा के ऊपर भ्रष्टाचार करने के आरोप लगाए गए और इसे साबित करने के लिए एक कमीशन का गठन किया गया। सरकार गठन के क़रीब छह महीने में ही 3 अक्टूबर 1977 को सीबीआई के अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोप में इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने उनके घर पहुंचे। रात भर हिरासत में रखने के बाद उन्हें दूसरे दिन कोर्ट में पेश किया गया। एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, पुपुल जयकर ने अपनी किताब में लिखा है, 'आख़िरकार इंदिरा का डर सच साबित हुआ, जब मोरारजी सरकार ने 3 अक्टूबर 1977 को इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करवा दिया। ...इंदिरा पर 1977 के चुनाव में दो कंपनियों से जबरन 104 जीप लेने का आरोप था। इसके अलावा एक फ्रांसीसी कंपनी को 1.34 करोड़ रुपये के पेट्रोलियम ठेके देने में गड़बड़ी के आरोप थे।'
एक रिपोर्ट के अनुसार इंदिरा पर आरोप लगा कि उन्होंने प्रचार के लिए जो जीपें खरीदी थीं वह कांग्रेस के पैसों से नहीं, बल्कि सरकार के पैसों से खरीदी थीं। हालाँकि इस मामले में उन्हें दूसरे ही दिन रिहा कर दिया गया था।
इस मामले में वाशिंगटन पोस्ट ने इस घटना को विस्तार से कवर किया था। इसकी रिपोर्ट के अनुसार "हिरासत में लिए जाने से पहले जारी एक बयान में पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा कि 'गिरफ्तारी राजनीतिक है। यह मुझे लोगों के सामने जाने से रोकने के लिए है। यह मुझे उनकी और दुनिया की नज़रों में बदनाम करने का एक प्रयास है'।"
वाशिंगटन पोस्ट ने तब रिपोर्ट में लिखा था, 'पिछले मार्च में राष्ट्रीय चुनावों में उनकी हार के तुरंत बाद के हफ्तों में लाखों भारतीय गांधी के खून के प्यासे थे। अगर प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें गिरफ्तार करने का आदेश दिया होता, तो उन्हें व्यापक प्रशंसा मिली होती।' अख़बार ने तब लिखा था कि मोरारजी देसाई सरकार की कार्रवाई में देरी सरकार के लिए नुक़सानदायक साबित हो सकती है क्योंकि इंदिरा गांधी की प्रसिद्धि फिर से बढ़ने लगी है और उनके ख़िलाफ़ यह केस शायद वह मौक़ा है जो इंदिरा की ख़राब हुई छवि को चमकने का मौक़ा दे।
बहरहाल, इस घटना से कांग्रेस में नयी जान आ गई थी। पार्टी कार्यकर्ताओं में गजब का उत्साह दिख रहा था। इंदिरा ने कार्यकर्ताओं से भावनात्मक जुड़ाव जारी रखा। उन्होंने इस मामले में खुद को पीड़ित और सरकार के सामने असहाय पेश करने की कोशिश की और इसका असर कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर काफ़ी हुआ। इंदिरा गांधी की क़रीबी रही जयकर ने किताब में लिखा है, 'जब इंदिरा की गिरफ्तारी हुई थी, तब कार्यकर्ता जमा होकर उनके पक्ष में नारेबाजी कर रहे थे- लाठी गोली खाएंगे, इंदिराजी को लाएंगे, जेल हम जाएंगे, इंदिरा जी को लाएंगे।'
इंदिरा की दूसरी बार गिरफ़्तारी
भ्रष्टाचार के कथित मामले में 1977 में तो सिर्फ़ एक दिन की गिरफ़्तारी हुई थी, लेकिन उसके अगले साल यानी 1978 में इंदिरा गांधी को फिर से गिरफ़्तार किया गया। संसद में 19 दिसंबर 1978 को इंदिरा को सदन से निलंबित कर गिरफ्तार करने का प्रस्ताव पारित हुआ था। इंदिरा संसद भवन में गिरफ्तारी का आदेश मिलने तक टिकी रहीं। रात को स्पीकर के दस्तखत वाला गिरफ्तारी आदेश जारी हुआ। तत्कालीन सीबीआई अधिकारी एनके सिंह ने इंदिरा को गिरफ्तार किया।
इस बार इंदिरा गांधी पर जो आरोप लगाए गए थे उनमें यह भी शामिल था कि उन्होंने 'आपातकाल के दौरान जेल में सभी विपक्षी नेताओं को मारने की साज़िश रची थी या ऐसा करने को सोचा था'।
ये ऐसे आरोप थे जिसको अदालत में साबित करना बेहद मुश्किल था और इसी वजह से क़रीब हफ़्ते भर में ही वह जेल से बाहर निकल गईं। समझा जाता है कि उनको संसद से बाहर करने के लिए ऐसा किया गया था। लेकिन ये घटनाक्रम कांग्रेस में फिर से नयी जान फूँकने वाले साबित हुए। इंदिरा को गिरफ़्तार किए जाने के बाद से ही कांग्रेसी नेता और कार्यकर्ता जबरदस्त तरीक़े से विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। देशभर में कांग्रेस कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए थे। उनकी गिरफ्तारी और लंबे समय से चल रहे मुक़दमे के कारण कई लोगों से इंदिरा गांधी को सहानुभूति मिली।
इस तरह इंदिरा ने बहुत कम समय में ही जनता में जोश भर दिया था। इसका नतीजा यह निकला कि 1980 में जब चुनाव हुए तो वह जबरदस्त बहुमत से सत्ता में वापस लौटीं। इंदिरा गांधी को उनके आलोचक भले ही 'गुड़िया' कहकर उन पर तंज कसते थे, लेकिन उन्होंने चुनावी राजनीति में भी साबित किया कि उन्हें ऐसे ही नहीं 'आयरल लेडी' कहा जाता है।
लेकिन क्या अब ऐसी हिम्मत और दमदार राजनीति मौजूदा नेतृत्व में है? यह सवाल इसलिए कि मौजूदा कांग्रेस नेतृत्व 45 साल पहले जैसे ही हालात से गुजरता दिख रहा है। कांग्रेस की हालत ख़राब है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी को ईडी से समन भेजा गया है और राहुल से तो पूछताछ भी हो रही है। पहले की तरह ही कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता सड़कों पर हैं। तो क्या इसके आगे का घटनाक्रम भी कुछ उसी तरह आगे बढ़ेगा जैसे 45 साल पहले बढ़ा था?