भारतीय उपमहाद्वीप में प्रोफेसर इश्तियाक़ अहमद का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं। हिंदू -मुसलिम रिश्तों और इस महादेश के विभाजन के गंभीर अध्येता और छात्र, सभी इशतियाक़ अहमद को जानते हैं। इतिहास और राजनीति शास्त्र के क्षेत्र में उनकी अपनी पहचान है।
हाल ही में उनकी दो पुस्तकें आईं जो काफी चर्चित भी रहीं। पहली पुस्तक - 'पंजाब-ब्लडीड, पार्टीशन्ड ऐंड क्लीनज्ड' कुछ सालों पूर्व आई थी और फिर चंद महीने पहले 'जिन्ना' प्रकाशित हुई।
दोनों किताबें हर गंभीर अध्येता के लिये ज़रूरी दस्तावेज़ हैं हिंदू मुसलिम रिश्तों को समझने के लिये, देश के विभाजन को समझने के लिये। इस उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक सियासत को समझने में भी दोनों पुस्तकें काफी मदद करती हैं। किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए ये ज़रूरी किताबें हैं। इन किताबों के ज़रिए एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया है कि हिंदू मुसलमान साथ क्यों नहीं रह सके ?
इश्तियाक़ पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश नागरिक हैं जो स्टॉकहोम यूनिवर्सिटी में राजनीति शास्त्र और इतिहास के प्रोफेसर रहे हैं। हालांकि वे अब रिटायर हो गए हैं, लेकिन अब भी उनका यूनिवर्सिटी से संबंध बना हुआ है। इसके अलावा पाकिस्तानी पंजाब के कई विश्वविद्यालयों में वे विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर जाते रहे हैं।
पूर्व पुलिस अधिकारी और हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार विभूति नारायण राय के साथ विभाजन, हिंदू-मुसलिम रिश्तों, कांग्रेस और मुसलिम लीग की सियासत के अलावा सामाजिक-सियासी मुद्दों पर इश्तियाक़ अहमद के बीच गुफ्तगू हुई। सत्य हिंदी डॉटकाम के लिए हुई इस दिलचस्प संवाद से इतिहास के नए दरीचे खुलते हैं और पुरानी धारणायें ध्वस्त होती हैं। पढ़ें पूरी गुफ्तगू की पहली किश्त -
विभूति नारायण राय : इस उपमहाद्वीप में दो बड़े मज़ाहिब हिंदू और मुसलमान करीब 1,300 साल से अधिक साथ रहे हैं। आठवीं शताब्दी में मुहम्मद बिन क़ासिम के सिंध में आने के बाद उनके बीच एक सियासी रिश्ता बना, हालांकि केरल में उससे पहले व्यापारिक संबंध बन चुके थे। दोनों ने मिल जुल कर आपसी लेन देन से कई बेहतरीन चीजों को सृजन किया - संगीत, कला, साहित्य, स्थापत्य, मूर्ति कला के क्षेत्रों में यहाँ तक कि पाक शास्त्र और टाउन प्लानिंग में भी बहुत अद्भुत काम हुये।
लेकिन यह कहना बहुत सरलीकरण होगा कि दोनों बहुत शांति के साथ रहते थे, लेन-देन करते थे, एक-दूसरे से सीखते थे, बल्कि सच तो यह है कि दोनों लड़ते भी रहे। यानी 1,300 साल के इतिहास में लड़ाई का इतिहास भी शामिल है। हम में से बहुत सारे लोग इसे दो राजाओं या बादशाहों की लड़ाई कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं और अंग्रेजों के बाद यह मान्यता भी पुख्ता हुई कि अंग्रेजों का किया धरा है यह, वे ही आपस में लड़ाते थे।
मेरा अपना मानना है कि ऐसा पड़ोस दुनिया में कहीं नहीं मिलता जो लंबे समय तक एक-दूसरे के साथ रहते हुये भी बहुत सारे विरोधाभासों से भरा हुआ था, वे साथ साथ रहते तो थे पर एक दूसरे का छुआ खाते नही थे या आपस मे शादी विवाह नही करते थे। तो क्या ये जो कंट्राडिक्शन थे, उन्हें अंग्रेजों ने बढ़ावा दिया, या सिर्फ राजे-महराजे लड़ते रहे या फिर कुछ अंदरूनी चीजें थीं जो दोनों को साथ-साथ रहने, सृजन करने के लिए प्रोत्साहित तो करतीं थीं लेकिन इनको आपस में लड़ातीं भी थीं, इस पर मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ।
मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब
प्रो. इश्तियाक़ अहमदः यह कहना कि अंग्रेजों ने आकर मुसलमान और हिंदुओं को एक-दूसरे से लड़ाया, यह एक रिविज़निस्ट हिस्ट्री है कि पहले ये अमन से रहते थे, प्यार से रहते थे, भाईचारा था। जैसा कि आपने भी कहा कि यह भी कहीं-कहीं होता था और होता होगा। ऐट द लेवल ऑफ द स्टेट भी मिलजुल कर रहने का हमें सबूत मिलता है। लेकिन साथ-साथ कल्चरल दीवारें भी मोहल्लों में, गाँवों में नज़र आतीं हैं। बात यह है कि जब तक यह मॉडर्न दौर नहीं आया, जिसे हम ईरा ऑफ राइट्स यानी दौरे हक़ूक कि नागरिकों के अधिकार होते हैं, यह पश्चिमी सोच के साथ आया। जब यह आया तो यह जो विरोधाभास थे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच, इसका सियासीकरण एक और तरीके से हुआ।
अंग्रेजों के आने से पहले भी कंट्राडिक्शंस मौजूद थे। लेकिन जब आप एक इलाके में रहते हैं, बैलंस ऑफ पावर में रहते हैं, आप इकोनॉमिक सिस्टम के साथ सामंजस्य बैठा लेते हैं, यानी कुछ मुसलमानों की जातियाँ जो थीं वह एक किस्म का काम करतीं थीं, कुछ हिंदुओं की जातियाँ कुछ और किस्म का काम करतीं थीं। कुछ जातियाँ दोनों की एक जैसे काम भी करतीं थीं। तो वह लगातार बैलेंस भी चला लेकिन इसके साथ-साथ जो एक कल्चरल दीवारें थीं वह भी खड़ीं रहीं।
इन सबके बीच देखने और समझने वाली बात यह है कि उस जमाने के सोचने वाले जो दिमाग थे, उन्होंने इन चीजों को कैसे संचालित किया। देखें जब मोहम्मद बिन क़ासिम आए, सियासी इसलाम ले कर तो उनके लिए एक मुसबीत हो गई। क़ुरान शरीफ़ में एक आयत है कि यहूदी, ईसाई और सेबियंस (सेबियंस एक समूह है जो अब प्रायः वजूद में नही है, शायद इराक़ की पहाड़ियों पर कुछ सेबिंयस आज भी जिंदा हैं लेकिन चंद हजारों में हैं, इससे ज्यादा नहीं। लेकिन यहूदी और ईसाई तो सारी दुनिया में हैं।) मुसलमानों के बीच रह सकते हैं, मुसलिम राज्य होने की वजह से अगर वे जज़िया देने को तैयार हो जाएं।
तो मुसलमानों की जो रिवायती मिडिल ईस्टर्न हकूमतें थीं वहां पर, वे उसे दिम्मी सिस्टम कहते थे, यहूदी, ईसाई और सेबियंस को दिम्मी कहा जाता था, पीपुल ऑफ द बुक क्योंकि क़ुरान शरीफ़ मानता था कि ये भी ख़ुदाई किताबों के मानने वाले हैं। लेकिन मोहम्मद बिन क़ासिम के लिए मसला हो गया। उन्होंने जिन्हें फतह किया वे या तो हिंदू थे या बौद्ध, तो वे परेशानी में पड़े कि उनके साथ किस तरह का सलूक किया जाए।
उस ज़माने में ख़िलाफत-ए-उमैया होती थी दमिश्क में। उन्होंने उन्हें खत लिखा कि इनके साथ किस तरह का सलूक किया जाए तो वहाँ से यह रूलिंग आई कि वे भी उसी ख़ुदा को मानते हैं, जिन्हें हम मानते हैं। अगर ये जज़िया देने को तैयार हो जाएँ तो उन्हें उनके मजहब में रहने दें। इनके जो धार्मिक स्थल हैं, पूजा स्थल हैं उन्हें वे बनाना चाहें या मरम्मत करना चाहें तो आप उन्हें इसकी इजाज़त दे दें।
अगर वे इसलाम कबूल करना चाहें तो यह दावत तो हमेशा है, लेकिन इसके लिए ताक़त का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता अगर वे जज़िया देने के लिए मान जाते हैं। इस रूलिंग की बुनियाद पर 1300 साल हकूमत हुई।
मुसलमान बादशाह और मुसलिम समुदाय की आबादी तो एक चौथाई ही थी, बहुत लोगों के इसलाम कबूल करने के बाद भी। लेकिन हकूमत उनकी चलती रही। मुगलों के दौर में भी, अगर आप अकबर को एक तरफ लें और औरंगजेब को दूसरी तरफ लें, तो भी इनकी फौजों में हिंदू थे और जहां तक मेरी जानकारी है, जो मैंने पढ़ा है उसके मुताबिक़ अकबर की फौजों से कहीं ज्यादा राजपूत औरंगजेब की सेना में थे।तो ये उसूल थे कि मुसलमान और हिंदू शादी नहीं कर सकते तो ये दोनों तरफ के लोगों ने इसे मान लिया। यह भी कि बैठ कर एक जगह खाना नहीं खा सकते, इसे भी एक तरह से स्वीकार कर लिया गया कि यही तरीका है जिंदगी बसर करने का।
जामा मसजिद, दिल्ली
विभूति नारायण रायः माफ़ करेंगे मैं आपको बीच में टोक रहा हूँ। भाषा के स्तर पर भी दोनों में एक खास तरह का रंग दिखाई देता है। एक शब्द है म्लेक्ष, जो हिंदू मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया करते थे और हिंदुस्तान में जो उर्दू की डिक्शनरी 1960 तक छपी है और जो अरबी व तुर्की की डिक्शनरी को कोट करती है, उसमें हिंदू शब्द का मतलब है चोर, रहज़न, स्याहफ़ाम, तो भाषा में जो विवाद था दोनों तरफ था, हिंदू मुसलमानों को म्लेक्ष, मानते थे और मुसलमान हिंदुओं के लिए अपनी डिक्शनरी में इस तरह का लफ्ज इस्तेमाल करते थे।
इश्तियाक़ अहमदः मैं तो यही बात कह रहा था कि साथ-साथ दीवारें भी थीं। मिल कर साथ खाना नहीं खा सकते इसीलिए क्योंकि ये म्लेक्ष हैं। इसका कारण यही है कि ये गंदे लोग हैं, हम इनका पका हुआ खाना नहीं खा सकते। अलबत्ता पंजाब का जो इतिहास है, उन्नीसवीं व बीसवीं सदी का उसमें यह था कि असल में साथ-साथ रहते थे तो शादियों में मुसलमान तो हिंदुओं के यहाँ आकर खाना खा लेते थे, लेकिन हिंदू नहीं खाते थे। तो उन्हें सूखा पकवान भेज दिया जाता था और यह भी आमतौर पर मान लिया गया था।
अंग्रेजों के आने के बाद एक नई दुनिया बनी। उस दुनिया में उन्होंने तलवार की बजाय नौकरशाही के ज़रिये और रूल ऑफ लॉ के ज़रिए हिंदुस्तान पर हुक़ूमत की। तो उसके अंदर क़ानूनविद आए यानी आप अदालत जाएं और इंसाफ के लिए गुहार लगाएँ। इन सारे बदलाव के साथ-साथ जो सोच आई उसमें म्लेक्ष, होना, वैसे मुसलमान तो हिंदुओं को काफिर भी कहते थे, लेकिन इन सबके बावजूद 1,300 साल में जो प्रैक्टिल विजडम होता है स्टेट क्राफ्ट का यानी लोग इसी तरह के हैं और आप क्या कर सकते हैं इनका, यानी जब तक हमारी हकूमत को वे चुनौती नहीं देते, हमारे आदेशों का पालन करते हैं तो जैसे रह रहे हैं, उन्हें रहने दिया जाए।
क्योंकि सरकारें जो होतीं हैं, प्रशासन जो होती हैं अगर वे किसी विचारधारा को साथ लेकर नहीं चलतीं, जैसे के बाद में औरंगजेब की हो गई या कुछ दूसरे मुसलमान बादशाहों की हो गई, तो सब ठीक चलता है।
आप भले मेरे साथ न खाएं लेकिन मुझे मानें तो सही कि मैं बादशाह हूं, जब तक आप मेरी बादशाहत को मानते हैं तो इन बातों का ज्यादा फर्क भी नहीं पड़ता, फिर जजिया भी देते हैं तो ठीक है। वैसे बीच में तो जजिया हटा भी दिया गया था दो-तीन बार जिसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा। लेकिन म्लेक्ष, वाली बात हिंदू मत में थी।
आपने अगर मेरी किताब पंजाब पढ़ी है तो इसमें मैंने इस बात का जिक्र किया है कि मुसलमानों का एक बड़ा तबका विभाजन के पक्ष में खड़ा हो गया और इसकी वजह हिंदुओं का मुसलमानों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार था। कुछ दोस्तियाँ भी हो जाती थीं। मैंने एक शादी का जिक्र किया है, पंजाबी के बड़े शायर हुए हैं शरीफ गुंजाई। उन्होंने लिखा था कि मेरा दोस्त था नैयर। उसने अपनी शादी में मुझे निमंत्रण दिया तो मैंने उससे कहा कि मैं तो नहीं आऊंगा क्योंकि मेरे साथ बैठ कर कोई खाना नहीं खाएगा।
तो उसकी मां ने कहा कि कौन ऐसा करता है, मैं देखती हूँ तुम चलो हमारे साथ। तो वे वहां गए और फिर वहां खाने के दौरान दोनों दोस्त एक साथ बैठे तो इस तरह के नियमों को तोड़ने वाले लोग भी पैदा हो रहे थे।
मसजिद की मीनार पर लगे लाउड स्पीकर
तो वजह यह थी कि अंग्रेजों के आने के बाद इस तरह का भेदभाव हिंदुओं को भी नज़र आ रहा था और पढ़े लिखे मुसलमान भी इसे समझ रहे थे कि इस तरह से दुनिया में गुजारा नहीं कर सकते। हमको थोड़ा मॉडर्न होना पड़ेगा या इसलाम को रैशनल बनाना पड़ेगा। हिंदुओं के बीच आर्य समाज आया। आर्य समाज ने गुजरात और पंजाब के सभी तबकों को साथ लिया। एक और भी बात है कि पंजाब में ब्राह्मण खत्री या वैश्यों के साथ बैठ कर खाना नहीं खाते थे, 1930 तक ऐसा रहा।
अलग-अलग खाते थे खाना। तो मुसलमानों के साथ भी नहीं खाते तो इसे अलग तरह के व्यवहार के तौर पर स्वीकार किया गया। शायद आंबेडकर ने यह बात कही है या पंडित नेहरू ने कि मुसलिम आर आयडोलोजिकल फैनेटिक्स ऐंड हिंदूज आर सोशोलोजिकल फैनेटिक्स। लेकिन जिन्होंने भी यह बात कही थी बहुत सटीक कही थी।
हिंदुओं का मसला है कि छूत न लग जाए, यह न हो जाए, वह न हो जाए, मुसलमानों को आप उत्तेजित कर देते हैं। ला इलाहा इल्ललाह, मोहम्मदुर रसूलल्लाह पर वे पागल हो जाते हैं। तो दोनों का व्यवहार फैनेटेसिज्म की तरफ इस तरह प्रदर्शित होता है।
विभूति नारायण रायः इश्तियाक साहब आपने जो कुछ कहा, मुझे लगता है कि सारी समझ अब उल्टी हो रही है। हमें समझाया तो यह जा रहा था कि अंग्रेजों ने हमारे मतभेद का फ़ायदा उठाया और एक-दूसरे को लड़ाया, लेकिन अब जो बातें सामने आईं उससे यह पता चलता है कि मॉडर्न एजुकेशन जो भारत में आई, उसने हमारे मतभेदों को हमें दिखाया जैसे छुआछूत वाला, एक-दूसरे के साथ नहीं खाने जैसे मूर्खतापूर्ण परंपरा को हमने तभी समझा जब मॉडर्न वेस्टर्न एजुकेशन आई। तो फिर यह कहना कि अंग्रेज हमें लड़ा रहे थे, यह पूरी तरह सच नहीं है। अब हम इसी बात को थोड़ा आगे बढ़ाते हैं और आते हैं आपका जो प्रिय विषय है विभाजन, उस पर।
उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में मैंने पाया कि टू नेशन थ्योरी को लेकर दोनों तरफ के दानिश्वर बहुत मजबूती के साथ अपने तर्क दे रहे थे। सर सैयद के बारे में तो यह मशहूर है कि उन्हें जब कांग्रेस में शामिल होने का न्यौता दिया गया तो उन्होंने हिंदुओं के बारे में बहुत ही अपमानजनक बातें कीं। ऐसे शब्द कहे जो यहाँ कहना मुनासिब नहीं है, और उन्होंने मना कर दिया। ठीक उसी समय, मुझे ताज्जुब हुआ जब मेरे हाथ कुछ दस्तावेज मिले, जिनमें मराठी और बंगाली बुद्धीजिवियों ने भी बहुत साफ कहा कि हिंदू- मुसलमान साथ साथ नहीं रह सकते।
ईद की नमाज अदा करते मुसलमान
हालांकि तब तक 'नेशन स्टेट' जैसा शब्द नहीं आया था, लेकिन दोनों के कहने का मतलब लगभग ऐसा ही था। फिर यह आगे बढ़ा और जाहिर है कि अंग्रेज यहां हकूमत करने आए थे, उन्होंने इन मतभेदों को देखा और कोई बेवकूफ ही होगा जो उनका इस्तेमाल नहीं करेगा, तो उन्होंने इसका इस्तेमाल किया।1905 में बंगाल बंटा तो हिंदुओं ने उसका बड़ा विरोध किया। बंगाल के भद्रलोक ने बंग भंग को खत्म कराया और बंगाल फिर एक हुआ, हालांकि 1947 में फिर बंट गया। तो यह सारे भ्रम विभाजन को लेकर बुने गए हैं, यह भी सही है कि आपने अपनी दोनों किताबों के जरिये बहुत सारे जाले साफ किए हैं।
आपको क्या लगता है कि थोड़ा बड़ा दिल कांग्रेस ने दिखाया होता, जिन्ना और मुसलिम लीग ने थोड़ा बड़प्पन दिखाया होता तो बँटवारा टल सकता था या फिर कि दोनों समुदायों में इतने विभाजन, इतने मतभेद थे कि पाटे नहीं जा सकते थे।
इश्तियाक अहमदः देखिए मेरा यकीन तो है कि पार्टीशन की कोई जरूरत नहीं थी। पार्टीशन की वजह तो यही बनी जो बातें आपने कही। मुझे याद आ रहा है कि 1931 में मौलाना मुहम्मद अली जौहर ने कहा था कि वी डिवाइड ऐंड यू रूल। उन्होंने अंग्रेजों को कहा था हम एक दूसरे के खिलाफ खड़े होते हैं और आप हम पर हकूमत करते हैं। जात-पात की वजह, मजहब व सेक्ट की वजह और फिर जाति के अंदर जो हाइरारकी थी, जो अशराफिया मुसलमान थे, जिनके बड़े कहते थे कि वे बाहर से आए हैं, सुपीरियर ब्लड जिसे आप कह लें, वे आम मुसलमानों को, जिन्होंने मजहब को अपनाया था, उन्हें ज्यादा अच्छी नजर से नहीं देखते थे।
हिंदू मत का जो कास्ट सिस्टम है उसका रेप्लिकेशन मुसलमानों में भी, यह अलग बात है आप अरबों में चले जाएं या तुर्कियों में चले जाएं वहां इस तरह का कोई नजरिया नहीं है, वहां सब मिल बैठ कर एक ही जगह खाना खाते हैं, लेकिन हिंदुस्तान के मुसलमानों में तो यह आ गया। किस से शादी हो सकती है, किससे नहीं हो सकती है। लड़की अपने नीचे तबके की तो आप ले सकते हैं लेकिन अपनी लड़की नीचे बिरादरी या जाति वाले को नहीं दे सकते। तो यह मुसलमानों में भी है। यानी कास्ट सिस्टम ने इस उपमहाद्वीप की तरक्की में एक बहुत नेगेटिव रोल अदा किया।
विभाजन एक सियासी इवेंट है। उसके अंदर मेरे ख्याल से 1909 का सेपरेट एलेक्टोरेट भी एक वजह बना। वेटेज टू मुसलिम्स, के ज़रिये एक ऐसा संवैधानिक प्रावधान लाया गया, जिसके बाद मुसलमानों को चुनाव जीतने के लिए मुसलिम वोटरों की तरफ जाना पड़ता था और मुसलमान वोटरों के पास भी बस यही विकल्प था कि आप किसी मुसलमान को चुनें। इंडियन नेशनल कांग्रेस आने के बाद एक सेक्युलर इनक्लूसिव नेशनलिस्ट मूवमेंट भी बना। 1909 के ऐक्ट के बाद मुसलमानों को अलग तो कर दिया गया, लेकिन रोशनख्याल, एंटी इंपीयरियलिस्ट मुसलमान थे, उनमें मौलाना अबुल कलाम आजाद, जमीयतुल उलेमा हिंद के मौलान महमूदुल हसन, ओबैदुल्ला सिंधी, हुसैन अहमद मदनी और कई लोगों ने कांग्रेस का साथ दिया।
जवाहरलाल नेहरू और मुहम्मद अली जिन्ना
पंजाब के अंदर मजलिस-ए-अहरार और खाकसार ने भी विभाजन के आइडिया की मुखालफ़त की। मेरी किताब में एक अध्याय है, जिसकी बुनियाद है प्रो शमसुल इसलाम का रिसर्च। वे भारतीय स्कॉलर हैं। उन्होंने पूरी किताब लिखी है 'द मुसलिम्स अगेंस्ट पार्टीशन'।
अप्रैल 1940 में एक बहुत बड़ा इजतेमा हुआ मुसलिम संगठनों का विभाजन की मुखालफत के लिए। इसमें हर वह सेक्शन जो धरती के साथ बंधा हुआ था, जिनमें शिया कांफ्रेंस, अहले हदीस, देवबंद के जमीयतुल उलेमाए हिंद इस सम्मेलन में शामिल हुए थे।
इसमें नार्थ-वेस्ट फ्रन्टियर के अब्दुल गफ्फार खान थे, बंगाल से भी लोग आए थे। हर जगह से मुसलिम रहनुमा आए थे।
लेकिन जो बात ध्यान देने वाली है कि ये लोग ज्यादातर ग़रीब थे और अंग्रेजों का समर्थन पूरी तरह से मुसलिम लीग को मिला हुआ था। दूसरे विश्व युद्ध के समय कांग्रेस से बड़ी गलतियाँ हुईं। अगर कांग्रेस कह देती कि इस जंग में हम आपकी मदद करने को तैयार हैं और इसके बाद हमें आप आजादी दे दें तो शायद अंग्रेज मान जाते।लेकिन इन्होंने कहा कि पहले हमें हकूमत दी जाए उसके बाद फ़ैसला करेंगे। यह एक ऐसी बात थी जिसे ब्रिटिश मंजूर करना नहीं चाहते थे क्योंकि जहां से वे रिक्रूटमेंट करते थे वह तो मुसलिम बहुल राज्य थे। फिर जिन्ना साहेब ने उनसे कहा कि हम आपकी मदद करते हैं और भारतीय सेना के अंदर वह भर्ती जारी रही।
दामोदर विनायक सावरकर
तो कांग्रेस की कुछ इस तरह की गलतियाँ और फिर 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान तीन साल आप जेल में बैठेंगे और मैदान खुला छोड़ देंगे तो इसका फा़ायदा मुसलिम लीग ने उठाया। उसने हर जगह जाकर अपना पैगाम पहुँचाया। जब तक कोई कदम उठाया जाता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वैसे मैं नहीं समझता कि इसमें कांग्रेस का हिंदू मैजोरेटियन प्वांयट आफ व्यू था बल्कि कांग्रेस का यह नेशनलिस्ट प्वांयट आफ व्यू था। लेकिन ऐसा नेशनलिस्ट प्वांयट ऑफ व्यू जो हकीक़त से थोड़ा दूर था।
हकीक़त यही थी कि बहुत सारे इलाक़े ऐसे थे जो कांग्रेस के असर से बाहर थे और हिंदुस्तान में दक्षिणपंथी हिंदू यानी सावरकर वगैरह अंग्रेजों के साथ थे, जो राजा थे वे अंग्रेजों के साथ थे। जो हकूमत भी बनाई उस जमाने में जो वायसराय काउंसिल थी, कार्यकारी काउंसिल में जो भी हिंदू-मुसलमान थे वे भी अंग्रेजों के साथ थे। मुसलिम लीग भी उनके साथ थी यहां तक कि 1942 के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी उनके साथ हो गई। कांग्रेस ने जो स्टैंड लिया, उससे पार्टीशन ज़्यादा आसान हो गया ।