जातिवाद को ख़त्म करने में मदद करेगा आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला

08:00 am Feb 10, 2020 | डॉ. वेद प्रताप वैदिक - सत्य हिन्दी

सर्वोच्च न्यायालय के एक अत्यंत महत्वपूर्ण फ़ैसले पर देश के अखबारों और चैनलों का बहुत कम ध्यान गया है। फ़ैसले का मैं इसलिए स्वागत करता हूं क्योंकि यह देश से जातिवाद को ख़त्म करने में बहुत मदद करेगा। फ़ैसला यह है कि आप किसी भी सरकार को जाति के आधार पर नौकरियों में आरक्षण देने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। हमारे देश में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ों को आरक्षण देने की प्रथा चली आ रही है। सरकारी नौकरियों में इनकी संख्या इनके अनुपात में काफी कम है। उनके साथ सदियों से अन्याय होता रहा है। 

ये सब लोग मेहनतकश होते हैं। हाड़तोड़ काम करते हैं। हमारे राजनीतिक दलों ने इस अन्याय को ठीक करने के लिए एक बहुत ही सस्ता-सा रास्ता निकाल लिया है। वह है, सरकारी नौकरियों में उन्हें आरक्षण दे दिया जाए। कोई आदमी किसी पद के योग्य है या नहीं है, यदि वह अनुसूचित जाति से है या पिछड़ा है तो उसे उस पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इन जातियों के लोगों ने इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया था। लेकिन कुछ वर्ष पहले सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़ों में जो क्रीमी लेयर यानी मलाईदार परत यानी संपन्न लोग हैं, उनके आरक्षण को अनुचित बताया और अब उसने यह एतिहासिक फ़ैसला दिया है कि अनुसूचितों को आरक्षण देना राज्य सरकारों की इच्छा पर निर्भर करेगा और यह अनिवार्य नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह अनुसूचितों का मूलभूत अधिकार नहीं है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय के 2008 में दिए गए फ़ैसले को रद्द कर दिया और कहा कि उत्तराखंड सरकार को पूरा हक़ है कि वह समस्त सरकारी पदों को बिना किसी आरक्षण के भर सके। संविधान की धारा 16 में आरक्षण संबंधी जो प्रावधान है, वह राज्य सरकारों को इस बात की छूट देता है कि वे अपनी जांच के आधार पर तय करें कि उन्हें कोई पद आरक्षित करने हैं या नहीं यही सिद्धांत पदोन्नतियों पर भी लागू होता है। 

मुझे विश्वास है कि सभी राज्य और केंद्र सरकारें इस फ़ैसले पर सख्ती से अमल करेंगी। तब प्रश्न यह होगा कि हमारे करोड़ों पिछड़े, ग्रामीण, ग़रीब भाइयों को न्याय कैसे मिलेगा उनके साथ न्याय करना बेहद ज़रूरी है। राष्ट्र का यह नैतिक कर्तव्य है। इसके दो तरीके हैं। पहला, उन सबके बच्चों को शिक्षा, भोजन और वस्त्र मुफ्त दिए जाने चाहिए और दूसरा, मानसिक और शारीरिक श्रम की क़ीमतों में एक से दस गुने से ज़्यादा फर्क नहीं होना चाहिए। वे अपनी योग्यता से आगे बढ़ेंगे। किसी की दया के मोहताज नहीं होंगे। इससे स्वाभिमानी राष्ट्र का निर्माण होगा।  

(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)