तो डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के अगले राष्ट्रपति होंगे। उन्होंने कमला हैरिस को चुनाव में हरा दिया है। अमेरिकी इतिहास की ये अनोखी घटना है। एक ऐसे पूर्व राष्ट्रपति की जीत, जो चार साल पहले चुनाव हार गया हो, जिसको राष्ट्रपति रहते दो बार इंपीच किया गया हो, जो 34 काउंट पर कोर्ट में दोषी साबित हुआ हो और जो अगर बाक़ी के अदालती मामलों में दोष साबित हो जाये तो उसका जेल जाना तय हो, किसी चमत्कार से कम नहीं है। चुनाव के दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी ने बार-बार ये आरोप लगाया कि अगर ट्रंप जीत गये तो ये अमेरिका का आख़िरी चुनाव होगा, लोग आख़िरी बार चुनाव में वोट डालेंगे। ट्रंप को खुद उनकी सरकार में काम किये वरिष्ठ पदाधिकारियों ने फासीवादी बताया। लेकिन इन सब का मतदाताओं के दिलो-दिमाग़ पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों ने उस कमला हैरिस को हरा दिया जो लोकतंत्र के रक्षक तौर पर अपने को पेश कर रही थीं। इसका कुछ तो अर्थ होगा? जनता कुछ तो संदेश दे रही है? ये सवाल तो उठना चाहिये कि ‘लोकतंत्र ख़तरे में है, संविधान ख़तरे में है’, को लोग बड़ा मुद्दा क्यों नहीं मानते और अमेरिका में उसे जिताते हैं जो लोकतंत्र के लिये ख़तरा है?
लोग शायद ये मान सकते हैं कि अब लोकतंत्र बचाओ के नैरेटिव से या तो ऊब चुके हैं या फिर वो मानते हैं कि लोकतंत्र इतना मज़बूत हो गया है कि किसी नेता के राष्ट्रपति बनने या न बनने से लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप नहीं बिगड़ेगा! लिहाज़ा वो लोकतंत्र बचाओ के नारे को दूसरे नारे जैसा ही लेते हैं और भूल जाते हैं, और उन मुद्दों के आधार पर वोट देते हैं जो उनके लिये रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ज़्यादा अहम है। जैसे रोज़गार का सवाल, महंगाई का सवाल, अपनी पहचान का सवाल, धर्म का सवाल। ये शायद समस्या का अति सरलीकरण होगा। समस्या ज़्यादा गहरी है।
इस चुनाव में अमेरिका के सामने दो विकल्प थे। एक तरफ़ थे ‘मर्द’ डोनाल्ड ट्रंप और दूसरी तरफ़ ‘औरत’ कमला हैरिस। एक तरफ़ थे ‘श्वेत’ डोनाल्ड ट्रंप और दूसरी तरफ थी ‘अश्वेत’ कमला हैरिस। एक तरफ़ थे ‘ही मैन’ डोनाल्ड ट्रंप जिनकी जेब में था अमेरिका और दुनिया की दूसरी सारी समस्याओं का हल तो दूसरी तरफ़ थी कमला जो ‘कमजोर’ से दिखने वाले जो बाइडन की विरासत को आगे बढ़ाती दिख रही थीं। वही बाइडन जो यूक्रेन युद्ध नहीं रुकवा पाते, जो इसराइल की मनमानी पर रोक नहीं लगा पाते, जो अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं के बाहर निकलते समय अपनी छीछालेदर करवाते हैं, जो चीन को क़ाबू में नहीं कर पाते, जो अमेरिका जैसे मज़बूत देश के दिखने में बेहद कमजोर राष्ट्रपति दिखते हैं।
डोनाल्ड ट्रंप की जीत का रास्ता दरअसल आधुनिकता और पुरातनपंथ के बीच की जो उलझन है, दोनों के बीच जो संघर्ष है, उस भूल भूलभुलैया से निकलता है। ये मानना पड़ेगा और शायद इस ओर और गहन अध्ययन की ज़रूरत है कि जितना हम देश और समाज के आधुनिक होने का दंभ भरते हैं या दावा करते हैं, दरअसल वैसा है नहीं। इसलिये जो पुरातनपंथीपन है, वो मूल्य जो हजारों साल से इंसान को इंसान होने का अहसास दिलाते हैं, जो उसे बांध कर रखते हैं, वो रह-रह कर हिलोरा मारता है और वो मानवाधिकार, महिला अधिकार, गे राइट्स जैसे अत्याधुनिक मूल्यों से खुद को नहीं जोड़ पाता। वो आज भी अपने शरीर के रंग से अपनी पहचान देखता है, अपनी अस्मिता को खोजता है। जिसकी नज़र में औरतों का काम है बच्चे पैदा करना, देश और सरकार चलाना मर्दों का काम है।
ये अकारण नहीं है कि अमेरिका से जो ख़बरें आ रही हैं उनके मुताबिक़ इस बार अश्वेत और लैटिन अमेरिकी मूल के मर्दों ने पहले के मुक़ाबले कम वोट डेमोक्रेटिक पार्टी को दिये। इस समाज के लिये गर्भपात कराने का अधिकार औरतों के पास नहीं होना चाहिये।
इस वोटर को वैश्वीकरण और अमेरिका के ‘मेल्टिंग पॉट” कान्सेप्ट में खुद की पहचान खो जाने का ख़तरा दिखता है। उसे लगता है कि अमेरिका तो श्वेतों, ईसाइयों की ज़मीन है, अश्वेत, लैटिनो और एशियाई अफ्रीकी मूल के लोगों के आने से उनकी पहचान ख़त्म हो जायेगी।
ऐसे में जब ट्रंप आप्रवासियों के ख़िलाफ़ बोलते हैं तो अमेरिका के एक बड़े तबक़े को लगता है कि ट्रंप कितने भी ख़राब क्यों न हो वो उनकी पहचान को बचाने के लिये लड़ रहे हैं जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी उनकी पहचान को ख़तरे में डाल रही है। हम इसे ‘कबीलावाद’ भी कह सकते हैं। जिसका अर्थ है एक कबीले के लोगों को एक साथ रहना चाहिये और बाहर के लोग कबीले के लिये ख़तरा बन सकते हैं।
ये प्रवृत्ति इस वक़्त पुरी दुनिया में सिर उठा रही है। इस प्रवृत्ति की नुमाइंदगी दक्षिणपंथ पूरी शिद्दत से करता है। और जैसे-जैसे वैश्वीकरण टेक्नोलॉजी के माध्यम से दुनिया के हर घर को अपनी चपेट में ले रहा रहा है वैसे-वैसे क़बीलाई मानसिकता अपने को और असुरक्षित महसूस कर रही है। उसे संतोष और सुरक्षा अपने तरह के लोगों के बीच ही मिलती है। वो इस सुरक्षा की तलाश में ईश्वर के और क़रीब हो जाता है। ये अनायास नहीं है कि ट्रंप की जीत को ईसाई धर्म की जीत के तौर पर देखा जा रहा है।
गर्मपात का प्रश्न भी धर्म से गहरे जुड़ा है। भारत में भी बीजेपी अपनी राजनीति हिंदू धर्म की ओट से करती है और ‘हिंदू ख़तरे में है’ इसे वो जनता को समझाने में नहीं चूकती। दूसरे धर्म के लोगों से हिंदुओं को ख़तरा है, ये बात क़रीने से फैलाई जाती है। बांग्लादेशी घुसपैठियों के सवाल को लोगों के बीच खुद प्रधानमंत्री ले कर जाते हैं। लव जिहाद का नारा बुलंद किया जाता है, मोदी ट्रंप में अपना दोस्त खोजते हैं और मोदी समर्थक ट्रंप की जीत के लिये प्रार्थना करते हैं।
ये प्रवृत्ति लगातार तेज़ी से बढ़ रही है। मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था और विचार इसे रोकने में नाकाम हैं और अगर इस प्रवृत्ति पर जल्दी रोक नहीं लगी तो लोकतंत्र बचेगा या नहीं, ये सवाल बड़ा हो जायेगा। मेरा मानना है कि लोकतंत्र की दुहाई देने वालों को अपनी रणनीति में बुनियादी बदलाव करने की ज़रूरत है। उन्हें इंसान की कबीलाई मानसिकता के सवाल को समझना पड़ेगा और धर्म पर हमले बंद करने होंगे। धर्म की ताक़त को कम कर आँकने की वजह से ही दुनिया में लोकतंत्र ख़तरे में पड़ता दिख रहा है। पुराने लोकतंत्र के सवालों की जगह नये सवाल खोजने पड़ेंगे जो आम इंसान की बेचैनी और असुरक्षाबोध का हल दे सके। ट्रंप की जीत लोकतंत्र की हार नहीं बल्कि एक चेतावनी है। अगर अब भी लोकतंत्र के वकील अपने में सुधार नहीं करेंगे, रणनीति नहीं बदलेंगे, पुरानी द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद की लकीर ही पीटेंगे तब तो लोकतंत्र ज़रूर ख़त्म होगा। बदलाव लाना होगा।