तेजस्वी यादव से क्यों परेशान हैं नीतीश कुमार?

08:01 am Mar 04, 2020 | प्रीति सिंह - सत्य हिन्दी

बिहार में कुछ महीने बाद चुनाव होने वाले हैं। राज्य में फ़िलहाल दो गठबंधनों के इर्द गिर्द चुनाव घूम रहा है, लेकिन जनता दल यूनाइडेट यानी जदयू नेता नीतीश कुमार इस बार ज़्यादा परेशान नज़र आ रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल यानी राजद के संस्थापक लालू प्रसाद भले ही जेल में हैं, लेकिन उनके पुत्र तेजस्वी यादव ने नीतीश को चौतरफ़ा घेर रखा है। ऐसे में नीतीश ने एनआरसी के ख़िलाफ़ और ओबीसी की जाति जनगणना कराने का प्रस्ताव विधानसभा में पारित कराकर पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यकों का हितैशी चेहरा दिखाने की कवायद की है। जदयू गठबंधन से अलग होने के बाद राजद ने कुछ ऐसे क़दम उठाए हैं जिससे नीतीश कुमार की चिंता बढ़ी है।

बिहार में जातीय समीकरण अहम है। कर्पूरी ठाकुर के दौर से ही राज्य में ओबीसी और एससी नेताओं की एक लंबी शृंखला रही है। पिछले 15 साल के दौरान राजद के कमज़ोर रहने की एक बड़ी वजह यह है कि नीतीश कुमार ने राज्य में अति पिछड़े वर्ग को गोलबंद किया और भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी का साथ लेकर सवर्णों का वोट अपने पाले में कर लिया। राजद में अधिकतर यादवों और ठाकुरों के अलावा पार्टी प्रत्याशियों के वोट ही बचे। साथ ही बड़े आक्रामक तरीक़े से यह दिखाने की कवायद की गई कि राजद यादवों की पार्टी है। हालाँकि राजनीतिक विश्लेषक हमेशा यह कहते रहे हैं कि कम से कम लालू प्रसाद ने कोई ऐसा जातीय समीकरण कभी नहीं बनाया और जब वह सत्ता में रहे तो उन्होंने हमेशा वंचितों, दलितों, पिछड़ों की बात की। नलिन वर्मा द्वारा लिखित लालू प्रसाद की जीवनी “गोपालगंज से रायसीना” में लालू ने ख़ुद इस बात पर आश्चर्य जताया कि उन्हें सिर्फ़ यादवों से कैसे जोड़ दिया जाता है, जबकि कभी भी वह किसी यादव सम्मेलन या जाति विशेष के कार्यक्रम में नहीं गए हैं।

तेजस्वी यादव ने पार्टी में पदाधिकारियों के चयन में ज़बरदस्त जातीय विविधता दिखाई है। हाल में ज़िला स्तर के प्रमुखों की सूची में परंपरागत मुसलिम-यादव समीकरण से हटते हुए पार्टी ने पिछड़े वर्ग को ख़ास अहमियत दी है। इस सूची में यादवों और मुसलिमों की संख्या घटाकर अत्यंत पिछड़े वर्ग के 14 और अनुसूचित जाति के 8 सदस्यों को शामिल किया गया है। वहीं यादवों की संख्या 23 से घटाकर 13 और मुसलिमों की संख्या 17 से घटाकर 12 कर दी गई है। इसके अलावा बिहार में क्षत्रिय समुदाय पहले से ही जदयू के साथ है। प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह और रघुवंश प्रसाद सिंह हमेशा से पार्टी के वफादारों में बने रहे और उन्होंने कभी लालू का साथ नहीं छोड़ा है।

पिछड़े वर्ग के मसले पर सक्रियता

तेजस्वी ने पिछड़े वर्ग के किसी मसले को लपकने में ज़रा भी देरी नहीं की। बीजेपी की विभिन्न सरकारों द्वारा ओबीसी आरक्षण सही तरीक़े से लागू न करने से लेकर रोस्टर प्रणाली में गड़बड़ियों सहित हर मसले पर तेजस्वी सक्रिय रहे। ओबीसी की जनगणना के मसले पर भी तेजस्वी ख़ूब बोले। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर यानी एनआरसी को बिहार में उन्होंने पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति के लोगों से जोड़ा। पार्टी कार्यकर्ताओं ने आम नागरिकों को बताने की कवायद की कि किसी व्यक्ति से अगर भारतीय होने का प्रमाण पत्र माँगा जाने लगेगा तो यह दलितों-पिछड़ों के ऊपर कितना ज़्यादा असर दिखाएगा। 

ज़मीनी स्तर पर राजद के कार्य ने बिहार में अच्छा असर दिखाया है और राज्य में अब ज़्यादा चर्चा यह है कि एनआरसी से मुसलमानों नहीं, बल्कि पिछड़ों और दलितों को समस्या होने वाली है।

राजद की मुसीबतें

जदयू को अब 15 साल लगातार सत्तासीन रहने के बाद राजद की मुसीबतों का ही सहारा है। नीतीश कुमार के समर्थकों का मानना है कि अभी राजद के ऊपर अहिरों की पार्टी होने का ठप्पा लगा हुआ है और इससे उबर पाना उसके लिए मुसीबत है। तेज प्रताप यादव को भी राजद की मुसीबत के रूप में देखा जा रहा है, जो कभी भी कोई हंगामा खड़ा कर सकते हैं। तेज प्रताप का उनकी पत्नी से झगड़े से लेकर उनका शिव रूप धारण करना और बांसुरी से लेकर शंख बजाने की चर्चा बनी रहती है। आजकल वह लंबे बाल के शौकीन हो गए हैं और वह पार्टी के हर मंच पर सामने आने की कवायद करते रहते हैं।

राजद के लिए गठजोड़ बनाना भी मुश्किल है। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के अलावा तमाम छोटे-छोटे दलों को साथ लेने की कवायद की। यह कवायद बुरी तरह फ़ेल रही और पार्टी अपने इतिहास में पहली बार लोकसभा में नहीं पहुँच सकी। झारखंड में गठबंधन की जीत के बाद कांग्रेस भी ज़्यादा सीटें माँगने को तैयार बैठी है। इसके अलावा जीतनराम मांझी का हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी भी हैं, जो अपनी माँगों के साथ राजद के सामने तनने वाली हैं।

नीतीश कुमार से अलग होकर प्रशांत किशोर नए हीरो बनकर उभरे हैं। उनके अलावा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यानी भाकपा के नेता कन्हैया कुमार भी राज्य में सक्रिय हैं और जन-गण-मन यात्रा पर निकले हैं।

बिहार में लालू प्रसाद के राजनीति के केंद्र में आने के बाद राज्य की राजनीति पूरी तरह से ओबीसी केंद्रित हो गई, जिसमें दलितों को भी अच्छी ख़ासी हिस्सेदारी मिली। वहीं 1989 के बाद से ही राज्य में सवर्ण राजनीति हाशिये पर है। यहाँ तक कि भाजपा भी कभी हिम्मत न बना पाई कि वह किसी सवर्ण को राज्य में अपने दल के नेता के रूप में प्रस्तुत करे। राज्य में पहले यादव जाति के नित्यानंद राय को अध्यक्ष बनाया गया। राय का कद बढ़ाते हुए उन्हें मोदी मंत्रिमंडल में जगह दी गई। वहीं अब राज्य में संजय जायसवाल को बिहार में प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है, जो पिछड़े वर्ग के हैं।

ऐसे में राज्य के सवर्ण राजनीति में अपनी पहचान को तरस रहे हैं और किसी तीसरे मोर्चे से इनकार नहीं किया जा सकता है। कन्हैया कुमार और प्रशांत किशोर दोनों ही सवर्ण जातियों से हैं। साथ ही भाकपा की राज्य के दलितों में अच्छी पकड़ है। यह भाजपा के लिए भी मुफीद है कि राज्य में कोई ऐसा तीसरा मोर्चा बन जाए, जो बड़े पैमाने पर राज्य के मुसलमान मतदाताओं को बाँटने में कामयाब रहे। राज्य में क़रीब 50 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ अल्पसंख्यक मतदाता 20 प्रतिशत से ऊपर है। ऐसे में मुसलमान अगर जदयू से हटकर एकमुश्त राजद गठबंधन को वोट देते हैं तो यह भाजपा के लिए बड़ी मुसीबत है। अगर भाकपा अलग से चुनाव लड़ती है और प्रशांत किशोर की पार्टी उसका साथ देती है तो मुसलमानों के मत का विभाजन हो सकता है। राज्य के तीसरे मोर्चे में राजद के नेतृत्व वाले गठजोड़ के कुछ दल भी शामिल हो सकते हैं

इसके अलावा अगर संभावित तीसरा मोर्चा नहीं बनता और उसे राजद में ही समायोजित किया जाता है तब भी सीट बँटवारे को लेकर बड़ी मुसीबत होगी, जिसे संभालना तेजस्वी के लिए आसान न होगा।

किसका पलड़ा भारी

जदयू के शीर्ष नेता नीतीश कुमार की घबराहट के अगर कोई मायने निकाले जाएँ तो अभी राजद का गठबंधन बिहार में मज़बूत नज़र आ रहा है। मुसलिम मतदाता भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट हैं ही, ओबीसी मतदाताओं के बड़े तबक़े को राजद अपनी तरफ़ खींचने की कवायद कर रहा है। वहीं नीतीश कुमार भले ही यह दावा कर रहे हैं कि भाजपा के साथ उनका गठबंधन बहुत मज़बूत है, लेकिन उन्हें यह चिंता ज़रूर सता रही होगी कि जाति जनगणना और एनआरसी जैसे मसलों पर सवर्ण मतदाता उनके गठजोड़ से खिसक सकते हैं। बहरहाल विधानसभा चुनाव के पहले अभी पटना की गंगा में बहुत पानी बहना शेष है।