कोरोना संकट के समय अगर किसी सरकार ने अपने राज्य के लोगों को लेकर सबसे उदासीन, बल्कि नकारात्मक रवैया दिखाया है तो वह है बिहार की नीतीश कुमार सरकार। जेडीयू-बीजेपी गठबंधन की सरकार ने अपने ही राज्य के लोगों की मदद में बिल्कुल भी दिलचस्पी नहीं ली, बल्कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। जानलेवा कोरोना के ख़तरे को देखते हुए मज़दूर अपने घरों को लौटने के लिए छटपटा रहे थे मगर ‘सुशासन बाबू’ पता नहीं किस जोड़-तोड़ में लगे हुए थे।
और अब तो उन्होंने मज़दूरों को गिरमिटिया और ग़ुलाम बनकर काम करने के लिए अनाथ छोड़ दिया है। यही वज़ह है कि कर्नाटक सरकार ने बिल्डरों के दबाव में बिहारी मज़दूरों को बंधक बना लिया है, मगर वह चुप हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं। गुजरात सरकार सूरत से बिहार के मज़दूरों को जाने नहीं दे रही है, वे कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं, उन पर लाठी चार्ज किया गया है, मगर नीतीश कुमार की ज़ुबान नहीं खुल रही, बिहार सरकार की आवाज़ नहीं निकल रही है।
इन राज्यों में मज़दूरों को न तो ठीक से खाना दिया जा रहा है और न ही रहने का सही इंतज़ाम किया गया है। यही नहीं, फैक्ट्री मालिकों ने उनके वेतन तक रोक रखे हैं मगर नीतीश कुमार को कोई चिंता नहीं है। बल्कि अब ख़बर तो यह है कि वे दबे छिपे ढंग से बिहार से मज़दूरों को दूसरे राज्यों में भेज रहे हैं। ज़ाहिर है कि उन्हें बहलाया फुसलाया गया होगा और बहुतों को मजबूर भी किया होगा।
क़रीब दो हज़ार मज़दूरों को रातोरात तेलंगाना भेज दिया गया है। राज्य सरकार चूँकि मज़दूरों की सप्लाई चुपचाप तरीक़ों से कर रही है, इसलिए बहुत मुमकिन है कि हमें पूरी जानकारी न मिले या बाद में मिले। यह भी मुमकिन है कि हमें यह बताया जाए कि मज़दूर काम के लालच में ख़ुद ब ख़ुद चले गए।
कहा जा रहा है कि बहुत सारे राज्य नीतीश कुमार पर दबाव डाल रहे हैं कि वे उन्हें न लौटने के लिए मनाएँ, ताकि उनके राज्यों में काम-धंधे चलें। नीतीश इस दबाव में आ भी गए हैं। वह उन राज्यों से यह नहीं पूछ रहे कि पैंतालीस दिनों तक वे क्या कर रहे थे। उन्होंने इन मज़दूरों की सही ढंग से देखभाल क्यों नहीं की, अगर की होती तो वे वापस ही क्यों लौटना चाहते
कुल मिलाकर यह साफ़ दिख रहा है कि सबसे ज़्यादा अपमान और परेशानियाँ बिहारी मज़दूरों को भुगतनी पड़ रही है। और इसके लिए कोई और नहीं, बिहार की सरकार और ख़ास तौर पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ज़िम्मेदार माने जाएँगे।
उन्होंने बिहार से बाहर काम करने वाले मज़दूरों की कभी परवाह नहीं की, बल्कि वे तो इस कोशिश में थे कि जहाँ हैं वहीं रहें, वहीं जिएँ, वहीं मरें!
जब तमाम राज्य अपने छात्रों और मज़दूरों की चिंता कर रहे थे, उनको वापस लाने के इंतज़ाम कर रहे थे तो नीतीश कुमार हाथ पर हाथ धरे बैठे थे या गेंद केंद्र के पाले में डालने की फ़िराक में थे। वह कोई ज़िम्मेदारी लेने को तैयार ही नहीं थे। हालाँकि कुछ विधायकों को उनकी सरकार ने अपनी औलादों को कोटा से लाने का पास ज़रूर दे दिया था।
नीतीश कुमार हर मोर्चे पर फिसड्डी
मज़दूरों के बारे में तो नीतीश कुमार का रवैया और भी नकारात्मक था। अव्वल तो उनकी कोशिश थी कि वे न आएँ लेकिन जब तय हो गया कि उनके लिए ट्रेन चलाई जाएँगी तो यात्रा किराए के मामले में चुप्पी लगा गए। वो तो जब राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव ने पचास ट्रेनों का किराया पार्टी फंड से देने का एलान कर दिया तब वह एकदम से घबरा गए और और फिर उन्होंने घोषणा कर दी कि यात्रा किराया सरकार देगी।
सचाई तो यह है कि नीतीश कुमार हर मोर्चे पर फिसड्डी साबित हुए हैं। पिछले पंद्रह साल में उन्होंने बिहार का कबाड़ा कर दिया है। बिहार में उद्योग-धंधों की हालत वैसी ही है जैसी लालू के राज में थी।
अर्थव्यवस्था के झूठे आँकड़े देकर नीतीश कुमार कई सालों तक देश को बरगलाते रहे, मगर अब तो सारी सच्चाइयाँ सामने आ चुकी हैं।
मीडिया में बिहार के विकास की जो झूठी कहानियाँ दिखलाई गई थीं, अब उन पर कोई विश्वास नहीं करता। स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल है उसकी पोल पहले ही खुल चुकी है। बिहार को विशेष दर्ज़ा दिलवाने का जुमला भी फेल हो चुका है।
कुल मिलाकर अब कुछ भी ऐसा नहीं है जिसके बल पर नीतीश कुमार नवंबर में होने वाले चुनाव के लिए अपनी बिसात बिछा सकें। उनकी लोकप्रियता का ग्राफ़ बिल्कुल नीचे गिर चुका है। पूरे बिहार मे उन्हें धिक्कारा जा रहा है। कोरोना संकट एक ऐसा मौक़ा था जब वह बिहारियों के मान-सम्मान और उनके भविष्य की परवाह करके उनका दिल जीत सकते थे। लेकिन ये सामर्थ्य भी उनमें नहीं बचा है। ऐसे में कहीं ऐसा न हो कि बीजेपी ही चुनाव के पहले उनसे मुक्ति पा ले।
ख़ैर राजनीतिक खेल अपनी जगह पर है और मज़दूरों की पीड़ा अपनी जगह पर। मज़दूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए नीतीश कुमार पर दबाव बनाया जाना चाहिए।