मौसम-ए-होली है दिन आए हैं रंग और फाग के
हमसे तुम कुछ माँगने आओ बहाने फाग के
-मुसहफी ग़ुलाम हमदानी
एक उदार मुसलिम परिचित तहसीन आलम ने ताज़ा हालात पर चिंता जताते हुए हताश स्वर में कहा - आप लोग बार-बार गंगा-जमुनी संस्कृति की बात करते हैं, कब था ऐसा वक़्त। हमने तो जब से होश संभाला, ऐसा नहीं देखा। ये क्या चीज होती है...। दोनों तरफ़ हमेशा तलवारें खिंची रहती हैं। जाने कितने जन्मों से बैर चला आ रहा है। उनके परम मित्र विजय बसंल भी कटु हो उठते हैं कि क्यों होली, दीवाली पर मुसलिम कामगारों को छुट्टी नहीं मिलती, वे क्यों उस दिन उदासीन रहते हैं, काम पर जाते हैं, वे क्यों नहीं हमारे पर्व, त्योहारों में शामिल होते हैं। जबकि हमने ईद मनानी शुरू कर दी है। किसके पास जवाब है?
युवा तहसीन और विजय उस दौर की पैदाइश हैं जब मुल्क में माहौल सचमुच बहुत ख़राब हो चुका है और दोनों समुदायों के बीच अविश्वास की गहरी खाई खुद चुकी है। जिसे और गहरा करने के लिए दोनों तरफ़ कुछ लोग सक्रिय हैं। उन्होंने सिर्फ़ तनाव देखा और महसूस किया है। पिछले कुछ सालों में तो सबसे ज़्यादा, जब दोस्तियाँ भी संदिग्ध हो उठी हैं।
हाल ही में होली के एक विज्ञापन को लेकर मचे बवाल पर तहसीन और विजय, दोनों हैरतजदा थे। वे अकेले नहीं, हम सब हैरत में थे कि एक मासूम से विज्ञापन पर, जो इतना सुंदर संदेश देता है, कैसे कोई राजनीति कर सकता है।
क्या हमें कभी वे कारक नज़र नहीं आते जो खाई खोदने वाले मजदूरों में बदल चुके हैं जिनके हाथ में हमेशा सांप्रदायिकता का फावड़ा होता है। जो किसी भी कौम का सुख-चैन खोद कर फेंक देना चाहते हैं। ऐसे में हमें सुकून की छायाएँ तलाश लेनी चाहिए ताकि विश्वास की पुनर्बहाली हो सके।ऐसे लोगों को इतिहास के गलियारे में सदेह तो नहीं ले जाया जा सकता, उनके सामने मुसलिम शायरों, कवियों की लिखी सारी नज्में धरी हैं, जिसकी गूंज दुनिया की कोई ताक़त ख़त्म नहीं कर सकती।
ये शायर वह धरोहर हैं जिनके बिना होली के रंग फीके हैं, दीवाली की चमक फीकी है। इनके टक्कर की कोई कविता बताएँ। इन्हें भुलाकर होली के कौन से रंग पाएँगे हम लोग।
कौन कहेगा इनकी तरह…, “जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की...है इसके टक्कर की कोई कविता किसी के पास। ये कब रची गई? तब रची गई जब सचमुच देश में गंगा-जमुनी संस्कृति का दौर था। यह वह दौर था जब उर्दू की शायरी अपने शिखर पर थी और नज़ीर अकबराबादी, मीर, सौदा, जुरअत, इंशा और मुसहफी जैसे शायर अपने अवाम को चुन कर शायरी में कहर ढा रहे थे।
ये सभी शायर अपने लोक को पहचानते थे। लोक की जुबान थी, लोक जीवन था और लोक रंग थे। होली, दीवाली, पतंगबाज़ी या शब-ए-रात हो, जहाँ अवाम हो, वहाँ इन शायरों की पैनी निगाहें थीं।
इन शायरों ने लोक-संस्कृति को खू़ब पहचाना, उसका अध्ययन किया और उन पर लिखा। इनके दिलों में देश प्रेम और भ्रातृभाव का जज्बा भरा हुआ था और ये सब धार्मिक सहिष्णुता के घोर पक्षधर थे। यही नहीं, थोड़ा और पीछे चलते हैं। खड़ी हिंदी के पहले कवि अमीर खुसरो को कौन संगीत प्रेमी भूल सकता है भला। इनके बिना इतिहास लिखा नहीं जा सकता। इनके टक्कर का रंग किसके पास है। महबूब के प्रति इतना दिलकश रंग कहाँ छलकता है री...कोई तो बता दे...।
इतिहास में दर्ज है कि अमीर खुसरो जिस दिन हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीद बने थे, उस दिन होली थी। मतवाली हवा में अबीर-गुलाल की रंगीन महक थी। अपने मुरीद होने की ख़बर अपनी माँ को देते हुए उनके बोल निकले थे -
"आज रंग है, ऐ माँ रंग है री
मोहे महबूब के घर रंग है री
सजन गिलावरा इस आँगन में
मैं पीर पायो निज़ामुद्दीन औलिया
गंज शकर मोरे संग है री...।"
अमीर खुसरो ने हालात-ए कन्हैया एवं किशना नामक हिंदवी में एक दीवान लिखा था। इसमें उनके होली के गीत भी हैं, जिनमें वह अपने पीर हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के साथ होली खेल रहे हैं -
"गंज शकर के लाल निज़ामुद्दीन चिश्त नगर में फाग रचायो
ख़्वाजा मुईनुद्दीन, ख़्वाजा कुतबुद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो
सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो
अपने रंगीले पे हूँ मतवारी, जिनने मोहे लाल गुलाल लगायो
धन-धन भाग वाके मोरी सजनी, जिनोने ऐसो सुंदर प्रीतम पायो…।"
होली खेलने की जिद मुसलिम शायरों में अद्भुत ढंग से अभिव्यक्त हुई है। होली को वे आध्यात्म से जोड़ कर देखते हैं और प्रीतम के रंग में रंग जाते हैं। यह रंग एक जिद की तरह है और साधना की तरह भी। प्रीतम तक पहुँचने का मार्ग भी।
पंजाबी के प्रसिद्ध सू़फी कवि बाबा बुल्ले शाह अपनी एक रचना में होली का ज़िक्र कुछ इस अंदाज़ में करते हैं -
"होरी खेलूँगी कहकर बिस्मिल्लाह
नाम नबी की रतन चढ़ी, बूँद पड़ी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फना फी अल्लाहहोरी खेलूंगी कहकर बिस्मिल्लाह...।"
प्रसिद्ध कृष्ण भक्त रसख़ान के होली प्रेम के बिना होली के रंग अधूरे हैं। रसख़ान की कविताओं में ब्रज की होली के प्रति गहरी आसक्ति दिखाई देती है -
"फागुन लाग्यौ सखि जब तें तब तें ब्रजमंडल में धूम मच्यौ है
नारि नवेली बचै नाहिं एक बिसेख मरै सब प्रेम अच्यौ है
सांझ सकारे वही रसखानि सुरंग गुलालन खेल मच्यौ है
को सजनी निलजी न भई अरु कौन भटु जिहिं मान बच्यौ है।"
- होली की सुबह है, बहादुर शाह ज़फ़र लाल किले के धरोखे में बैठे हैं, अपने हिंदू-मुसलिम उमरा के साथ। होली के हुड़दंगी, स्वांग रचते, हो हल्ला करते, टोलियाँ दर टोलियाँ उनके सामने से गुजर रही हैं। रंगीन झांकियाँ निकल रही हैं...बादशाह मुग्ध भाव से इस रंगीन नज़ारे को देख रहे हैं। उनके मुँह से निकलता है - "क्यों मो पे मारी रंग की पिचकारी, देखो कुंवर जी दूंगी मैं गारी...।" इसके बाद सारे उमरा रंग में डूब जाते हैं। बादशाह की तबीयत रंगीन क्या हुई, सारा मंजर बदल गया।
फ़ाएज़ देहलवी (1690-1737) ने दिल्ली की होली का कुछ अलग ही अंदाज़ में वर्णन किया है। यहाँ दिल्ली की होली का चित्रण इस तरह किया गया है कि सखियाँ इत्र और अबीर छिड़कती हैं, रंग उड़ाती हैं। गुलाल से उनका गाल आतिशफ़िशां यानी ज्वालामुखी की तरह हो जाता है। हर घर में ढोलक बजते हैं और पिचकारियाँ चलती हैं -
"जोश-ए-इशरत घर-ब-घर है हर तरफ़
नाचती हैं सब तकल्लुफ़ बर तरफ़
ले अबीर और अरगजा भरकर रुमाल
छिड़कते हैं और उड़ाते हैं गुलाल
ज्यूं झड़ी हर सू है पिचकारी की धार
दौड़ती हैं नारियाँ बिजली की सार।"
- उर्दू के सबसे मशहूर शायरों में से एक मीर तक़ी मीर (1722-23-1810) की होली से संबंधित दो मसनवियाँ मिलती हैं। ‘दर जश्न-ए-होली-ओ-कत-ख़ुदाई’ जो आसिफ़ुद्दौला की शादी के मौक़े पर लिखी गईं -
"आओ साक़ी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाईं
जश्न-ए-नौ-रोज़-ए-हिंद होली है
राग रंग और बोली ठोली है
आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई।"
मीर अपनी दूसरी मसनवी ‘दर बयान-ए-होली’ में फरमाते हैं -
"होली खेला आसिफ़ुद्दौला वज़ीर…
क़ुमक़ुमे जो मारते भर कर गुलाल
जिस के लगता आन कर फिर मुँह है लाल
होली खेला आसिफु़द्दौला वज़ीर
रंग सोहबत से अजब हैं ख़ुर्दोपीर।"
नवाब सआदत अली खाँ के दौर में महज़ूर नाम के एक शायर थे जिन्होंने ‘नवाब सआदत की मजलिसे होली’ नाम से एक नज़्म लिखी जिसकी पहली पंक्ति कुछ यूँ हैं -
"मौसमे होली का तेरी बज़्म में देखा जो रंग।"
हातिम नाम के एक और शायर ने भी होली का वर्णन अपनी नज्मों में किया है -
"मुहैया सब है अब अस्बाबे होली।
उठो यारों भरों रंगों से झोली।"
नज़ीर अकबराबादी के अलावा नज़ीर बनारसी ने भी होली को लेकर कुछ नज्में कहीं हैं -
"ये किसने रंग भरा हर कली की प्याली में
गुलाल रख दिया किसने गुलों की थाली में।"
मशहूर गायिका गौहर जान अक्सर गाती थीं -
"मेरे हज़रत ने मदीने में मनाई होली" तो आबिदा परवीन ने मशहूर सूफ़ी शायर शाह नियाज़ के कलाम को अपनी खूबसूरत और बेजोड़ आवाज़ में ढाला है -
"होली होए रही अहमद जियो के द्वार
हज़रत अली का रंग बनो है हसन हुसैन खिलार
ऐसो होली की धूम मची है…।"
मुगल बादशाह शाह आलम सानी अपनी तमाम रचनाओं में हिन्दुस्तानी तहज़ीब का जश्न मनाते हुए नज़र आते हैं -
"तुम तो बड़ी हो चातुर खिलार, लालन तुन सूँ खेल मचाऊँ, रंग भिजाऊँ
दफ़, ताल, मिरदंग, मुहचंग बजाऊँ, फाग सुनाऊँ, अनेक भांत के भाव बताऊँ।"
शायर शाह आलम सानी की कुछ और पंक्तियाँ सुनिए -
"नैनन निहारियाँ, क्यारियाँ लगें अति प्यारियाँ
सौ लेकर पिचकारियाँ, और गावें गीत गोरियाँ...।"
मोहम्मद रफ़ी सौदा (1713-1780) के यहाँ भी होली का वर्णन मिलता है -
"ब्रज में है धूम होरी की व लेकिन तुझ बग़ैर
ये गुलाल उड़ता नहीं, भड़के है अब ये तन में आग।"18वीं शताब्दी के अंतिम दशक के महत्वपूर्ण शायर क़ाएम चांदपुरी (1725-1794) ने अपनी एक मसनवी ‘दर तौसीफ़-ए-होली’ यानी होली की तारीफ़ में लिखा -
"किसी पर कोई छुप के फेंके है रंग
कोई क़ुमक़ुमों से है सरगर्म-ए-जंग
है डूबा कोई रंग में सर-ब-सर
फ़क़त आब में है कोई तर-ब-तर।"
होली की बात हो और अवध के आख़िरी नवाब और भारतीय संगीत, नृत्य एवं नाटक के संरक्षक वाजिद अली शाह (1822-1887) की बात न हो यह कैसे संभव है। वे अपने दरबार में होली का जो जश्न मनाते थे उसके बारे में सुनकर हैरत होती है। वे एक अच्छे शायर भी थे और अपनी रचनाओं में होली का ज़िक्र भी क्या खूब किया है -
"मोरे कान्हा जो आए पलट के
अब के होली मैं खेलूँगी डट के
उनके पीछे मैं चुप के से जा के
ये गुलाल अपने तन से लगा के
रंग दूँगी उन्हें भी लिपट के।"
उर्दू के मशहूर शायर जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई के दौरान इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद जैसा नारा दिया और जो मौलाना होते हुए भी अपनी कृष्ण भक्ति के लिए भी मशहूर थे, मौलाना हसरत मोहानी (1875-1951) ने होली पर क्या मनोरम दृश्य रचा है -
"मोहे छेड़ करत नंद लाल
लिए ठाड़े अबीर गुलाल
ढीठ भई जिन की बरजोरी
औरां पर रंग डाल-डाल।"
वहीं, सीमाब अकबराबादी (1880-1951) ने तो अपनी नज़्म ‘मेरी होली’ में होली को एक नए अर्थ में पेश किया है -
"इर्तिक़ा के रंग से लबरेज़ झोली हो मिरी
इन्क़िलाब ऐसा कोई हो ले तो होली हो मिरी।"
होली से शायरों का लगाव कितना प्राचीन और कितना गहरा है, जरा शेख़ जी के शेर पढ़िए। शेख जहूरुद्दीन हातिम (1699-1783) दिल्ली वाले थे। मौलवी बनने की शपथ ली थी लेकिन उनका दिल विभिन्न संस्कृतियों में रमता था। वे कूपमंडूक होकर नहीं जीना चाहते थे। अपने समय के वे संस्कृति पुरुष माने गए। उन पर इसके लिए लानतें भी बरसी, क्योंकि वे उस समय दोयम दर्जे के शागिर्द शायरों से घिरे हुए थे। दिल्ली वाले होते हुए भी इन्होंने कुछ समय इलाहाबाद में, नवाब अमदत-उल-मुल्क के साथ, इंसपेक्टरी करते हुए गुजारा था। बाद में बाक़ी जीवन उन्होंने एकातंवास में बिताया लेकिन अपने विचारों से समझौता नहीं किया।
शेख जहूरुद्दीन हातिम का एक शेर यूँ है -
"मुहय्या सब है अब अस्बाब-ए-होली
उठो यारों भरो रंगों से झोली..."।
इतिहास से बाहर आकर भी समकालीन शायरी में होली के रंग मिलते हैं। समकालीन शायरों के यहाँ भी होली बहार का पैगाम लाती है।
मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के रहने वाले मशहूर शायर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने लिखा है –
"गुलशन पे रंग व नूर की बदली-सी छाई है
पौधों को है खुगार, हवा पी के आई है
फूलों को देखिए तो अजब दिसरुबाई है
रंगीनियों से आज मेरी आशनाई है
होली नई बहार का पैगाम लाई है
कांटों को भी उबेर लजाती हुई कली
उड़ता हुआ गुलाब हवा में गली-गली
हर सिम्त नाचती हुई मस्तों की मंडली...।"
युवा शायरा शादमा जै़दी शाद भला होली के प्रभाव से कहाँ बच पाईं। पढ़िए -
"फागुन बनके आ गये
देखो केसरिया कचनार
बिन अबीर के हो गया
गोरा मुख कचनार
चलती फिरती वाटिका लगे बसंती नार
सजन होली में...।"
युवा कथाकार-शायर-कवि सईद अयूब इस संदर्भ में बहुत-सी बातें, धारणाएँ स्पष्ट करते हैं। सईद के अनुसार आज के बहुत से शायर होली ही नहीं बल्कि हर त्यौहार पर ग़ज़लें या नज़्में कह रहे हैं जिनमें से कई तो बहुत ही युवा हैं। जैसे आज के दौर के मशहूर युवा शायर अज़हर इक़बाल फ़रमाते हैं कि -
"कहीं अबीर की ख़ुश्बू, कहीं गुलाल का रंग
कहीं ये शर्म से सिमटे हुए जमाल का रंग
चले भी आओ भुलाकर सभी गिले-शिकवे
बरसना चाहिए होली के दिन विसाल का रंग।"
उत्साह में भर कर सईद बताते हैं- “एक अच्छे शायर के अंदर दरअसल मुहब्बत और मस्ती की एक मलंग रूह बसती है इसलिए वह उन सभी चीज़ों की ओर बहुत तेज़ी से खिंचता है जहाँ से मुहब्बत की रौशनी और ख़ुश्बू आ रही हो।“
सईद खुल कर स्वीकारते हैं कि होली मुहब्बत और मस्ती से भरपूर त्योहार है। यह देखना दिलचस्प है कि जिस इसलाम में धर्म को लेकर बहुत सी वर्जनाएँ हैं, वहीं एक शायर मदीना तक में और अपने नबी तक से होली खिलवा लेता है।
असल में इसलाम और भारतीय मुसलमान दो अलग-अलग चीज़ हैं। भारतीय मुसलमान, इसलाम की पूजा पद्धति का पालन तो करता है लेकिन सांस्कृतिक रूप से वह भारतीय है, इसलिए उसे होली, दीवाली आदि त्योहार मनाने और इसमें शामिल होने में कभी कोई दिक़्क़त नहीं होती है। इसमें उनका धर्म कभी आड़े नहीं आता और जहाँ तक समाज के विरोध की बात है तो कुछ अत्यधिक धार्मिक मौलवी-मौलाना को छोड़ दिया जाए तो आम मुसलमान को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कौन होली मना रहा है और कौन दीवाली।
होली जैसा त्योहार एक धर्म से जुड़े होने के बावजूद पूरे भारत का त्योहार है और आम मुसलमान चाहे वह रंग भले न खेले, भारतीय होने के कारण होली से मन से जुड़ा रहता है और ऊपर से यदि वह शायर हुआ तब तो माशा अल्लाह!
सईद की आवाज़, युवा भारत की आवाज़ है, मौजूदा दौर की आवाज़ है जो अवाम को सबसे ऊपर रखता है। जो भारतीय रंग में रंगा है। किसी भी शताब्दी के शायर हों, इन सभी शायरों ने अवाम को सबसे ऊपर रखा और लोक संस्कृति को बनाए रखने के लिए, बचाए रखने की अपनी रचनाओं में जमकर पैरोकारी भी की। ख़ुद भी रंगे और जमाने को भी रंग दिया। सदियाँ रंगीन हुईं और आज तक रंगे हैं। रंग की बात हो तो एक से दस तक सिर्फ़ इनकी ही शायरी, नज्में याद आती हैं, हिंदी की कोई कविता इनके टक्कर की नहीं मिलती। सांप्रदायिक सद्भाव का इससे बेहतर उदाहरण कहीं और नहीं। एक बार ख़ुद को रंग कर तो देखिए जनाब। जाने महबूब किस रंग में मिल जाए।