डीज़ल का दाम पहली बार पेट्रोल से ज़्यादा हो गया है। इस पर खुश होएं या रोएं, पता नहीं। मगर कांग्रेस पार्टी तो बधाई भी दे रही है और राजनीति भी कर रही है। कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंगलवार को ट्वीट किया है कि महामारी भी अनलॉक हो गई है और पेट्रोल-डीज़ल के दाम भी। कांग्रेस पार्टी पहले भी बता चुकी है और फिर बता रही है कि जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चा तेल (क्रूड ऑयल) 107 डॉलर प्रति बैरल पर था तब भारत में पेट्रोल 71.41 और डीज़ल 55.49 रुपये का मिल रहा था। और आज जब क्रूड ऑयल का दाम 42.41 डॉलर प्रति बैरल पर है, तब पेट्रोल 79.76 और डीज़ल 79.88 पर पहुंच चुका है। यह कैसे हुआ, इसमें कोई बड़ा रहस्य नहीं है। लेकिन उसे समझने से पहले थोड़ा पीछे चलें।
ढाई गुने का था फ़र्क़
मुझे जो सबसे पुरानी याद है, सन सत्तर के आसपास की, तब पेट्रोल तीन रुपये पंद्रह पैसे और डीज़ल एक रुपये सोलह पैसे प्रति लीटर मिलता था। यानी लगभग ढाई गुने का फ़र्क़ था। तब लगता था कि पेट्रोल बढ़िया और डीज़ल घटिया होता होगा। बाद में पता चला कि ऐसा नहीं है। हाँ, सरकार मानती है कि पेट्रोल अमीरों का तेल है और डीज़ल ग़रीबों का। क्योंकि डीज़ल से ट्रक चलते हैं। किसानों के पंपसेट चलते हैं। ट्रैक्टर चलते हैं और उस ज़माने में तो शहरों को बिजली सप्लाई करने वाले डीज़ल पावर हाउस भी इसी से चलते थे। इसीलिए सरकार सब्सिडी देकर डीज़ल का दाम कम रखती थी।
क़रीब-क़रीब उसी दौर में पेट्रोलियम कारोबार का राष्ट्रीयकरण हो गया। सरकार ने बर्मा शेल, कॉलटेक्स और एस्सो जैसी बड़ी कंपनियों को क़ब्ज़े में ले लिया और उनके नाम हो गए हिंदुस्तान पेट्रोलियम और भारत पेट्रोलियम। तेल का दाम ऊपर-नीचे होना तब बड़ी ख़बर बन जाता था। कंपनियाँ भी सरकार की और दाम भी सरकार के।
उस दौर में दाम बढ़ने को राजनीति की नज़र से ख़राब देखा जाता था इसलिए बरसों तक दाम उतने नहीं बढ़े जितने बढ़ने चाहिए थे। घाटे की भरपाई इन कंपनियों को करनी होती थी और कंपनियों को सरकार से मदद की ज़रूरत बनी रहती थी।
सब्सिडी ख़त्म करने की मांग
1991 के बाद उदारीकरण के दौर में सबसे ज़्यादा शोर इसी बात पर हुआ कि यह सब्सिडी ख़त्म होनी चाहिए। बरसों चली लंबी कशमकश के बाद आख़िरकार सरकार ने दाम तो बाज़ार के भरोसे छोड़ दिए क्योंकि कंपनियों का मालिकाना हक़ सरकार के ही पास है। इसलिए अभी तक दाम सरकारी अंदाज में ही तय होते हैं।
अब चुप क्यों हैं स्मृति ईरानी
बीच में जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भाव बहुत ऊपर चले गए तो सरकार को मदद के लिए भी आना पड़ा। इसके लिए भारी दबाव भी था। आज भी आप इसे गूगल पर सर्च मारकर देख सकते हैं। तब की युवा नेता और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी की तसवीरें भी आपको मिल जाएंगी, जिनमें वो तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार पर सवाल उठाती नज़र आती हैं।
लेकिन अब वही तसवीरें और वही सवाल मोदी सरकार के लिए गले की हड्डी बने हुए हैं। वजह ये है कि उसके बाद जब भाव गिरा, ख़ासकर एनडीए सरकार के दौरान, तो बाज़ार में दाम कम होने के बजाय वहीं टिके रहे। और जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दाम बढ़ता था तो ईंधन के दाम भी बढ़ते दिखाई देते थे।
इसका रहस्य यह है कि सरकार ने तय किया कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दाम गिरने का पूरा फ़ायदा ग्राहकों तक पहुंचाना समझदारी नहीं होगी। यह बात बाक़ायदा रिकॉर्ड पर है और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के बयान भी इस पर सर्च करके देखे जा सकते हैं। इस फ़ैसले की दो वजह थीं। एक तो सरकार को ये डर था, और ये ग़लत भी नहीं था कि दाम हमेशा नीचे तो रहेंगे नहीं, जल्दी ही बढ़ सकते हैं और शायद काफ़ी बढ़ जाएं। ऐसे में अगर अभी कुछ रक़म बचाकर रखी जाए तो आगे जनता पर बोझ पड़ने से बचाया जा सकेगा।
दूसरी वजह ये थी कि सरकार के ख़ज़ाने की हालत काफ़ी समय से अच्छी नहीं चल रही है, इसलिए वह जहां से कुछ भी मिल जाए, वहाँ से कमाने का मौक़ा छोड़ना नहीं चाहती थी। उम्मीद भी थी कि कुछ समय में इकनॉमी रफ़्तार पकड़ेगी, कमाई बढ़ेगी और तब ये बोझ हल्का कर दिया जाएगा। ख़ासकर जब चुनाव आसपास होंगे।
अगर आप याद करें तो पाएँगे कि पिछले कुछ वर्षों में तेल के दाम में गिरावट के एलान चुनाव के आस-पास ही हुए हैं। हालाँकि पेट्रोल का दाम तय करने का फ़ैसला सरकार नहीं करती। लेकिन सरकारी पेट्रोलियम कंपनियों के मुखिया चुनने और हटाने का काम तो वही करती है।
कोरोना ने बिगाड़ दिए हालात
शायद सब कुछ ठीक होता या सुधर रहा होता अगर कोरोना न आ जाता। लेकिन ये महामारी बाक़ी सबकी तरह सरकार के लिए भी बड़ा झटका थी। अब उसके पास कमाई के दूसरे क़रीब-क़रीब सारे ही रास्ते बंद हैं। जब तक कारोबार नहीं खुलता, कमाई बढ़ने के आसार भी नहीं हैं। साथ में राज्य सरकारों का भी दबाव है। उन्हें भी पैसे चाहिए। तो रास्ता यह निकला कि पेट्रोल-डीज़ल पर एक्साइज ड्यूटी बढ़ाई जाए।
कम नहीं किए पेट्रोल के दाम
उधर, कच्चे तेल का भाव जो साल के शुरू में क़रीब 69 डॉलर पर था वो मार्च और अप्रैल में आधे से भी कम यानी बीस से तीस डॉलर के बीच मंडराता रहा। बल्कि बीच में वो गिरकर दस डॉलर से भी नीचे तक गया। लेकिन पेट्रोल पंप पर भाव का मीटर तो नीचे गया ही नहीं। वजह यही थी कि सरकार के पास यही एक दुधारू गाय बची है, उसे कैसे हाथ से जाने दे। और मई की शुरुआत से अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दाम बढ़ने शुरू हुए तो उसका असर सीधे दिखने लगा।
सत्रह दिन से लगातार दाम बढ़ रहे हैं। हालाँकि ब्रेंट क्रूड का दाम इतना बढ़ने के बाद भी अगस्त, 2016 के बाद से सबसे नीचे स्तर पर ही है, लेकिन खुदरा भाव आसमान की ओर हैं।
आलम यह है कि अंतराष्ट्रीय बाज़ार में तेल के दाम और भारत में पेट्रोल-डीज़ल के दाम का फ़र्क़ नए-नए रिकॉर्ड बना रहा है।
2002 में भारत में पेट्रोल का दाम अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के मुक़ाबले 219% ज़्यादा यानी तीन गुना से ज़्यादा और डीज़ल का दाम 100% ज़्यादा यानी दोगुना हुआ करता था। और अभी 31 मार्च को यही फ़र्क़ बढ़कर 888% और 785% तक पहुँच गया था। अभी दो दिन पहले यह गिरकर 286% और 281% पर आ चुका है, लेकिन वो तब जबकि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में दाम बढ़ गए हैं।
इस फ़र्क़ का बड़ा हिस्सा कहां जा रहा है जवाब है - सरकार की जेब में। यूपीए सरकार के अंत में यानी मई, 2014 में एक लीटर पेट्रोल पर 9.20 और डीज़ल पर 3.46 रुपये ड्यूटी लगती थी। तब पेट्रोल का दाम 71.41 और डीज़ल का 55.49 रुपये था।
कांग्रेस ने आँकड़े जारी किए हैं कि इस वक़्त पेट्रोल पर 32.98 रुपये और डीज़ल पर 31.83 रुपये ड्यूटी लग रही है और पेट्रोल का दाम 79.76 रुपये और डीज़ल का दाम उससे भी ऊपर यानी 79.88 रुपये हो चुका है। यहां डीज़ल पर एक्साइज ड्यूटी में 820% और पेट्रोल पर 258.4% की बढ़ोतरी दिख रही है और वो तब जबकि इसी बीच कच्चे तेल का दाम 64 डॉलर यानी क़रीब साठ परसेंट गिरा है।
यह गणित आम आदमी के लिए ठीक नहीं है। हालाँकि सरकार की मजबूरी है कि उसके पास कमाई के दूसरे रास्ते नहीं हैं। लेकिन ख़ासकर डीज़ल की महंगाई देश में हर चीज को महँगा करती है, यह बात तो नहीं भूलनी चाहिए।
केंद्र और राज्य सरकारों के लिए ज़रूरी है कि अब वे अपने लालच पर क़ाबू करें और एक्साइज ड्यूटी में कटौती करके बड़ी राहत का एलान करें। क्योंकि अनलॉकिंग का अर्थ आम नागरिक और कारोबार की अनलॉकिंग होना चाहिए न कि महंगाई और परेशानी की अनलॉकिंग।