लॉकडाउन से 40 करोड़ मज़दूर होंगे प्रभावित, अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा बुरा असर

01:12 pm Mar 27, 2020 | मुकेश कुमार - सत्य हिन्दी

केंद्र सरकार ने असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों, दिहाड़ी मज़दूरों और शहरी तथा ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले ग़रीबों के लिए एक लाख सत्तर हज़ार करोड़ के पैकेज की घोषणा की है। ग़रीब कल्याण योजना के तहत अस्सी करोड़ लोगों को तीन महीने तक हर महीने पाँच किलो चावल या गेहूँ मुफ्त दिया जाएगा। इसके अलावा उन्हें एक किलो दाल भी दी जाएगी। सरकार ने वादा किया है कि किसी को भी भूख से मरने नहीं दिया जाएगा।

केंद्र सरकार की इस घोषणा का स्वागत किया जाना चाहिए। अगर इस तरह की घोषणा पहले ही कर दी जाती तो और भी अच्छा रहता। बिना किसी पूर्व तैयारी के किए गए लॉकडाउन यानी तालाबंदी ने लाखों लोगों को भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था और हर तरफ़ अनिश्चितता बनी हुई थी कि उनका क्या होगा। ये लोग रोज़ कमाकर खाने वाले लोग हैं न कि घर में तीन-चार महीनों का राशन भरकर सुकून से घरबंदी काटने वाले। हालाँकि कुछ राज्य सरकारों ने ज़रूर इंतज़ाम किए हैं, मगर असली मदद तो केंद्र के खज़ाने से ही संभव थी, इसलिए सब लोगों की निगाहें उसी पर लगी हुई थीं।

सरकार ने कुछ और कमज़ोर वर्गों की मदद के लिए क़दम उठाए हैं। इससे उम्मीद बँधी है कि उन लोगों को राहत मिलेगी, जिन पर इस तालाबंदी की सबसे ज़्यादा मार पड़ने वाली है। लेकिन ये फौरी राहत है और सरकार का काम अभी शुरू ही हुआ है। अभी उसे यह सुनिश्चित करना है कि तालाबंदी की वज़ह से जो लोग बेरोज़गार होंगे उन्हें काम कैसे मिलेगा।

तालाबंदी की सबसे ख़तरनाक़ बात यह है कि छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा करने वाले करोड़ों लोग इस बंदी से बेरोज़गार हो गए हैं। हमारी कुल वर्कफोर्स यानी कामगारों के नब्बे फ़ीसदी असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इसकी संख्या क़रीब चालीस करोड़ है। तालाबंदी ख़त्म होने के बाद इन चालीस करोड़ लोगों का क्या होगा, यह सोचना मुश्किल नहीं है। 

तालाबंदी हटने के बाद उन्हें कब रोज़ागार मिलेगा इसका पता नहीं। ज़्यादातर उद्योग धंधों को दोबारा से शुरू होने में वक़्त लगेगा यानी तब तक रोज़गार की संभावना भी नहीं बनेगी या धीरे-धीरे बनेगी।

वैसे भी बंदी के बाद कोई ज़रूरी नहीं है कि इन चालीस करोड़ लोगों को वापस रोज़गार मिल ही जाएँ। बंदी की चोट बहुत सारे उद्योग-धंधों पर ऐसी पड़ेगी कि वे उबर ही न पाएँ। याद कीजिए कि नोटबंदी के बाद क्या हालात बने थे। उस समय बहुत सारे छोटे-मोटे उद्योग इस तरह बैठ गए कि कभी उठ ही नहीं पाए। उन्हें सरकार की ओर से कोई सहारा नहीं मिला और उनमें काम करने वाले जो बेराज़गार हुए तो फिर कभी उन्हें ठीक से काम मिल नहीं पाया।

नोटबंदी की वज़ह से जो आर्थिक मंदी आई उसका असर बड़े उद्योग धंधों पर भी पड़ा, क्योंकि बाज़ार में माँग कम होती चली गई। नतीजा यह हुआ कि बड़े पैमाने पर लोग या तो निकाले गए या उनके वेतन में भारी कटौती की गई।

इसके बाद आनन-फानन में जीएसटी लागू करने का नतीजा भी छोटे उद्योग-धंधों के लिए अच्छा नहीं निकला। इसकी वजह एक बार फिर अर्थव्यवस्था पर मार पड़ी, जिसका असर कर्मचारियों पर पड़ना लाज़िमी था।

ध्यान देने की बात यह है कि पहले ही हमारी अर्थव्यवस्था मंदी की वजह से चरमराई हुई है। जीडीपी गिरकर साढ़े चार फ़ीसदी के आसपास आ गई है। अनुमान है कि कोरोना की वज़ह से डेढ़ फ़ीसदी की कमी पहली तिमाही में ही आ जाएगी। अगर संकट लंबा चला तो और भी ज़्यादा असर देखने को मिल सकता है। 

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंदी!

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मंदी का ही वातावरण बना हुआ है, मगर कोरोना ने उसे और भी गहरा दिया है। चीन में हालाँकि कोरोना पर काबू लिया गया है और वहाँ सब कुछ सामान्य होने की राह पर है। फ़ैक्ट्रियों में उत्पादन भी शुरू हो गया है मगर कोरोना संकट का असर न केवल उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी पड़ना लाज़िमी है।

दुनिया भर में चल रहे कोरोना संकट को देखते हुए अनुमान लगाए जा रहे हैं कि वैश्विक स्तर पर जीडीपी में भी एक फ़ीसदी तक की गिरावट आ सकती है। ज़ाहिर है इसका सीधा असर रोज़गार पर पड़ेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था भी इससे अछूती नहीं रहेगी।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कृषि क्षेत्र भी भयानक संकट से गुज़र रहा है। किसान और खेतिहर मज़दूर, दोनों इस संकट से त्रस्त हैं। कोरोना की वज़ह से उन पर और भी दबाव पड़ रहा है। एक तो ख़राब मौसम के चलते खरीफ़ की फ़सल बर्बाद हो गई है। फिर कोरोना का हमला ठीक ऐसे समय में हुआ है जब फ़सल काटी जाती है। और अब तो तालाबंदी के कारण अनाज को मंडी में ले जाकर बेचना भी संभव नहीं होगा।

इस समय देश में बेरोज़गारी की दर पैंतालीस साल में सबसे ज़्यादा है। पिछले पाँच साल में यह दोगुनी हो चुकी है। बेरोज़गारी बढ़ने की शुरुआत नोटबंदी के एलान से शुरू हुई थी, जो थमी ही नहीं।

दरअसल, सरकार ने इस दिशा में कुछ किया ही नहीं। वह पकौड़ा बेचने की सलाह देती रही।

इसके विपरीत हौसला अफज़ाई के नाम पर बड़े उद्योगपतियों और क़ारोबारियों को तरह-तरह की रियायतें दी जाती रहीं। अभी अक्टूबर में ही कॉर्पोरेट टैक्स में एकमुश्त कटौती की गई थी। वित्तमंत्री ने दावा किया था कि इससे अर्थव्यवस्था में गतिशीलता आएगी, मगर कुछ नहीं हुआ।

लेकिन अब समय आ गया है कि सरकार कर्मचारियों के बारे में सोचें। उन्हें राहत देने के लिए एक बड़े पैकेज का एलान करें। तालाबंदी के दौरान खाने-पीने का इंतज़ाम फौरी उपाय है उससे बात नहीं बनेगी।