फ़ाँसी का डर क्यों नहीं? बच्चों से दुष्कर्म के मामले 3 साल में दोगुने बढ़े

07:20 am Sep 05, 2019 | अनूप भटनागर - सत्य हिन्दी

किशोर-किशोरियों से दुष्कर्म के अपराध के लिए क़ानून में मौत की सज़ा का प्रावधान किए जाने के बावजूद इस तरह की घटनाओं में कमी नहीं आना चौंकाने वाली बात है। ऐसा लगता है कि इस तरह के अपराध करने की मानसिकता वाले व्यक्तियों को अब क़ानून का ख़ौफ़ ही नहीं रह गया है जो अत्यधिक चिंता की बात है।

एक अनुमान के अनुसार इस समय रोज़ाना देश में 133 बच्चे बलात्कार और हत्या के अपराध का शिकार हो रहे हैं जो पहले के वर्षों की तुलना में बहुत अधिक है। यौन हिंसा, बलात्कार और हत्या के अपराधों में बेतहाशा वृद्धि होने की वजह से ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारे का पालन करने वाले परिवारों के लिए यह चिंता का कारण बनता जा रहा है।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने बच्चों से दुष्कर्म करने वाले व्यक्तियों की जानकारी जुटाने के लिए एक राष्ट्रीय डाटा बैंक तैयार किया है। इस डाटा बैंक में अब तक 6,20,000 ऐसे व्यक्तियों के आँकड़े इकट्ठे किए जा चुके हैं।

लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। ऐसे अपराधों पर प्रभावी तरीक़े से अंकुश लगाने के लिए स्थानीय स्तर पर पुलिस को संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्तियों की गतिविधियों पर निगाह रखनी होगी इसके लिए अपनी चौकसी अधिक बढ़ानी होगी। उसे इस काम में जन सहयोग भी लेना होगा क्योंकि जनता के सहयोग के बगैर इस तरह की विकृत मानसिकता वाले लोगों की जानकारी जुटाना बहुत ही चुनौती भरा काम होगा।

इस तरह के अपराधों से उपजी स्थिति का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बच्चियों के साथ यौन अपराधों की बढ़ती घटनाओं पर उच्चतम न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेना पड़ा है। न्यायालय ने इस तरह के अपराधों पर कड़ा रूख अपनाते हुए सरकार को सख़्त निर्देश भी दिए हैं। न्यायालय के निर्देशों के तहत सरकार को ऐसे प्रत्येक ज़िले में पोक्सो क़ानून के तहत आने वाले मुक़दमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतें गठित करनी हैं जहाँ एक सौ से अधिक ऐसे अपराध दर्ज हैं। इन विशेष अदालतों का गठन केंद्र की आर्थिक मदद से किया जाना है।

न्यायालय को उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार देश में रोज़ाना औसतन 133 बच्चे विकृत और आपराधिक मानसिकता वाले लोगों की हवस का शिकार हो रहे हैं जो 2016 की तुलना में दोगुना है।

24 हज़ार एफ़आईआर, सिर्फ़ 911 में फ़ैसला

देश में इस साल एक जनवरी से 30 जून की अवधि में बच्चों के यौन शोषण के अपराध से संबंधित 24,212 प्राथमिकी दर्ज की गयी थीं। हालाँकि पिछले दो महीने में इस तरह के अपराधों की संख्या और बढ़ चुकी है।

न्यायालय को दी गयी जानकारी के अनुसार जनवरी से जून की अवधि में बच्चों के यौन शोषण के अपराध में दर्ज मामलों में से 11,981 घटनाओं की जाँच जारी थी और सिर्फ़ 12,231 मामलों में ही अदालत में आरोप पत्र दाखिल किया गया था। बच्चों के यौन शोषण से संबंधित 6,449 मामलों में ही अदालत में सुनवाई शुरू हो पायी है जबकि 4,871 मामलों में कोई प्रगति नहीं हुई है। निचली अदालत ने इस दौरान 911 मुक़दमों में ही फ़ैसला सुनाया है।

बलात्कार और सामूहिक बलात्कार के अपराध में दोषी को कठोर सज़ा देने का प्रावधान भारतीय दंड संहिता में किए जाने के बाद से ही पोक्सो क़ानून में व्यापक संशोधन करने की माँग हो रही थी। इस मुद्दे को लेकर लगातार बढ़ रहे दबाव के बाद सरकार ने पोक्सो क़ानून, 2012 की धारा 2, 4, 5, 6, 9, 14, 15, 34, 42 और 45 में संशोधन करने का फ़ैसला लिया ताकि बच्चों के यौन शोषण के पहलुओं से उचित तरीक़े से निबटा जा सके।

सख्त सज़ा का प्रावधान

संसद ने पिछले महीने ही यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण क़ानून में संशोधन कर इसमें सज़ा के प्रावधानों को कठोर बनाने संबंधी विधेयक पारित किया था जिसे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने दो अगस्त को अपनी संस्तुति दी थी।

यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (संशोधित) क़ानून (पोक्सो) की कई धाराओं में संशोधन किया गया है। सरकार ने क़ानून की धारा 4, 5 और 6 में संशोधन करके बच्चों को यौन हिंसा के अपराध से बचाने के लिए बच्चे के यौन शोषण के अपराध पर मौत की सज़ा सहित कठोर दंड का प्रावधान किया है। क़ानून में संशोधन से पहले इस तरह के अपराध के लिए कम से कम दस साल और अधिकतम उम्रकैद की सज़ा का प्रावधान था।

पोक्सो क़ानून के तहत गठित विशेष अदालतों में यौन अपराध के शिकार बच्चों के अनुकूलन के लिए उचित माहौल उपलब्ध कराने तथा उन्हें आरोपी से रूबरू होने से बचाने के लिए विशेष व्यवस्था करने की आवश्यकता है। इस क़ानून की धारा 35, 36 और 37 में इस संबंध में विस्तार से बताया गया है।

क़ानून में क्या हैं प्रावधान

इस क़ानून की धारा 35 के अनुसार ऐसे अपराध का संज्ञान लिए जाने के 30 दिन के भीतर विशेष अदालत पीड़ित बच्चे के साक्ष्य दर्ज करेगी और अगर इसमें देरी हुई तो उसे इसकी वजह का उल्लेख करना होगा। यही नहीं, इसमें यह भी प्रावधान है कि विशेष अदालत को अपराध का संज्ञान लेने की तारीख़ से यथासंभव एक साल के भीतर ऐसे मुक़दमे की सुनवाई पूरी करनी होगी।

क़ानून की धारा 36 में स्पष्ट प्रावधान है कि गवाही के समय यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चा आरोपी को नहीं देखे। बच्चे का बयान दर्ज करने के लिए विशेष अदालत वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग या एक ओर ही दिखाई पड़ने वाले शीशे या पर्दे या किसी अन्य तरीक़े का इस्तेमाल कर सकती है। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि बच्चे का बयान आरोपी साफ़ और स्पष्ट रूप से सुन सके।

इस समय पोक्सो के तहत क़रीब एक लाख 60 हज़ार मुक़दमे अदालतों में लंबित हैं। पोक्सो क़ानून बनने के बाद इसके तहत दर्ज मुक़दमों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों का गठन भी किया गया है लेकिन इनकी संख्या पर्याप्त नहीं है और इनमें अपेक्षित सुविधाओं का अभाव है।

ऐसी स्थिति में इन मुक़दमों के तेज़ी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों की संख्या बढ़ाने की ही नहीं, बल्कि पर्याप्त संख्या में ऐसे मामलों के प्रति संवेदनशील न्यायिक अधिकारियों, अभियोजकों और सहायक कर्मचारियों की भी आवश्यकता होगी।

पुलिस जाँच में ख़ामियाँ क्यों

ऐसा देखने में आया है कि कुछ राज्यों में कार्यरत विशेष अदालतों ने बहुत ही कम समय में ऐसे मुक़दमों का निबटारा किया और पुलिस की जाँच और आरोप पत्र के आधार पर अभियुक्त को मृत्युदंड तक की सज़ा दी लेकिन उच्च न्यायालय में अपील पर सुनवाई के दौरान पुलिस की जाँच की ख़ामियाँ सामने आईं और आरोपी सज़ा से बच निकलने में कामयाब हो गए।

इस तरह की स्थिति से बचने के लिए ज़रूरी है कि ऐसे अपराध में संलिप्त आरोपियों को क़ानून की जद में लाने के लिए पुलिस जाँच में पेशेवर और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाए ताकि ऐसे अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति का उच्च न्यायालय में भी पूरी तरह संदेह से परे साबित हों।

उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ नारे को मूर्तरूप देने के लिए पुलिस अधिक गंभीरता, संवेदनशीलता और तत्परता के साथ ऐसे अपराधों से निबटेगी ताकि अपराधियों को जल्द से जल्द इस क़ानून के तहत सज़ा दिलाई जा सके।