कमाल साहब,
दो साल गुज़र गए- आपके न रहने के दो साल, गंगा-यमुना और सरयू में बहुत सारा पानी बहने के दो साल, कुछ और त्रासदियां और तबाहियां सहने के दो साल और पत्रकारिता को कुछ और गर्त में जाते देखते रहने के दो साल।
यह नहीं लिख सकता कि अच्छा हुआ, यह दौर देखने से पहले आप चले गए। लेकिन यह तो लिख ही सकता हूं कि इन दिनों बचे रहने की चुनौतियां और कड़ी होती जा रही हैं। पत्रकारिता लगातार असंभव होती जा रही है। ऐसा नहीं कि यह रातों-रात हुआ है। हम सब बरसों से इस प्रक्रिया के गवाह रहे, इस पर दुखी होते रहे, कभी इसका प्रतिरोध करते रहे और कभी इसकी गिरावट को रोकने में अपनी नाकामी पर और कभी इस धारा में शामिल होने के अपने अपराध-बोध के साथ मायूस होते रहे। लेकिन तब भी सच का सम्मान बाक़ी था, इतना शील बचा हुआ था कि झूठ हमारे सामने पड़ कर शर्मिंदा होता था, सांप्रदायिक सोच की आंखें नीची रहती थीं और हमारे भीतर यह भरोसा बचा रहता था कि इस शोरगुल में कुछ लोग अब भी अपनी बात कह पाएंगे जिसे कुछ लोग सुन पाएंगे।
लेकिन अब सब कुछ तिरोहित होता लग रहा है। जिस अयोध्या में आप बार-बार जाते रहे और जिस राम की कहानी अपनी करुणासिक्त वाणी में कहते रहे, उनके नाम पर एक विराट आयोजन चल रहा है। जिस तीन मंज़िला मंदिर का प्रारूप दुनिया को दिखाया गया था, उसकी पहली मंज़िल पूरी करने का काम जोर-शोर से जारी है ताकि 22 जनवरी को वहां रामलला की प्राण प्रतिष्ठा कर दी जाए। ये जल्दबाज़ी इसलिए है कि लोकसभा चुनाव से पहले कोई दूसरा शुभ मुहुर्त ज्योतिषियों को नहीं मिल रहा है।
फिर इस अवसर को 500 वर्षों बाद राम के अयोध्या लौटने की गाथा की तरह चित्रित किया जा रहा है। क्या वाक़ई राम अयोध्या से 500 साल दूर रहे? उन्हें तो उनके पिता ने 14 साल के वनवास की आज्ञा दी थी- फिर यह 500 साल कहां से आए? क्या बस इसलिए कि सोलहवीं सदी में बाबर के सेनापति ने एक मंदिर तोड़ कर वहां मस्जिद तामीर करा दी थी? क्या राम को निर्वासित करना इतना आसान था? फिर वे कौन लोग थे जो अयोध्या में राम के नाम पर सैकड़ों मंदिर बनवाते रहे? और वे कौन लोग थे जो इन पांच सदियों में बिना बुलावे के बस अपनी आस्था के लिए तमाम मुश्किलें झेल अयोध्या पहुंचते रहे? अगर अयोध्या में राम नहीं थे तो वे किसके लिए जाते रहे? जो सदियों से रामलीलाएं खेली जाती रहीं, उनमें राम कहां से लौट कर आते रहे?
या यह कोई नई कहानी है जो एक नया राम गढ़ने के लिए बनाई जा रही है- ऐसा राम जिससे लोग श्रद्धा करें या न करें, डरें ज़रूर? ऐसा राम जो संन्यासी या वनवासी नहीं, धनुर्धर योद्धा दिखाई पड़े और अपने भक्तों को भरोसा दिलाए कि वह सत्य और साधनों पर नहीं, बस लक्ष्य और सफलता पर नज़र रखता है?
या राम के निर्वासन की यह कहानी इसलिए बनाई जा रही है कि इस नाम पर लोग कुछ दूसरे लोगों से नफ़रत करें, उन्हें मारें और उनके धर्मस्थल तोड़ कर एक पाशविक आनंद लें? 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस का छुपा हुआ हर्षोल्लास हमारे देखते-देखते खुले उन्मादी अट्टहास में बदल चुका है जिसमें बहुत गहरा प्रतिशोध भाव है। लेकिन क्या किसी ने कल्पना की है कमाल साहब कि अगर एक मंदिर तोड़ने का मीर बाक़ी का जुर्म 500 साल एक पूरे समुदाय का पीछा करता रहा तो एक मस्जिद गिराने के अपराध का साया हमारे सिरों पर कितने दिनों तक बना रहेगा?
बहरहाल, यह सारे प्रश्न कहीं नहीं हैं- राम मंदिर के निर्माण और रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को ऐसे राष्ट्रीय उत्सव में बदला जा रहा है जिसमें जो शामिल न हो, वह संदिग्ध बना दिया जाए। हम अपनों के बीच अजनबी होते जा रहे हैं क्योंकि हम उन्हें उन मर्यादाओं की याद दिला रहे हैं जिसके लिए वे राम को पुरुषोत्तम माने रहे। मर्यादाओं के ध्वंस के साथ यह राम का नया अवतार है और इसी नए राम की वापसी 500 साल बाद कराई जा रही है। वरना रामायण या मानस या दूसरी रामकथाओं में वर्णित जो राम हैं, जिसके विविध रूपों की आराधना तुलसी और कबीर से लेकर गांधी तक करते रहे- वह तो सगुण-साकार रूप में भी मौजूद हैं और निर्गुण-निराकार रूप में भी- अयोध्या में भी और सारी दुनिया में भी।
लेकिन सच तो यह है कि हमें ऐसे धार्मिक राम से भी कभी मतलब नहीं रहा, किन्हीं दूसरे धर्मों, मजहबों और उनके ख़ुदाओं से भी नहीं। बेशक, वे हमें कहानियों की तरह लुभाते रहे- धार्मिक या पौराणिक नहीं, बल्कि साहित्यिक कृतियों और चरित्रों की तरह। इन सबने हमारे जीवन में, हमारी स्मृतियों में, हमारी रचना-प्रक्रिया में, हमारे सृजन-बोध में जोड़ा- मगर किन्हीं देवताओं की तरह नहीं, ऐसे काल्पनिक चरित्रों की तरह ही जिनके हम होने की कामना करते रहे, जिनके अलग-अलग आदर्शों, जिनकी अलग-अलग छबियों को जीवन और समाज में उतारने का सपना देखते रहे। तो हमारी तरह के लोग तो तब भी अकेले थे कमाल साहब और अब भी अकेले हैं।
बहरहाल, आप रहते और अयोध्या में रिपोर्टिंग कर रहे होते तो क्या करते? इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि आप इस शोर में शामिल नहीं होते, परंपरा की मदद लेकर उस गुत्थी को समझने-समझाने का जतन कर रहे होते जिससे मंदिर बनते हैं और उसमें देवता बसते हैं। हो सकता है, आपको गुरुदेव टैगोर का स्मरण आता जिनका पुरोहित मंदिर में देवता को नहीं, राजा के अहंकार को स्थापित पाता है, या फिर जो कहते हैं कि देवालय में नहीं हैं, ‘देवता तो वहाँ गए हैं, जहाँ माटी गोड़कर खेतिहर खेती करते हैं— / पत्थर काटकर राह बना रहे हैं, बारहों महीने खट रहे हैं।‘ संभव है आपको गुस्ताख़ ग़ालिब की याद आती जो खुदाओं का मज़ाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ता था। या आपको गुरदयाल सिंह का परसा याद आता- वह सच्चा सिख जो किसी धार्मिक पाखंड में भरोसा नहीं रखता था।
परंपरा की नदी बहुत विशाल होती है कमाल साहब। हम सब जानते हैं कि उसमें बहुत खर-पतवारों का समाना भी होता रहता है। उन्हें हटाना पड़ता है। हम सब जानते हैं कि यह नदी ठहर जाती है तो इसका पानी सड़ने लगता है। इसे बहते रहना चाहिए। लेकिन फिर कौन लोग हैं जो इसकी धारा को मोड़ कर पांच सौ साल पीछे ले जाना चाहते हैं और हमें बताना चाहते हैं कि इतने बरसों बाद राम लौट रहे हैं? यह धर्म है या पौराणिक कथा है या राजनीतिक प्रचार? इसका फ़ायदा कौन उठाने जा रहे हैं, इसको नुक़सान किसको झेलने पड़ रहे हैं?
और हम सबकी कलम चुप क्यों है? सबके माइक्रोफोन से जो निकल रहा है, वह एक खोखली ध्वनि जैसा क्यों लग रहा है? राम और हनुमान के नाम पर जो अदृश्य किलेबंदी इस मुल्क में की जा रही है, वह इसे कहां ले जाने के लिए की जा रही है?
इन सवालों के जवाब देना तो दूर, इन पर विचार करने वाले लोग भी नहीं बचे हैं। इसलिए आपको फिर से याद कर रहा हूं कमाल साहब- एक लगातार सतही होती दुनिया से- जिसके कई रूप आप और हम पहले भी देखते रहे- टकराने और अपने बचे रहने की हिकमत हम बार-बार खोजते रहे। आपको याद करना ऐसी ही हिकमत खोजने की एक और कोशिश है।
आप चले गए, लेकिन हम भी कौन से बचे हैं।
-प्रियदर्शन