मदर टेरेसा की संस्था मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी एक बार फिर विवादों के घेरे में है। लगभग 22 हज़ार रोगियों व कर्मचारियों की यह संस्था सोमवार को उस समय खबरों में जब आई जब गृह मंत्रालय ने 'कुछ प्रतिकूल निवेश के पता चलने के बाद' फॉरन कंट्रीब्यूशन (रेगुलेशन) एक्ट (एफसीआरए) का रजिस्ट्रेशन रिन्यू करने से इनकार कर दिया।
कोलकाता में मुख्यालय वाली इस संस्था ने सोमवार शाम को कहा कि उनके एफसीआरए आवेदन को अनुमति नहीं दी गई। इसके बाद सभी केंद्रों को उनसे जुड़े बैंक अकाउंट्स का इस्तेमाल नहीं करने को कहा गया।
इसके साथ ही सवाल यह उठता है कि वेटिकन से स्वीकृत और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित मदर टेरेसा की इस संस्था को आख़िर कितना और किस मद में पैसा मिलता है।
कितने पैसे मिले?
अंग्रेज़ी अखबार 'द हिन्दू' के अनुसार, मिनशरीज़ ऑफ़ चैरिटी ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए 13 दिसंबर को फ़ाइल किए गए रिटर्न में कहा था कि उसे 347 विदेशी लोगों और 59 संस्थागत दाताओं से 75 करोड़ रुपये दान में मिले थे।
मिशनरीज़ के एफसीआरए अकाउंट में पिछले साल की 27.3 करोड़ की रक़म पहले से थी। उसका कुल बैलेंस 103.76 करोड़ रुपये है।
मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी के सबसे बड़े दानदाता अमेरिका और ब्रिटेन में हैं, जहाँ से उसे 15 करोड़ से अधिक रक़म मिली।
यह रक़म प्राथमिक स्वास्थ्य, शिक्षा सहायता, कुष्ठ रोगियों के इलाज आदि के लिए दी गई क्योंकि संस्था इन्हीं उद्देश्यों पर काम करती है।
मदर टेरेसा, मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी की संस्थापक
सवाल यह है कि जो संस्था दुनिया के कई देशों में सबसे गरीब और उपेक्षित लोगों के बीच काम करती हो, जो 22 हज़ार रोगियों के खाने-पीने, रहने, कपड़े, इलाज वगैरह का इंतजाम बगैर किसी सरकार की मदद के करती हो, क्या उसके लिए 75 करोड़ रुपए बहुत बड़ी रकम है?
सवाल यह है कि आखिर क्यों मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी के एफ़सीआरए खाते का नवीनीकरण नहीं किया गया?
एफ़सीआरए में संशोधन
सरकार ने सितंबर 2020 में एफ़सीआरए में संशोधन से जुड़ा विधेयक संसद से पारित कराया। इस विधेयक के पारित होने के बाद अब ग़ैर-सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ के प्रशासनिक कार्यों में 50 फ़ीसद विदेशी फ़ंड की जगह बस 20 फ़ीसद फ़ंड ही इस्तेमाल किया जा सकेगा।
यानी इसमें 30% की कटौती कर दी गई है। इसके अलावा एक एनजीओ मिलने वाले ग्रांट को अन्य एनजीओ से शेयर भी नहीं कर सकेगी और एनजीओ को मिलने वाले विदेशी फ़ंड स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया, नई दिल्ली की ब्रांच में ही रिसीव किए जाएंगे।
यह बिल तमाम एनजीओ के लिए बड़ी परेशानी खड़ी कर सकता है, ख़ास कर इससे छोटी ग़ैर-सरकारी संस्थाएं लगभग ख़त्म हो जाएंगी।
ये संस्थाएं देश में सामाजिक बदलाव लाने के लिए काम करती हैं, लेकिन सिविल सोसायटी के लोग कह रहे हैं कि नए नियम इन्हें सशक्त करने की बजाय कमज़ोर कर रहे हैं और भारत में एनजीओ के लिए एक असहज माहौल बनता जा रहा है।
सरकार की मंशा पर सवाल
सरकार ने संसद में इस विधेयक को पेश करते समय कहा था कि विदेशों से मिलने वाले फ़ंड को रेगुलेट करना चाहिए ताकि ये फ़ंड किसी भी सूरत में देश विरोधी गतिविधियों में इस्तमाल ना हो सके।
इस क़ानून के पीछे सरकार का मक़सद विदेशी चंदा लेने पर पाबंदी, विदेशी चंदे के ट्रांसफर और एफसीआरए एकाउंट खोलने को लेकर स्पष्ट नियम और आधार नंबर देने अनिवार्यता की व्यवस्था लागू करना है।
संसद में 21 सितंबर को एक सवाल के जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा था,
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एफ़सीआरए विधेयक किसी धर्म या एनजीओ के ख़िलाफ़ नहीं है, इस विधेयक से विदेशी धन का दुरुपयोग रोकने में मदद मिलेगी और यह आत्मनिर्भर भारत के लिए भी ज़रूरी है।
नित्यानंद राय, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री, 21 सितंबर, 2020
इंदिरा गांधी ले आई थीं एफ़सीआरए
इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो पहली बार 1976 में फ़ॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेटरी एक्ट आया था। लेकिन साल 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार पहली बार एक कड़ा संशोधन ले आई। इसके तहत पॉलिटिकल नेचर की संस्थाओं की विदेशी फ़ंडिंग पर रोक लगा दी गई।
साल 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से कई ऐसे फ़ैसले लिए गए हैं जिन्हें सिविल सोसायटी के लोग शिकंजा कसने का लागातार प्रयास मानते हैं।
इंदिरा गांधी, पूर्व प्रधानमंत्री
निशाने पर एनजीओ
बेन एंड कंपनी की साल 2019 में आई इंडियन फ़िलेंट्रफि की रिपोर्ट बताती है कि साल 2015 से 2018 के बीच एनजीओ को मिलने वाले विदेशी फ़ंड में 40 फ़ीसद की कमी आई है।
जनवरी 2019 में केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा को दिए गए एक जवाब में बताया था कि बीते तीन साल में 2872 ग़ैर-सरकारी संस्थाओं पर रोक लगाई गई जिसमें ग्रीनपीस और सबरंग ट्रस्ट जैसी बड़ी नामी संस्थाएं शामिल थीं, जिनके काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा जा चुका है।
साल 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भुवनेश्वर में एक जनसभा को संबोधित करते हुए कह चुके हैं कि वह ‘’एनजीओ की साज़िश का शिकार‘’ हैं।
नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री रोमन कैथोलिक ईसाइयों के धर्म गुरु पोप के साथ
उन्होंने कहा था, ‘’एनजीओ वाले मुझे हटाने और मेरी सरकार गिराने की साज़िश रचते हैं, वे ग़ुस्सा हैं क्योंकि मैंने कुछ एनजीओ से उनकी विदेशी फ़ंड की जानकारी माँग ली है।‘’
तो क्या सरकार की मंशा कुछ और है?
अब एक नज़र डालते हैं मिशनरीज ऑफ़ चैरिटी को लेकर कुछ दिन पहले हुई विवाद पर।
मिशनरीज़ पर आरोप
तकरीबन दो हफ़्ते पहले गुजरात में मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी के ख़िलाफ़ हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाने और ज़बरन धर्मांतरण करवाने के आरोप लगाए गए थे और मामला दर्ज किया गया था। यह मामला गुजरात फ्रीडम ऑफ़ रिलीज़न एक्ट, 2003, के तहत लगाया गया था।
इसमें कहा गया था कि वडोदरा स्थित मिशनरी के एक आश्रम में 'कम उम्र की लड़कियों को फुसला कर ईसाई बनाया जाता है।' मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी ने इन आरोपों से इनकार किया था।
वदोदरा के मकरपुर पुलिस थाने में एक एफ़आईआर दर्ज कराया गया था। यह एफ़आईआर ज़िला सामाजिक सुरक्षा अधिकारी मयंक त्रिवेदी और बाल कल्याण कमेटी के अध्यक्ष की शिकायत पर दर्ज किया गया है। इन लोगों ने मकरपुर स्थित आश्रम का मुआयना किया था और उसके बाद शिकायत की थी।
एफ़आईआर में क्या था?
एफ़आईआर में कहा गया है कि मकरपुर आश्रम में पाया कि बच्चियों को ईसाई धर्म की किताबें पढ़ने और प्रार्थना करने को मजबूर किया जाता है। इसका मक़सद उनका धर्मांतरण कर उन्हें ईसाई बनाना है।
एफ़आईआर में कहा गया था कि 10 फरवरी 2021 और 9 नवंबर 2021 के बीच हिन्दुओं की भावनाओं को जानबूझ कर आहत करने के काम में आश्रम लिप्त रहा है। यह भी कहा गया था कि
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होम फॉर गर्ल्स में बच्चियों को बाइबल पढ़ने पर मजबूर किया जाता है, स्टोर रूम में बाइबल रखा रहता है और उन्हें गले में क्रॉस लटकाने के लिए कहा जाता है। यह लड़कियों का ज़बरन धर्मांतरण कराने की कोशिश है।
मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी के ख़िलाफ़ एफ़आरआई का अंश
मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी ने इन आरोपों से इनकार किया था। उसने यह शिकायत मिलने के बाद एक आंतरिक जाँच शुरू कर दी थी।
बाल कल्याण कमेटी ने कहा है कि एक लड़की का विवाह ज़बरन एक ईसाई परिवार में ईसाई विधि से करा दिया गया।
कमेटी ने यह भी कहा है कि शेल्टर होम की लड़कियों को मांसाहारी भोजन दिया गया।