सावरकर पर टकराव, कितने दिन चलेगी ठाकरे सरकार?

10:23 am Dec 15, 2019 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

महाराष्ट्र में बीजेपी के साथ मुख्यमंत्री की कुर्सी के मुद्दे पर चले सियासी घमासान के बाद कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने वाली शिवसेना का यह फ़ैसला राजनीतिक विश्लेषकों के साथ ही आम लोगों को काफी अख़रा था। कारण साफ था कि शिवसेना और कांग्रेस की विचारधारा कहीं से भी मेल नहीं खाती। दूसरी ओर, कांग्रेस चूँकि राष्ट्रीय पार्टी है, इसलिए एकदम विपरीत विचारधारा वाली शिवसेना के साथ सरकार बनाने का फ़ैसला करना उसके लिए क़तई आसान नहीं था। इसलिए, कांग्रेस ने शिवसेना के साथ जाने से उसे क्या सियासी नफ़ा-नुक़सान हो सकता है, इस पर काफ़ी समय तक विचार भी किया। 

15 दिन में ही हो गया टकराव

मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरूपम सहित कई नेताओं ने पार्टी आलाकमान से कहा कि वह शिवसेना के साथ गठबंधन न करे। शिवसेना की ओर से भरोसा दिलाया गया कि गठबंधन सरकार में हिंदुत्व के मुद्दे को लेकर कोई टकराव नहीं होगा। बात आगे बढ़ी और हिचकोले खाती हुई नाव को आख़िरकार किनारा मिला और यह तय हुआ कि महाराष्ट्र में तीनों दल मिलकर सरकार बनाएंगे। लेकिन 30 नवंबर को सदन में विश्वास मत हासिल करने वाली इस सरकार को अभी 15 दिन भी नहीं हुए थे कि विचारधारा का टकराव खुलकर सामने आ गया और यह टकराव हुआ हिंदू महासभा के नेता वी. डी. सावरकर को लेकर। वही सावरकर जिन्हें लेकर अक्सर कांग्रेस और हिंदुत्व विचारधारा के समर्थकों में भिड़ंत होती रहती है। 

शिवसेना और कांग्रेस के बीच एक नहीं कई मुद्दे ऐसे हैं, जिन्हें लेकर जोरदार टकराव है। इन मुद्दों को लेकर बारी-बारी से बात करते हैं। 

‘बाहरियों’ के लिए शिवसेना का रुख

महाराष्ट्र और विशेषकर मुंबई की राजनीति में बड़ा मुद्दा रहा है ‘बाहरियों’ का नौकरी के लिए राज्य में आना। इन ‘बाहरियों’ में विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और उत्तर भारत के अन्य राज्यों से नौकरी के लिए मुंबई जाने वाले लोग शामिल हैं। 

मुंबई में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिनमें ‘बाहरियों’ के साथ शिवसैनिकों ने मारपीट की है। शिवसेना का मानना है कि ये ‘बाहरी’ लोग महाराष्ट्र के लोगों की नौकरियां छीन रहे हैं। हालाँकि बीते कुछ सालों में ऐसी घटनाएं कम हुई हैं लेकिन कांग्रेस के लिए शिवसेना के साथ सरकार बनाने को लेकर यूपी-बिहार में जवाब देना मुश्किल होगा क्योंकि उसे इन दोनों राज्यों में राजनीति करनी है, जबकि शिवसेना का इन राज्यों में कोई आधार नहीं है। ऐसे में आने वाले समय में इस मुद्दे पर टकराव नहीं होगा, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। 

नागरिकता संशोधन क़ानून के मसले पर भी शिवसेना और कांग्रेस का वैचारिक टकराव स्पष्ट दिखाई दिया था। क्योंकि कांग्रेस इस क़ानून का जोरदार विरोध कर रही है जबकि शिवसेना ने लोकसभा में इसका समर्थन किया और राज्यसभा में वोटिंग के दौरान वॉक आउट कर दिया।

सावरकर पर कैसे होगा समझौता?

सावरकर को लेकर यह विवाद महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव से पहले तब शुरू हुआ था जब बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में सावरकर को भारत रत्न दिये जाने की बात कही थी। उस समय कांग्रेस ने इसका जोरदार विरोध किया था लेकिन शिवसेना बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही थी। सावरकर को लेकर शिवसेना के विचार बीजेपी से मिलते हैं, इसलिए उसने इसका समर्थन किया था। तब इसे लेकर देश भर में ख़ासा विवाद भी हुआ था। विधानसभा चुनाव के बाद सियासी समीकरण बदले और महाराष्ट्र में कांग्रेस-शिवसेना-एनसीपी की सरकार बनी। लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी के बयान के बाद यह विवाद फिर जिंदा हो गया है। 

राहुल गाँधी के यह बयान कि उनका नाम राहुल सावरकर नहीं राहुल गाँधी है और वह माफ़ी नहीं माँगेंगे, इस पर शिवसेना ने तीख़ी प्रतिक्रिया दी है और कहा है कि उनकी पार्टी गाँधी, नेहरू का सम्मान करती है लेकिन कांग्रेस भी सावरकर का अपमान न करे।

बीजेपी, संघ और शिवसेना जहाँ सावरकर को वीर, देशभक्त और क्रांतिकारी बताते हैं, वहीं कांग्रेस का कहना है कि सावरकर ने अंग्रेजों से रिहाई की भीख माँगी थी और जेल से आज़ादी के बदले अंग्रेजों की ग़ुलामी स्वीकार की थी।

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे तो यहां तक कह चुके हैं कि सावरकर पर भरोसा न करने वालों को जनता के बीच में पीटा जाना चाहिए? ठाकरे ने कहा था कि ऐसे लोगों को इसलिए पीटा जाना चाहिए क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर के संघर्ष और इसकी अहमियत का अंदाजा ही नहीं है। 

सेक्युलर बनाम हिंदुत्व की लड़ाई

शिवसेना स्पष्ट रूप से कट्टर छवि वाली हिंदूवादी पार्टी है और कांग्रेस की छवि सेक्युलर है। भारतीय राजनीति में इन दोनों विचारधाराओं का टकराव देश की आज़ादी के बाद से ही चल रहा है और कहा जा सकता है कि आगे भी जारी रहेगा। ऐसे में सावरकर के अलावा मुसलमानों को लेकर शिवसेना का रुख क्या बदल जाएगा? यह भी अहम बात है। हालाँकि शिवसेना कहती है कि वह मुसलमानों की विरोधी नहीं है लेकिन शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे को इस तरह से प्रचारित किया जाता है कि वह उग्र हिंदुत्व के समर्थक थे और मुसलमानों के विरोधी थे। शिवसेना पर यह आरोप लगता रहा है कि वह मुसलमानों से उनकी देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट माँगती रही है, ऐसे में इसे लेकर इन दोनों दलों के बीच कैसे बात बनेगी, यह एक बड़ा सवाल है।

इससे पहले भी अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर, तीन तलाक़ क़ानून को लेकर और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाये जाने को लेकर कांग्रेस और शिवसेना का स्टैंड पूरी तरह अलग रहा है।

दोनों के लिए जवाब देना मुश्किल

अब सवाल यह है कि बेमेल विचारधारा की यह सरकार कब तक चलेगी? सावरकर को लेकर शिवसेना ने कांग्रेस को जिस तरह नसीहत दी है, उससे यह साफ़ है कि शिवसेना इस मुद्दे पर नहीं झुकेगी। पार्टी के प्रवक्ता संजय राउत भी स्पष्ट कह चुके हैं कि सावरकर को लेकर कोई समझौता नहीं होगा। तो ऐसे में कांग्रेस और शिवसेना, दोनों ही सरकार बनाने के बाद बुरी तरह फंस गए हैं क्योंकि जनता के सामने उन्हें जवाब तो देना ही होगा। ऐसे में महाराष्ट्र की सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर पाएगी या नहीं, यह देखने वाली बात होगी। और अगर इस सरकार को बनाने के लिए शिवसेना और कांग्रेस को एक मंच पर लाने वाले एनसीपी प्रमुख भी कब तक मध्यस्थता कर पाएंगे, यह एक बड़ा सवाल है। क्योंकि कांग्रेस शिवसेना के साथ सरकार में रहकर कब तक अपनी सेक्युलर छवि बचा पाएगी और शिवसेना कब तक अपनी हिंदुत्व की छवि को जिंदा रख पाएगी, यह एक बड़ा सवाल है।