गीतांजलि श्री अंतरराष्ट्रीय बुकर प्राइज़ जीतने वाली पहली भारतीय हैं। हिंदी गौरवान्वित है। उनका उपन्यास ‘रेत समाधि’ 2018 में प्रकाशित हुआ था और उसका अंग्रेजी अनुवाद डेज़ी रॉकवेल ने किया है।
‘रेत समाधि’ भारत पाकिस्तान के बंटवारे के परिप्रेक्ष्य में लिखी गयी एक 80 वर्षीया महिला की कहानी है जो पति की मृत्यु के उपरान्त सरहद पार पाकिस्तान जाती है, और बंटवारे के समय के पुराने घाव और दुखों का सामना करके, उनको भरने की कोशिश करती है।
बंटवारा - समाज और देशों के, बँटवारा - रिश्तों के इस उपन्यास की कहानी हैं। गीतांजलि श्री ने इस संजीदा विषय को प्रेम और सादगी से कहा है। और यह सादगी, जीतने के बाद दिए गए उनके बयान में भी नज़र आती है जब वह कहती हैं, "मैं यहाँ तक पहुंची हूँ, इसके पीछे हिंदी और दक्षिण पूर्व एशिया की अन्य भाषाओं की वृहद् साहित्यिक परंपरा है।" कई उपन्यास और कहानियाँ लिखने वाली गीतांजलि श्री ने इतिहास में एम ए किया है और हिंदी में पीएचडी। अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाली गीतांजलि श्री ने हिंदी में लिखने का चयन किया और हिंदी साहित्य में अपनी ख़ास जगह बनाई। उनके कई उपन्यास अंग्रेजी, फ़्रांसिसी, जर्मन और स्पेनिश में अनुदित हो चुके हैं और यूरोप में वह काफी जानी जाती हैं।
‘रेत समाधि’ को इस पुरस्कार तक पहुंचाने का श्रेय जाता है अनुवादक डेज़ी रॉकवेल को। अमेरिका की रहने वाली डेज़ी रॉकवेल हिंदी और उर्दू के अलावा लैटिन, फ्रेंच, जर्मन और ग्रीक जानती हैं। वह उपेन्द्रनाथ अश्क की कृतियों का हिंदी से अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए मशहूर हुईं।
रॉकवेल ने भीष्म साहनी और श्रीलाल शुक्ल की कृतियों का अनुवाद किया और फिर अपना रुख बदला और कुछ समय के लिए केवल महिला लेखकों की कृतियों का अनुवाद करने का फ़ैसला किया। उन्होंने कृष्णा सोबती का प्रसिद्ध उपन्यास ‘गुजरात, पाकिस्तान से गुजरात, हिंदुस्तान तक’ का हिंदी अनुवाद किया।
डेज़ी रॉकवेल ने ‘रेत समाधि’ को ‘टूम ऑफ़ सैंड’ के नाम से अनुवाद करके अंतरराष्ट्रीय मंच पर हिंदी साहित्य को पहचान दिलाई।
अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार 2005 में, विदेशी भाषा की पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद के लिए खोला गया और 2016 से, इसने लेखक और अनुवादक दोनों के काम को समान रूप से मान्यता दी। यह पुरस्कार क्षेत्रीय भारतीय भाषाओं के लिए आशा की किरण है, जिन्हें वर्षों से हाशिये पर धकेल दिया गया है। यह पुरस्कार हर साल अंग्रेजी में अनुवादित और ब्रिटेन या आयरलैंड में प्रकाशित होने वाली पुस्तक को दिया जाता है। यह बुकर पुरस्कार से अलग है जो पहले अरुंधति राय, किरण देसाई और अरविन्द अडिगा ने जीता है।
हिंदी, उर्दू, बंगाली और मलयालम सहित भारतीय भाषाओं में हर साल हज़ारों किताबें प्रकाशित होती हैं, फिर भी कुछ का ही अंग्रेजी में अनुवाद किया जाता है। यह पुरस्कार महत्वपूर्ण है क्योंकि यह कई द्विभाषी लेखकों को प्रेरित करेगा जो अपनी मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी में लिखना पसंद करते हैं जिसकी वजह है क्षेत्रीय भाषाओं को मिलने वाली विरल अंतरराष्ट्रीय मान्यता है। जहाँ बुकर पुरस्कार पहले लेखकों को कोरियाई, हिब्रू, पोलिश, अरबी और डच जैसी भाषाओं में उनके मूल कार्यों के लिए दिया गया है, अब हिंदी वैश्विक भाषाओं के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगी। इस अंतरराष्ट्रीय मान्यता से हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत में क्षेत्रीय भाषा के साहित्य और लेखक भी प्रमुखता से आएंगे। यह भारत के हिंदी और क्षेत्रीय भाषा साहित्य के पुनरुद्धार में एक कदम साबित हो सकता है।
इंडिपेंडेंट अख़बार में कहा गया है कि ‘टूम आफ सैंड’ पुरस्कार जीतने वाला 'इंडियन' का पहला उपन्यास था - बाद में आपत्तियों के बाद इसे सुधारा गया। यह दर्शाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में भारतीय साहित्य अभी भी शेष विश्व के लिए अंधेरे में है।
हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में प्रतिभाशाली लेखकों और साहित्य की कोई कमी नहीं है, लेकिन कोई भी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मान्यता भारतीय लेखकों के मनोबल को बढ़ा सकती है। अब समय आ गया है कि भारतीय साहित्य विश्व साहित्य का अंग बने। बुकर पुरस्कार उस दिशा में एक सकारात्मक पहला कदम हो सकता है।
(नवोदय टाइम्स से साभार)