सीएम रहते आज़ाद ने 25 हज़ार करोड़ का घोटाला किया था? सीबीआई जाँच का आदेश

05:16 pm Oct 14, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर लगातार तीखे हमले बोलने वाले और राज्यसभा में नरेंद्र मोदी सरकार को घेरने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद की मुश्कलें बढ़ रही हैं। जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने केंद्रीय जाँच ब्यूरो से कहा है कि वह उन मामलों की जाँच करे, जिनके तहत ग़ुलाम नबी आज़ाद के मुख्यमंत्री रहते  सरकारी ज़मीन पर ग़ैर-क़ानूनी तरीके से कब्जा किए लोगों को ज़मीन दी गई थी।

 इंडियन एक्सप्रेस ने इससे जुड़ी एक ख़बर में विस्तार से जानकारी दी है। इस ख़बर के मुताबिक़, जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने इसे 'लूट कर मालिक बनने की नीति' क़रार दिया है। इस मामले में कथित तौर पर 25 हज़ार करोड़ रुपए का घपला हुआ है।

क्या है मामला

तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉक्टर फ़ारूक अब्दुल्ला ने 2001 में 'जोतने वालों को ज़मीन' का नारा बुलंद किया था। उन्होंने 'रोशनी एक्ट' नामक एक क़ानून पारित करवाया था, जिसमें यह प्रावधान था कि कृषि योग्य ज़मीन पर जिन लोगों का अनधिकृत कब्जा है, उन्हें वह ज़मीन बाजाऱ की कीमतों पर दे दी जाएगी। इसके लिए 1990 की कट-ऑफ़ तारीख रखी गई, यानी उस तारीख तक जिसके पास जो ज़मीन थी, बाज़ार कीमत पर उसे वह ज़मीन सरकार दे देगी।

फ़ारूक अब्दुल्ला सरकार का कहना था कि इस स्कीम में लगभग 2 लाख कनाल ज़मीन का ट्रांसफर किया जाएगा। इससे लगभग 25 हज़ार करोड़ रुपए मिलेंगे, जिसका इस्तेमाल पनबजिली घर बनाने में किया जाएगा। चूंकि इससे पनबजिली घर बनेगा, इसलिए इसका नाम 'रोशनी एक्ट' रखा गया।

राज्य के डोडा, रियासी, पूंच में बकरवाल और जम्मू में गुज्जर समुदाय के लोग रहते हैं, जिनमें अधिकतर मुसलमान हैं। इन लोगों ने ज़मीन पर कब्जा तो कर रखा था, पर वह अनधिकृत था, यानी उनके नाम नहीं था।

अब्दुल्ला सरकार का कहना था कि रोशनी एक्ट से इन आदिवासियों को सुरक्षा मिलेगी और प्रशासन उन्हें परेशान नहीं कर पाएगा, क्योंकि ज़मीन उनके नाम होगी।

क़ानून में संशोधन

लेकिन जब ग़ुलाम नबी आज़ाद जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने 2007 में इस क़ानून में संशोधन करवाया। इस संशोधन के प्रावधानों के मुताबिक यह व्यवस्था की गई कि ज़मीन पर अनधिकृत कब्जा वालों को सिर्फ 100 रुपए प्रति कनाल की प्रोसेसिंग फ़ीस देने से ही वह ज़मीन उनके नाम कर दी जाएगी। यानी उन्हें वह ज़मीन उन्हें मुफ़्त ही मिल जाएगी, जबकि 2001 के क़ानून में बाज़ार की कीमत पर ज़मीन देने का प्रावधान था।

इस पर जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल की अगुआई में बने खंडपीठ ने कहा है, 'आश्चर्यजनक नियम-क़ानून राज्य विधानसभा में पारित हुए बग़ैर ही प्रकाशित किए गए और लागू भी कर दिए गए। इससे संकेत मिलता है कि शीर्ष के लोग ही इसमें शामिल हैं।' बेंच ने शुक्रवार को जारी आदेश में कहा है,

'इस मामले में ग़ैरक़ानूनी नियम और ग़लतियों से जो नुक़सान हुआ है, वह सिर्फ जनता का नुक़सान ही नहीं है, बल्कि उसे राष्ट्रीय हितों का शर्मनाक नुक़सान कहा जा सकता है। इस मामले में दोषी की पहचान होनी चाहिए और क़ानून के मुताबिक उसके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जानी चाहिए।'


जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट

क़ानून हुआ निरस्त

बाद में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने 2018 में रोशनी एक्ट रद्द कर दिया और सभी लंबित आवेदनों को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा है कि यह मामला शुरू से ही ग़ैरक़ानूनी है, लिहाज़ा, 2018 में इस क़ानून के निरस्त होने के पहले जो लेनदेन किए गए थे, वे भी खारिज किए जाते हैं। इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि 2007 में बनाए गए नियम क़ानूनों की कोई वैधता नहीं है।

ग़ुलाम नबी आज़ाद सरकार पर यह आरोप लगा है कि उन्होंने 2007 में इसमें जो संशोधन किया, वह विधानसभा से पारित नहीं था, लिहाज़ा वह ग़ैरक़ानूनी था।

आज़ाद पर यह आरोप भी लगता है कि उनके समय कांग्रेस पार्टी, प्रशासन, अफसरशाही, व्यापारी जैसे रसूख वाले लोगों और यहां तक कि पत्रकारों ने ज़मीन अपने नाम कर ली। उन्होंने सरकारी ज़मीन तो ले ली, पर उसकी बाज़ार कीमत नहीं दी।

इसके बदले उन्होंने सिर्फ 100 प्रति कनाल की दर से प्रोसेसिंग फ़ीस दी। यह अब्दुल्ला के समय पारित रोशनी एक्ट के प्रावधानों के अनुरूप नहीं था।

घपले के आरोप

हाई कोर्ट का कहना है कि इस स्कीम में बड़े पैमाने पर अनियमितताएं हुईं। उदाहरण के तौर पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व राज्य मंत्री ताज मोहिउद्दीन की तीन बेटियों ने इसके तहत ज़मीन ले ली। हाई कोर्ट के रिकॉर्ड में जिन लोगों के नाम इस घोटाले में हैं, उनमें कांग्रेस नेता व पूर्व मंत्री रमन भल्ला, पूर्व कांग्रेस विधायक ओम चोपड़ा और कई रसूख वाले व्यापारी व प्रभावशाली पत्रकार भी हैं।

अदालत ने आदेश में कहा है, 'हमें आज तक ऐसा कोई क़ानून नहीं दिखा है, जिससे आपराधिक गतिविधियाँ कर राष्ट्र और जनता का नुक़सान पहुँचाने और सरकारी खजाने को चूना लगाने को वैध बनाया गया हो।'

इस क़ानून पर भारी विवाद 2014 में हुआ जब रिटायर्ज प्रोफ़ेसर एस. के. भल्ला ने 2011 में इसे चुनौती दी। कम्ट्रोलर एंड ऑडिटल जनरल ने 2014 की अपनी रिपोर्ट में इसमें बड़े पैमाने पर अनियमितताओं की बात कही। भल्ला ने इसके बाद एक और याचिका दायर की और इसकी जाँच की मांग की।

एंटी करप्शन ब्यूरो ने इस मामले में वरिष्ठ अफ़सरों और राजनेताओं के ख़िलाफ़ 17 एफ़आईआर दर्ज की हैं।