विराट कोहली को टेस्ट मैचों में हारने की आदत नहीं है। भारत के सबसे कामयाब टेस्ट कप्तान को घरेलू सीरीज़ के पहले मैच में हारने की आदत तो और भी नहीं है क्योंकि इंग्लैंड के ख़िलाफ़ चेन्नई टेस्ट से पहले वो सिर्फ़ ऑस्ट्रेलिया के ख़िलाफ़ पुणे टेस्ट (2017) में सीरीज़ का पहला टेस्ट हारे थे। आख़िर, हार और जीत तो क्रिकेट का हिस्सा है और अगर भारतीय टीम एक दशक में सिर्फ़ चौथा टेस्ट अपनी ज़मीं पर हारी तो इस पर बहुत ज़्यादा बवाल नहीं मचाया जा सकता है।
चेन्नई की हार से कोहली के अहं को धक्का!
लेकिन, कोहली के लिए यह हार उनके अहं को धक्का देने वाली हार है। ऑस्ट्रेलिया में उनकी ग़ैर-मौजूदगी में एक नई-नवेली टीम ने अंजिक्य रहाणे की कप्तानी में इतिहास रच दिया। उसके बाद इंग्लैंड को यहाँ हराना तो महज़ औपचारिकता माना जा रहा था। लेकिन, दिलचस्प बात यह है कि जिस वक़्त कोहली को घर में सबसे ज़्यादा एक जीत की तलाश थी, वहीं क़िस्मत उन्हें धोखा दे रही है। चेन्नई में भारत पिछले 22 सालों में कभी नहीं हारा था और इस मैदान पर इतने लंबे अर्से बाद टीम इंडिया का सामना हार से हुआ।
चेपॉक कई मायनों में भारत का गाबा था। इतना ही नहीं, चेन्नई में हार सिर्फ़ 1 टेस्ट मैच की हार नहीं बल्कि कप्तान कोहली के लिए टेस्ट क्रिकेट में लगातार चौथी हार है। जी हाँ, पिछले साल न्यूज़ीलैंड दौरे पर कप्तान को दोनों मैच में हार का मुँह देखना पड़ा था और फिर साल के अंत में एडिलेड में एक बेहद शर्मनाक हार से गुज़रना पड़ा था। विदेशी पिचों पर कोहली की कप्तानी में हारने को लेकर आलोचक सवाल उठा ही रहे हैं कि अब जो आख़िरी बात बची थी वो भी होने लगी। अपनी ही ज़मीं पर टेस्ट मैच हारना। ये बिलकुल मुमकिन है कि कोहली की टीम बचे हुए 3 मैचों में वापसी करे और सीरीज़ अब भी 3-1 या फिर 2-1 से जीत ले।
कप्तानी पर अब दबाव वाला दौर
लेकिन, अपनी कप्तानी को साबित करने के लिए कोहली को बहुत दबाव वाले दौर से गुज़रना पड़ेगा। मुश्किल बात यह भी है कि सीरीज़ का तीसरा टेस्ट अहमदाबाद में गुलाबी गेंद से खेला जायेगा जहाँ पर एक बार फिर से जेम्स एंडरसन और स्टुअर्ट ब्रॉड साथ में खेल सकते हैं। कोहली को भारत की टेस्ट कप्तानी करते हुए क़रीब 7 साल हो गये हैं। महेंद्र सिंह धोनी जिन्होंने भारत के लिए सबसे ज़्यादा (60) मैचों में कप्तानी की वो भी 6 साल तक ही टेस्ट कप्तान रहे।
जब टेस्ट कप्तानी को लेकर आलोचना ज़्यादा होने लगी तो धोनी ने ख़ुद ही टेस्ट फॉर्मेट से संन्यास ही ले लिया। सौरव गांगुली को 5 साल, राहुल द्रविड़ को सिर्फ़ 3 साल और अनिल कुंबले को क़रीब 1 साल ही कप्तानी का मौक़ा मिला।
कहने का मतलब यह है कि वैसे भी 50 टेस्ट या 6 साल एक लंबा वक़्त होता है किसी भी कप्तान के लिए। आप कामयाब हों या नाकाम, इतने लंबे वक़्त के बाद एक शख्स की कप्तानी और उसकी शैली से टीमें और ड्रेसिंग रूम अक्सर ऊब जाया करती हैं। और शायद यही वजह थी कि रहाणे को जब ऑस्ट्रेलिया में कप्तानी मिली तो टीम में एक अलग एकजुटता और स्फूर्ति दिखी। नये विचार और एक अलग चमक दिखी।
रविचंद्रन अश्विन और चेतेश्वर पुजारा जैसे खिलाड़ी अपने खेल और सीनियर स्टेटस को लेकर ज़्यादा आश्वस्त दिखे। यहाँ तक कि रोहित शर्मा भी लीडरशीप रोल में दिखे। कोहली की कप्तानी के दौरान सारे सीनियर खिलाड़ियों का ऐसा तालमेल देखने को नहीं मिलता है।
रहाणे ने बढ़ा दी मुश्किलें!
इतना ही नहीं, अपनी टेस्ट कप्तानी के दौर में कोहली के नाम इकलौती शानदार कामयाबी 70 सालों में पहली बार ऑस्ट्रेलिया को ऑस्ट्रेलिया में टेस्ट सीरीज़ में हराना (2018) ही रही है। लेकिन, रहाणे की 2020-21 में कामयाबी ने कोहली के उस कमाल को थोड़ा हल्का साबित कर दिया है। कोहली के पास इंग्लैंड, साउथ अफ्रीका और न्यूज़ीलैंड दौरे पर टेस्ट सीरीज़ जीतने का मौक़ा था जिसे उन्होंने गँवा दिया।
रहाणे की शानदार कप्तानी ने एक बार फिर से न सिर्फ़ बिशन सिंह बेदी और इयन चैपल जैसे पूर्व कप्तानों को ये कहने के लिए मजबूर किया कि वाक़ई में मुंबई का खिलाड़ी कोहली से बेहतर टेस्ट कप्तान है। बहुत सारे आलोचक पहले से ही कोहली की कप्तानी शैली को लेकर सवाल कर रहे थे, वो अब और प्रखर सुर में आ चुके हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या चेतन शर्मा की अध्यक्षता वाली नई चयन समिति एक बेहद बोल्ड फ़ैसला लेने का साहस दिखा सकती है?
सफेद गेंद की क्रिकेट में पहले से ही उप-कप्तान रोहित शर्मा अपनी दावेदारी लगातार पेश कर कोहली के लिए दबाव बना ही रहे हैं। रही-सही कसर आईपीएल के दौरान रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के लिए साल-दर साल नाकामी झेलने वाली बात कोहली की कप्तानी को और बुरी तरह से एक्सपोज कर देती है।
प्लेइंग इलेवन चयन का मुद्दा
बहरहाल, अभी तो चेन्नई टेस्ट में कोहली का प्लेइंग इलेवन में कुलदीप यादव को नहीं खिलाना भी कई जानकारों के गले नहीं उतर रहा है। ये पहला मौक़ा नहीं कि कप्तान के तौर पर कोहली ने टीम चयन को लेकर अजीब से फ़ैसले लिए हैं। 2018 के इंग्लैंड दौरे पर भी टॉस जीतकर ग़लत फ़ैसले लेने की बात रही हो या फिर प्लेइंग इलेवन चुनने की, कोहली आलोचना का शिकार हुए थे। उसी साल साउथ अफ्रीका के दौरे पर रहाणे जैसे बल्लेबाज को कोहली ने पहले 2 टेस्ट मैचों से बाहर कर दिया था और जब तीसरे टेस्ट में मजबूरी में रहाणे को टीम में लाना पड़ा तो उन्होंने मैच जिताने वाली एक शानदार पारी खेल डाली।
ऋषभ पंत और ऋद्धिमान साहा को लेकर भी कोहली म्यूज़िकल चेयर के मसले को वो ऑस्ट्रेलिया दौरे तक सुलझा नहीं पाये थे। वो तो भला हो पंत की बल्लेबाज़ी का जिन्होंने यह साबित कर दिया कि विकेटकीपर-बल्लेबाज़ नहीं सिर्फ़ बल्लेबाज़ के तौर पर ही वो इस टीम इंडिया का हिस्सा हो सकते हैं। आज कुलदीप को जिस मुश्किल से गुज़रना पड़ रहा है, पंत की भी हालत ऑस्ट्रेलिया दौरे के एडिलेड टेस्ट तक कमोबेश वैसी ही थी।
हार के बाद बहाने क्यों ढूंढने लगतें है कोहली?
एडिलेड टेस्ट में हार के बाद कोहली ने पुजारा की बल्लेबाज़ी शैली को बिना नाम लिए आड़े हाथों ले लिया था। लेकिन, बाद में पुजारा की उसी शैली ने भारत की ऐतिहासिक जीत में अहम भूमिका निभाई। यह ठीक है कि चेन्नई में शाबाज़ नदीम और वाशिंगटन सुंदर ने अच्छा खेल नहीं दिखाया लेकिन दो युवा खिलाड़ियों को हार के बाद कोसना इतने बड़े कप्तान को शोभा देता है क्या? कोहली मैच के बाद प्रेस कांफ्रेंस में कभी टॉस हारने को लेकर परेशानी की वजह बताते रहे तो खुल्लमखुल्ला एसजी बॉल को भी दोष देने लगे। तर्क तो यह भी दिया जा सकता है कि इंग्लैंड की टीम भी उसी गेंद से खेल रही थी! यह एक बड़े कप्तान या दिलेर कप्तान की निशानी नहीं है।