कोरोना बाद का गंभीर संकट अब रोज़गार के बाज़ार में!

01:03 pm Jun 28, 2021 | आलोक जोशी - सत्य हिन्दी

गाँवों में नदी किनारे के रहनेवाले अच्छी तरह जानते हैं कि बाढ़ के कहर की असली तस्वीर पानी उतरने के बाद ही सामने आती है। यहाँ तक कि पानी उतरने के बाद भी जो मिट्टी के मकान साबुत खड़े दिखते हैं धूप निकलते ही वो चिटक कर ढहने लगते हैं।

कोविड-19 महामारी का हाल भी इससे कुछ अलग नहीं है। शरीर पर असर हो, हमारे काम धंधों पर असर हो या देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था पर। हरेक की स्थिति यही है। बीमारी के बाद की कमज़ोरी दूर होने का नाम ही नहीं ले रही। कुछ समय लगता है कि कुछ बेहतर हुए फिर अचानक नए लक्षण दिखने लगते हैं। बीमारी से उबरे किसी भी इंसान से बात कीजिए, वो आपको बताएँगे कि किस किस तरह की तकलीफ और कितनी लंबी चल रही है। यह तो उनका हाल है जो बीमार हुए और ठीक हो गए या हो रहे हैं। लेकिन उन लोगों के परिवारों का हाल सोचिए जो नहीं बच पाए। और उन लोगों की फिक्र जिन्हें अभी तक इस बीमारी ने तो नहीं छुआ है लेकिन लगातार ख़तरा बना हुआ है। टीका लगवाने के पहले और उसके बाद भी यह डर बरकरार है कि कहीं कोरोना का नया विषाणु न लग जाए। यह डर भी है कि यह वायरस जिस नए रूप या वैरिएंट में आ रहा है उसपर टीका भी असर करेगा या नहीं। 

और हर बार इस डर के साथ न सिर्फ़ घर परिवार के लोगों की सुरक्षा दिमाग में आती है बल्कि अपने-अपने रोज़गार और कमाई की फिक्र भी। जहाँ ज़िंदगी बचाने के लिए लॉकडाउन या कोरोना कर्फ्यू लगता है वहीं शुरू हो जाती है यह चिंता कि ऐसे में गुजारा कैसे होगा। पहली बार लॉकडाउन लगते ही भारत में पिछले साल सिर्फ़ अप्रैल महीने में ही बारह करोड़ लोगों के बेरोज़गार होने की ख़बर आई थी। और इनमें से छह करोड़ लोग चालीस साल से कम उम्र के थे, यानी वो लोग जिनके कंधों पर न सिर्फ़ परिवार बनाने और चलाने की ज़िम्मेदारी थी बल्कि जिनमें से ज़्यादातर लोगों पर किसी न किसी तरह के कर्ज का बोझ भी रहा होगा। अब दो तरफ़ा मुसीबत खड़ी होती है, एक परिवार चलाने के लिए पैसे की फिक्र और दूसरी कर्ज की क़िस्त का इंतज़ाम। ऐसे में ज़्यादातर लोग अपनी बचत खाली करने लगते हैं और सरकार ने उनकी मदद के लिए भविष्य निधि यानी पीएफ़ से पैसा निकालने की सुविधा भी दे दी। नतीजा यह हुआ कि तीन महीने में ही पीएफ़ से पैसा निकालने की तीन गुना अर्जियाँ आ गईं। यही नहीं, लोगों के बैंक खाते किस रफ्तार से खाली हो रहे हैं इसका अंदाजा रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट से मिलता है जिसमें बताया गया है कि बैंकों के बचत खातों में जमा रक़म की जीडीपी में हिस्सेदारी पिछले साल के 7.7 परसेंट से गिरकर सिर्फ़ तीन परसेंट पर पहुँच चुकी है।

कोरोना की दूसरी लहर की ज़िंदगी पर मार तो पहली लहर से बहुत ज़्यादा ख़तरनाक थी। लेकिन साथ ही व्यापार और रोज़गार पर भी दोहरा असर पड़ा। पहले की मुसीबत से निकलने की कोशिश में लगे बहुत से लोगों की तो कमर ही टूट गई। 

सीएमआईई ने बताया कि इस साल सिर्फ़ मई के महीने में ही फिर डेढ़ करोड़ लोग बेरोज़गार हो गए। अब जब कोरोना की तीसरी लहर की आशंका बार-बार जताई जा रही है तब कितने और लोगों के रोजगार खतरे में होंगे और जिनकी नौकरियां चली गई हैं उन्हें कब और कैसे वापस मिलेंगी सोचना भी मुश्किल है।

हालाँकि बाक़ी दुनिया के साथ ही भारत के शेयर बाज़ारों में भी पार्टी रुकने का नाम नहीं ले रही है, लेकिन एक बार फिर देशी विदेशी रेटिंग एजेंसियों और अर्थशास्त्रियों ने विकास के मोर्चे पर लाल झंडियाँ दिखाना शुरू कर दिया है। मशहूर रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पूअर ने भारत की जीडीपी ग्रोथ का अनुमान ग्यारह परसेंट से घटाकर साढ़े नौ परसेंट कर दिया है। यह सिर्फ़ कोरोना की दूसरी लहर के असर का हिसाब जोड़ने के बाद। उसका यह भी कहना है कि अगर आगे कोरोना का प्रकोप बढ़ा तो इसमें और गिरावट आ सकती है। और यह भी कि इस झटके से उबरने में अभी कई साल लग जाएंगे। 

एस एंड पी ने एक और गंभीर चेतावनी यह दी है कि अगले बारह से चौबीस महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था भले ही कोरोना के झटके से उबरने लगेगी लेकिन राज्यों पर इसका बहुत बुरा असर हो सकता है। उसका कहना है कि राज्यों की पहले से ख़राब आर्थिक स्थिति और खस्ता हो सकती है और उनपर कर्ज का बोझ भी बहुत बढ़ने का डर है। हालाँकि अगले दो सालों में राज्यों की कमाई में औसत सत्रह परसेंट बढ़त का अनुमान है, लेकिन ख़र्च उससे कहीं ज़्यादा होगा। वजह यह भी है कि कोरोना से मार खाई जनता को राहत देने के लिए जो नए ख़र्च बढ़े हैं उनमें कटौती करना संभव नहीं हो पाएगा। इसीलिए अगर केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक राज्यों की मदद के लिए आगे नहीं आए तो बहुत मुश्किल हो सकती है।

उम्मीद की जा रही थी कि अब केंद्र सरकार कोई बड़ा राहत पैकेज लेकर आएगी। लेकिन वित्त मंत्रालय के प्रमुख आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने कहा है कि अगले छह हफ्ते के कोरोना आँकड़े बहुत महत्वपूर्ण होंगे और उन्हें देखकर ही सरकार तय करेगी कि इस वक़्त अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए और क़दम उठाने की ज़रूरत है या नहीं। उनका यह भी कहना है कि सरकार ने अभी तक जो किया है उसकी वजह से कुछ सेक्टरों को तो काफ़ी फ़ायदा हुआ है लेकिन दूसरी तरफ़ होटल और टूरिज़्म जैसे क़ारोबार हैं जिनका अब भी बुरा हाल है। ऐसे में सरकार को अब कोई मदद देने का फ़ैसला ऐसे ही करना होगा ताकि मदद उन्हें ही मिल सके जिन्हें सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

लेकिन अब सवाल फौरी मदद का या किसी तरह कुछ पैसे दिला देने तक ही नहीं रह गया है। पूरी दुनिया में अब यह सवाल बहुत बड़ा हो गया है कि आगे काम चलेगा कैसे?

यानी दफ्तर कैसे चलेंगे, फैक्टरियाँ कैसे चलेंगी, कितने लोगों के पास काम रह जाएगा, और जिनके पास नहीं रहेगा उनका क्या होगा? विश्व आर्थिक फोरम, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और ओईसीडी जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों से लेकर दुनिया की सारी बड़ी छोटी कंसल्टिंग कंपनियां, सरकारें और एच आर यानी मानव संसाधन विभाग के लोग इस सवाल से जूझ रहे हैं और रोज़ नई से नई योजनाएँ सामने ला रहे हैं। असल में यह तैयारी तो कोरोना के पहले ही शुरू हो चुकी थी। दुनिया भर में जिस रफ्तार से ऑटोमेशन बढ़ रहा है उसमें लोगों के लिए काम कम से कम होता जाएगा इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन जैसे थॉमस फ्रीडमैन ने कोरोना संकट की शुरुआत में ही कह दिया था कि अब इतिहास ईसा से पहले और ईसा के बाद नहीं बल्कि कोरोना से पहले और कोरोनातीत कालखंडों में बांटकर देखा जाएगा। तो कोरोना संकट ने रोज़गार की शक्ल बदलने का काम भी बहुत तेज़ कर दिया है। भारत में ही लिस्टेड कंपनियों के नतीजे देखें तो बिक्री कम होने के बावजूद मुनाफे में उछाल का रहस्य यही है कि उन्होंने अपने ख़र्च कम किए जिसका सबसे बड़ा हिस्सा कर्मचारियों की गिनती या उनकी तनख्वाह में कटौती है।

इसे देखकर यह आशंका बढ़ रही है कि आनेवाले वक़्त में बहुत तेज़ी से नौकरियों पर तलवार गिरनेवाली है। खासकर वो लोग ख़तरे में हैं जिन्होंने काम शुरू करने के बाद से कोई नया हुनर नहीं सीखा, टेक्नोलॉजी में आगे नहीं बढ़े या जो खुद को लगातार कंपनी के काम का साबित नहीं कर सकते। और अब जिन्हें नौकरी चाहिए, उनके लिए भी ज़रूरी है कि वो बिल्कुल नई दुनिया के हिसाब से खुद की ट्रेनिंग करें और ऐसे हुनर सीखें कि नौकरियाँ देनेवाले उनके पीछे भागें। बड़े संगठन कह रहे हैं कि पुराने अंदाज़ में काम करनेवाले जितने लोगों की नौकरियाँ जाएँगी, उसके मुक़ाबले बहुत बड़ी संख्या में नए दौर के काम पैदा होंगे। हालाँकि यह बात हजम करना मुश्किल है, लेकिन इतना तो तय है कि रोज़गार के बाज़ार में कामयाब होने के लिए सबको नए जमाने की चाल सीखनी पड़ेगी, और बदलते ज़माने के साथ नहीं बल्कि उससे आगे चलने की लियाकत दिखानी होगी। अब चाहे जवान हों या बूढ़े, इस नुस्खे से बचकर नहीं रह सकते।

(हिंदुस्तान से साभार)