पेट्रोल-डीज़ल की लगातार बढ़ रही कीमतों से केंद्र पर राजनीतिक दवाब बढ़ता जा रहा है और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की दिक्क़तें भी दिन दूनी- रात चौगुनी होती जा रही हैं। पश्चिम बंगाल सरकार ने पेट्रोल पर लगने वाले मूल्य संवर्द्धित कर यानी वीएटी में एक रुपए की कमी कर दी है। ऐसा करने वाला यह चौथा राज्य बन गया है। इसके पहले असम, राजस्थान और मेघालय में भी इस तरह की कटौती की गई है।
यह महज संयोग नहीं है कि असम और पश्चिम बंगाल में कुछ महीने बाद ही विधानसभा चुनाव होने को है। असम में वह सत्ता में है तो पश्चिम बंगाल में सत्ता की मजबूत दावेदार बन कर उभर रही है।
चार राज्यों ने दी राहत
असम ने कोरोना से लड़ने के लिए अतिरिक्त पाँच प्रतिशत कर पेट्रोल-डीज़ल पर साल 2020 में लगाया था, जिसे इसने 12 फ़रवरी को वापस ले लिया। राजस्थान सरकार ने पेट्रोल उत्पादों पर लगने वाले राज्य वैट को 38 प्रतिशत से घटा कर 36 प्रतिश कर दिया।
लेकिन पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में सबसे ज़्यादा राहत मेघालय सरकार ने दी है। पेट्रोल की कीमत में 7.40 रुपए और डीज़ल की कीमत में 7.10 रुपए की कमी हो गई। मेघालय सरकार ने पहले वैट में दो रुपए की कटौती की, उसके बाद पेट्रोल पर वैट को 31.62 प्रतिशत से घटा कर 20 प्रतिशत और डीज़ल पर 22.95 प्रतिशत से घटा कर 12 प्रतिशत कर दी।
केंद्र सरकार पर दवाब इसलिए बढ़ गया है कि इसने मार्च से मई 2020 के बीच धीरे-धीरे कई चरणों में पेट्रोल पर केंद्रीय उत्पाद 13 रुपए और डीज़ल पर 16 रुपए प्रति लीटर बढ़ा दिया है। वह इसमें किसी तरह की कटौती से इनकार कर रही है।
आन्दोलन करने वाली बीजेपी क्यों है चुप?
बीजेपी के साथ दिक्क़त यह है कि यह वही पार्टी है जो कांग्रेस शासन में पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में मामूली बढ़तोरी पर भी सड़कों पर उतर कर आन्दोलन करने लगती थी। रसोई गैस की कीमत बढ़ने पर स्मृति ईरानी का सिलिंडर लेकर सड़क पर धरना देना और आक्रामक आन्दोलन करना अभी भी लोगों को याद है।
दूसरी दिक्क़त यह है कि उस समय अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमत आज से कई गुणे ज़्यादा थी। आज कच्चे तेल की कीमत पहले से कम है और उसके उत्पादों की कीमत ज़्यादा।
केंद्र सरकार और बीजेपी की दूसरी दिक्क़त यह है कि पेट्रोल-डीज़ल की कीमत एशिया में सबसे अधिक है, श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी इन उत्पादों की कीमत भारत से बहुत कम है।
सबसे अज़ीब मामला नेपाल का है। नेपाली सरकारी कंपनी भारतीय सरकारी कंपनी से तेल खरीदती है, वहाँ पेट्रोल-डीज़ल की कीमत भारत की तुलना में बहुत कम है। इसका कोई स्पष्टीकरण न तो सरकार के पास है न ही सत्तारूढ़ दल के पास।
'धर्मसंकट' में है सरकार
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शायद इसी ओर संकेत करते हुए कहा है कि केंद्र सरकार 'धर्मसंकट' में है।
लेकिन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इसका ठीकरा किसी और पर फोड़ने की कोशिश की है। उन्होंने कहा कि 'ओपेक प्लस' ने पहले कहा था कि कच्चे तेल का उत्पादन बढ़ाया जाएगा, पर बाद में वह अपने दावे से मुकर गया, जिस कारण यह हाल हुआ है। 'ओपेक प्लस' में तेल निर्यातक देशों के संगठन ओेपेक यानी ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज़ के अलावा अज़रबैजान और कज़ाख़स्तान जैसे देश भी शामिल हैं।
लेकिन प्रधान के बयान में दिक्क़त यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में शनिवार को कच्चे तेल की कीमत 63 डॉलर प्रति बैरल है। एक बैरल लगभग 159 लीटर के होता है। मनमोहन सिंह के समय कच्चे तेल की कीमत 120 रुपए प्रति बैरल तक गई थी, उस समय पेट्रोल-डीज़ल की कीमत में बढ़ोतरी पर आन्दोलन करने वाली पार्टी 63 डॉलर प्रति बैरल तेल की कीमत पर घरेलू बाज़ार में कीमतें बढ़ाती जा रही है और मंत्री इसके लिए विदेशी संगठन को ज़िम्मेदार ठहराते हैं।
क्यों बढ़ रही हैं कीमतें?
इसे हम इससे समझ सकते हैं कि जब कच्चे तेल की कीमत 54 डॉलर प्रति बैरल थी, भारत में पेट्रोल की कीमत 64 रुपए थी, अब जबकि यह 63 डॉलर है तो इसकी कीमत 89 रुपए है।
लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है, इसे समझने के लिए हमें इसकी कीमत को थोड़ना ब्रेक-अप करना होगा।
कच्चे तेल को साफ करने पर लगभग 3.84 रुपए खर्च होता है और इस तरह भारत में पेट्रोल की कीमत 28.75 पैसे बैठती है।
केंद्र सरकार का टैक्स 32.98 रुपए और राज्यों का 19.32 रुपए बैठता है। यानी केंद्र और राज्य सरकार के टैक्स के रूप में एक लीटर पेट्रोल पर 52.30 रुपए चुकाना होता है।
यह दर दिल्ली की है। अलग-अलग राज्यों में वैट अलग-अलग होता है।
इस तरह यह साफ हो जाता है कि कच्चे तेल की कीमत, रिफाइनरी चार्ज, परिवहन और कमीशन का जो खर्च बैठता है, उससे ज़्यादा इस पर टैक्स देना होता है।
साफ़ है कि पेट्रोल-डीज़ल तेल की कीमतें इसलिए बढ़ रही है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने इसे राजस्व उगाही का जरिया बना रखा है।
पेट्रोल- डीज़ल की बढ़ी कीमतों पर क्यों उदासीन है जनता?