महंगाई ने फिर ख़तरे की घंटी बजा दी है। जनवरी में खुदरा महंगाई का आँकड़ा एक बार फिर रिज़र्व बैंक की पहुँच से बाहर छलांग लगा गया है। दिसंबर में बारह महीने में सबसे कम यानी 5.72% पर पहुंचने के बाद जनवरी में खुदरा महंगाई की रफ्तार फिर उछलकर 6.52% हो गई है। पिछले साल 2022 के शुरुआती दस महीने यह आंकड़ा रिजर्व बैंक की बर्दाश्त की हद यानी दो से छह परसेंट के दायरे से बाहर ही रहा और सिर्फ नवंबर-दिसंबर में काबू में आता दिखाई पड़ा था। जनवरी में फिर इसका यह हद पार कर जाना फिक्र की बात है।
फ़िक्र की बात इसलिए भी है क्योंकि महंगाई का जो आँकड़ा नज़र आ रहा है वो दरअसल, पूरी तसवीर दिखा नहीं पा रहा है। आँकड़ों की छानबीन करनेवाले जानकार बता रहे हैं कि अगर सब्जियों के दाम गिरे नहीं होते तो इस वक़्त यह महंगाई और डरावनी दिखाई देती। पिछले दो महीनों में भी जो गिरावट दिखाई पड़ी उसकी वजह खाने-पीने की चीजों के दाम ही थे। खाद्य महंगाई का उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में चालीस परसेंट हिस्सा है।
दिसंबर में 4.19% पर पहुंचने के बाद खाद्य महंगाई का आँकड़ा जनवरी में 5.94% पर आ चुका है, जबकि पिछले अक्टूबर में यह 6.77% की ऊँचाई पर था। लेकिन खाद्य महंगाई में भी सब्जियों की भागीदारी उसे कम रखने में भूमिका निभा रही है। जनवरी में सब्जियों के दाम 11.7% कम हुए हैं जबकि नवंबर से जनवरी तक तीन महीनों में इन दामों में क़रीब एक चौथाई गिरावट दिखी है। यह मौसम का असर है, लेकिन अगर यह न होता तो फिर महंगाई का आँकड़ा कहाँ होता, यह समझना मुश्किल नहीं है। अगर सब्जियों के दाम को बाहर छोड़ दें तो सिर्फ़ खाद्य महंगाई का आँकड़ा ही जनवरी में 9.4% पर दिखाई पड़ेगा। फिक्र की बात यह है कि पिछली बार जब महंगाई तेज़ी से बढ़ी तो उसमें तिलहन और खाद्य तेलों की महंगाई ने बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन इस बार यह काम अनाज के दाम कर रहे हैं। तिलहन और खाद्य तेलों की तरह इसकी ज़िम्मेदारी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार या महंगे इंपोर्ट पर नहीं डाली जा सकती।
सीएमआईई के आंकड़ों के अनुसार जनवरी में अनाज के दाम पिछले साल जनवरी के मुक़ाबले साठ परसेंट से भी ज्यादा हैं जबकि सब्जियों में करीब 32% की गिरावट दिखती है। अनाज के दाम कब गिरेंगे यह बहुत हद तक मौसम पर निर्भर है। अभी गर्मी बढ़ने से गेहूं के किसान परेशान दिख रहे हैं और मॉनसून का पहला अनुमान भी उत्साहजनक नहीं है। लेकिन अगर यह दाम कम नहीं हुए तो फिर यह अर्थव्यवस्था के लिए नई परेशानी का कारक बन सकते हैं। खासकर रोज़ कमाने खाने वालों और कम तनख्वाह या मजदूरी वालों को यह महंगाई बुरी तरह चुभेगी और तब वो अपना मेहनताना बढ़ाएंगे या बढ़ाने की मांग करेंगे।
महंगाई पर काबू पाने की ज़िम्मेदारी रिज़र्व बैंक की है। उसे एहसास भी है कि हालत कितनी गंभीर है। यही वजह है कि पिछले दिनों महंगाई काबू में आने की ख़बर के बावजूद उसने ब्याज दरें बढ़ाने का सिलसिला बंद नहीं किया। रिजर्व बैंक की चिंता का कारण है कोर इनफ्लेशन या वह आंकड़ा जो खुदरा महंगाई के आंकड़े में से खाद्य पदार्थ और ईंधन की हिस्सेदारी को हटाकर बनता है। इसपर मौसम या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के उतार चढ़ाव का असर उतना ज्यादा नहीं होता है। इसीलिए इसका ऊंचे स्तर पर रहना खास परेशानी का सबब है।
जनवरी में महंगाई का आँकड़ा 6.2% पर रहा। यह लगातार इक्कीसवां महीना था जब कोर महंगाई का आंकड़ा छह परसेंट से ऊपर यानी रिजर्व बैंक की बर्दाश्त की हद से बाहर रहा है।
इतने लंबे समय तक महंगाई बेकाबू रही हो, ऐसा लगभग दस साल पहले यानी 2012 से 14 के बीच हुआ था। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने अपने पिछले बयान में कहा भी है कि महंगाई अभी एक गंभीर चिंता बनी हुई है। शायद यही वजह है कि मई से अब तक रिज़र्व बैंक छह बार रेपो रेट यानी वो ब्याज दर बढ़ा चुका है जिसपर बैंकों को रिजर्व बैंक से कर्ज मिलता है। दिसंबर में महंगाई का आँकड़ा काबू में आने या कुछ राहत मिलने के बाद भी उसने यह दर बढ़ाने का सिलसिला रोका नहीं। लगातार छह बार बढ़ोत्तरी के बाद इस वक़्त यह दर साढ़े छह परसेंट पर है। हालाँकि इससे पहले लगातार बारह पॉलिसी बैठकों में रिज़र्व बैंक ने इस दर में कोई हेरफेर नहीं किया था। कोरोना संकट की वजह से शायद उसकी गुंजाइश भी नहीं थी।
लेकिन अगर आपको लग रहा है कि यह ब्याज दर बहुत ज्यादा है या रिजर्व बैंक बहुत सख्त हो रहा है तो जान लीजिए कि यह बात पूरी तरह सच नहीं है। साल 2000 में जब से बाज़ार में नकदी की मात्रा पर नियंत्रण रखने के लिए यह इंतज़ाम शुरू हुआ उसके बाद उसी साल रिज़र्व बैंक ने पूरे बीस बार रेपो रेट में बदलाव किए थे ताकि रुपए का अवमूल्यन रोका जा सके। तब यह दर नौ परसेंट के आसपास थी। वहाँ से यह चौदह परसेंट तक बढ़ी फिर वापस नौ परसेंट तक आई, फिर सोलह परसेंट तक बढ़ी और फिर साल के अंत में दस परसेंट तक पहुंचने के बाद 2004 तक धीरे धीरे गिरती रही और छह परसेंट पर पहुंची। इसके बाद इसमें बढ़त का सिलसिला शुरू हुआ और जुलाई 2008 में इसने नौ परसेंट की ऊंचाई छुई, जो तब से अब तक का सबसे ऊंची दर है।
लेकिन तब और अब में एक बड़ा फर्क यह है कि उस वक्त खासकर होमलोन के ग्राहकों के साथ बैंकों की मनमानी चरम पर थी। रिजर्व बैंक की दर और होम लोन के ब्याज में कोई सीधा संबंध नहीं था। जो था उसे भी बैंक अपने हिसाब से तोड़ते मरोड़ते रहते थे। नए ग्राहकों को लुभाने के लिए कम रेट और पुराने ग्राहकों से ऊँचे रेट वसूलने का सिलसिला साथ-साथ चलता रहता था। जिन लोगों ने 2004 से 2006 के बीच ऐसे लोन लिए हैं उन्हें याद होगा कि लगभग हर महीने या दो महीने में बैंक से एक चिट्ठी आ जाती थी कि आपकी ईएमआई बढ़ गई है। बाद में बैंकों ने पाया कि ईएमआई अब ग्राहक की लोन चुकाने की हैसियत से ज्यादा हो रही है तो उन्होंने ईएमआई के बजाय लोन की मियाद बढ़ाने की चिट्ठी भेजनी शुरू कर दी। यानी आपने पंद्रह साल का लोन लिया है तो वो अब आपको अठारह साल, बीस साल या बाईस साल तक चुकाना होगा। यही नहीं, अगर आप वक्त से पहले लोन भरकर अपना बोझ हल्का करना चाहें तो उसपर पेनाल्टी भी लगाई जाती थी। धीरे-धीरे रिजर्व बैंक ने इस मनमानी पर रोक लगाई और अब तो करीब करीब तय है कि रिजर्व बैंक के रेट बढ़ाने या घटाने के साथ ही आपकी ईएमआई भी सिर्फ ऊपर ही नहीं नीचे भी जाती है।
लेकिन अतीत के क़िस्से दिल को बहलाने के लिए ही ठीक हैं। जिसने दो साल पहले होम लोन लिया है उसके लिए तो आज का वक्त भी पर्याप्त डरावना है कि ईएमआई और कितनी बार बढ़ेगी। साथ में खाने पीने और पेट्रोल डीजल का बिल और यह चिंता भी कि महंगाई के बहाने प्राइवेट कंपनियां अपने स्टाफ की तनख्वाह बढ़ाने में भी उदारता दिखाने के बजाय खर्च में कटौती के क़िस्से ही सुनाती मिलती हैं।
हालाँकि जनवरी में लगातार आठवें महीने थोक महंगाई में गिरावट दिखाई पड़ी है। थोक मूल्य सूचकांक अब 4.7% पर है। लेकिन विशेषज्ञ इससे भी खुश नहीं हैं। उन्हें उम्मीद थी कि यह आँकड़ा साढ़े चार परसेंट होना चाहिए था। दूसरी बात यह कि थोक और खुदरा महंगाई साथ साथ नहीं चल रही है। जहां थोक महंगाई का आँकड़ा आठ महीने से गिर रहा था, वहीं खुदरा महंगाई में नरमी का सिलसिला अक्टूबर में शुरू हुआ और जनवरी में उलट भी गया। सामान्य स्थिति में माना जाता है कि अगर थोक महंगाई आज कम हो रही है तो खुदरा दाम आने वाले कुछ समय में कम होते दिखेंगे। लेकिन अगर ये दोनों आँकड़े इसी तरह उल्टे चलने लगे तो फिर नीति नियंताओं की दुविधा भी बढ़ाएंगे और शायद आम आदमी की चिंता भी। एक बात तो अब तय लग रही है कि अभी महंगाई की मुसीबत टली नहीं है और अप्रैल की क्रेडिट पॉलिसी में रिजर्व बैंक शायद एक बार और दरें बढ़ाने का एलान कर सकता है। उसके आगे यह सिलसिला चलेगा या नहीं, इसका फ़ैसला दुनिया की उथल-पुथल के अलावा भारतीय इकोनॉमी की रफ्तार और मॉनसून की चाल से ही हो पाएगा।
(हिंदुस्तान से साभार)