नोटबंदी के पाँच साल बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह अपने मक़सद में कामयाब रही? जिस नोटबंदी को काले धन पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' बताया गया था क्या उसके बाद अब भारतीय अर्थव्यवस्था में काला धन नहीं रहा?
यह सवाल इसलिए भी बेहद अहम है कि भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार, नोटबंदी के समय जितने करेंसी नोट्स को अर्थव्यवस्था से बाहर कर दिया गया था, उसका लगभग 99 प्रतिशत फिर उसी जगह पहुँच चुका है।
8 नवंबर, 2016
याद दिला दें कि 8 नवंबर, 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रात आठ बजे टेलीविज़न पर देश को संबोधित करते हुए एलान किया था कि रात 12 बजे यानी सिर्फ चार घंटे बाद 500 रुपए और 1000 रुपए के नोट चलन से बाहर हो जाएंगे, यानी इन नोटों को स्वीकार नहीं किया जाएगा, ये बेकार हो जाएंगे।
इसके पीछे सोच यह थी कि काले धन से जुड़े करेंसी नोट्स को लोग बैंकों में जमा करेंगे या वे बेकार हो जाएंगे और इस तरह काला धन अर्थव्यवस्था से बाहर हो जाएगा।
नरेंद्र मोदी ने सवाल किया था, "कौन ईमानदार व्यक्ति इससे दुखी नहीं होगा कि करोड़ों रुपए के करेंसी नोट्स सरकारी अफ़सरों के बिस्तर के नीचे दबा कर रखे हुए हैं?"
कारण क्या था?
कुछ अर्थशास्त्रियों ने भी इस कदम का स्वागत किया था। भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष ने कहा था कि नोटबंदी से लगभग 4.5 लाख करोड़ रुपए अर्थव्यवस्था से बाहर हो जाएंगे जो काला धन है।क्या हुआ?
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। नोटबंदी से बहुत बड़ी मात्रा में काला धन अर्थव्यवस्था से बाहर नहीं निकाला जा सका। सरकार को इसका अंदेशा समय रहते ही हो गया था, लेकिन उसने कुछ नहीं किया या नहीं कर सकी। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2 फ़रवरी 2017 को बजट पेश करते हुए इसका संकेत दे दिया था।
नोटबंदी के पहले यानी 2015-16 के दौरान सकल घरेलू अनुपात (जीडीपी) का 12.1 प्रतिशत करेंसी के रूप में था, जो 2016-17 में घट कर 8.7 प्रतिशत तक पहुँच गया। लेकिन 2019-2020 में यह बढ़ कर 12 प्रतिशत हो गया। लेकिन 2020-2021 में यह अब तक के सर्वोच्च अंक 14.5 प्रतिशत पर पहुँच गई। यानी, नोटबंदी के पहले जितनी करेंसी बाज़ार में थी, आज उससे अधिक है।
डिजिटल पेमेंट
सरकार का दूसरा दावा था कि नोटंबदी से अर्थव्यवस्था को डिजिटल बनाया जा सकेगा और भुगतान नकद में न होकर कार्ड, इलेक्ट्रॉनिक तरीके या दूसरे तरीकों से किया जा सकेगा।
डिजिटल भुगतान निश्चित रूप से बढ़ा है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता है कि पूरी अर्थव्यवस्था को डिजिटलाइज कर दिया गया है।
टैक्स उगाही
मोदी सरकार का एक तर्क यह भी था कि डिजिटल पेमेंट होने से टैक्स का भुगतान ज़्यादा से ज़्यादा करना होगा और टैक्स उगाही बढ़ेगी। इसके बाद जीएसटी लागू किया गया और सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स की दरों में भी कटौती की। सरकार को उम्मीद थी कि इन दोनों ही कदमों से टैक्स चुकाने में बढ़ोतरी होगी और टैक्स राजस्व भी बढ़ेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। जीएसटी और कॉरपोरेट टैक्स, दोनों में ही कमी आई है, टैक्स राजस्व भी गिरा है।
बदहाल अर्थव्यवस्था
नोटबंदी का असर अर्थव्यवस्था पर बेहद बुरा पड़ा और पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई। इसे इससे समझा जा सकता है कि 2011-12 के दौरान सकल घरेलू अनुपात यानी जीडीपी में वृद्धि की दर 5.2 प्रतिशत थी, जो 2016-17 के दौरान 8.3 प्रतिशत तक पहुँच गई, यानी नोटबंदी के ठीक पहले यह स्थिति थी।
नोटबंदी के बाद यानी 2019-2020 में जीडीपी में वृद्धि की दर चार प्रतिशत पर आ गई। यानी, नोटंबदी के पहले की तुलना में लगभग चार प्रतिशत कम हो गई।
इसके बाद कोरोना महामारी आई और 2020-21 में अर्थव्यवस्था शून्य से सात प्रतिशत नीचे चली गई। सरकार कहती है कि कोरोना का असर पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पड़ा है।
यह सच है, पर यह भी सच है कि कोरोना के पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था बदहाल हो चुकी थी। यह बदहाली नोटबंदी के बाद के समय में हुई।