बाज़ार में माल कम हो और मांग ज़्यादा तो क़ीमतें बढ़ती हैं। मांग कम हो तो बाज़ार में माल सप्लाई करनेवालों का कारोबार मुश्किल में आ जाता है। बहुत से कारखानों के लिए कम माल बनाने पर लागत निकालना ही टेढ़ी खीर हो जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि वो लोग माल बनाना बंद करते हैं, कम करते हैं या छोटे कारोबार तो खुद ही बंद होने लगते हैं। हालात ज्यादा बिगड़े तो यही पूरे देश में मंदी का कारण बन जाता है। मुसीबत और बड़ी हो जाती है जब महंगाई और मंदी का खतरा एक साथ खड़ा हो जाए। यानी एक तरफ तो काम धंधे बंद हो रहे हों या न चल पा रहे हों और दूसरी तरफ महंगाई सुरसा की तरह मुंह फाड़ रही हो। इसी को अंग्रेजी में स्टैगफ्लेशन कहा जाता है। स्टैगनेशन यानी ठहराव और इनफ्लेशन यानी महंगाई की जुगलबंदी।
आज के दिन यह बात करने की वजह यह है कि पिछले कई महीनों से दुनिया के अलग अलग हिस्सों में इसी जुगलबंदी की आशंकाएं पैदा होती दिख रही हैं और लगातार यह आशंका बढ़ती जा रही है कि दुनिया एक गंभीर आर्थिक मंदी की चपेट में आ रही है। इस आशंका की सबसे बड़ी वजह तो कोरोना के बाद दुनिया भर में लगे लॉकडाउन और उसकी वजह से पूरी दुनिया में कारोबार के तमाम नट-बोल्ट ढीले हो जाना बताया जाता है। अब यूक्रेन पर रूस का हमला भी इस बीमारी को और बढ़ाने में भूमिका निभा रहा है। ताज़ा अनुमान है कि इस लड़ाई की कीमत यानी इसकी वजह से होने वाला आर्थिक नुकसान लगभग दो लाख अस्सी हज़ार करोड़ डॉलर होगा।
लेकिन अर्थव्यवस्था पर नज़र रखनेवाले विद्वानों का मानना है कि बीमारी की बड़ी वजह भले ही कोरोना और यूक्रेन की लड़ाई हों, मगर उसकी जड़ कहीं और है। 2008 में सितंबर का महीना था जब दुनिया के सबसे बड़े इन्वेस्टमेंट बैंकों में से एक लीमन ब्रदर्स ने दिवालिया होने का एलान किया और न सिर्फ अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया की वित्तीय व्यवस्था को एक तगड़ा झटका दिया। इसके बाद के घटनाक्रम को ही 2008 के कर्ज संकट या वित्तीय संकट के रूप में जाना जाता है। यह एलान होने के पहले और बाद करीब दो साल के दौरान अमेरिकी शेयर बाज़ार में सात लाख करोड़ रुपए स्वाहा हो गए। बेरोजगारी में खतरनाक उछाल आया और वो 10% पर पहुंच गई।
कुल मिलाकर सिर्फ अमेरिका में घरों की कीमत और लोगों के पेंशन खातों में जमा रकम में आई गिरावट का आँकड़ा क़रीब-क़रीब दस लाख करोड़ डॉलर तक पहुँच रहा था। और इसी का असर था कि दुनिया भर के ज़्यादातर शेयर बाज़ार मानो गश खाकर गिर रहे थे। हालाँकि बाद में बाज़ार भी सुधर गए और मकानों की कीमतें भी आखिरकार बढ़ने लगीं। लेकिन जिन लोगों की ज़िंदगी पटरी से उतर चुकी थी उनकी मुसीबतें आज भी ख़त्म नहीं हुई हैं। रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने हिसाब जोड़ा कि दुनिया की जीडीपी को लगभग चार परसेंट का झटका सिर्फ इस संकट की वजह से लगा यानी लगभग दो लाख करोड़ डॉलर की चपत।
खास बात यह है कि भारत इस संकट से क़रीब-करीब अछूता ही रहा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह बताई जाती है कि तमाम लालच और दबाव के बावजूद रिजर्व बैंक गवर्नर वाई वी रेड्डी ने भारतीय बैंकों को एक हद से ज्यादा जोखिम उठाने का मौका नहीं दिया। हालाँकि यह संकट शुरू होने के पहले ही रेड्डी का कार्यकाल खत्म हो चुका था लेकिन फिर भी भारत इस संकट में नहीं फंसा। इसका श्रेय उन्हें ही दिया जाता है।
आज की तारीख में भी सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप और चीन जैसे देश मंदी की चपेट में जाते दिख रहे हैं तो भारत कैसे और कब तक इस ख़तरे से बचा रह सकता है?
सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि 2008 के मुकाबले भारत के बाज़ार और अर्थव्यवस्था दुनिया के दूसरे बाज़ारों से काफी ज्यादा जुड़े हुए हैं। रिजर्व बैंक लगातार अमेरिका और यूरोप के केंद्रीय बैंकों के साथ कदमताल करते हुए ब्याज दरें बढ़ा रहा है। दुनियाभर के शेयर बाज़ारों के साथ ही पिछले एक हफ्ते में भारत का शेयर बाज़ार लगभग दस परसेंट गिर चुका है और डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत में गिरावट भी लगातार जारी है। महंगाई के मोर्चे पर दावा जो भी किया जाए सच यही है कि लंबे समय से खुदरा महंगाई की दर रिजर्व बैंक की तय सीमा से ऊपर चल रही है। यही हाल रहा तो अब आरबीआई गवर्नर को संसद के सामने जाकर इस बात की सफाई भी देनी होगी कि बैंक महंगाई पर काबू करने में क्यों नाकाम है।
यूँ देखने में डॉलर महंगा होना कोई बड़ी बात नहीं लगती। ज्यादातर लोग मानते हैं कि फर्क तो उन्हीं चंद लोगों को पड़ना है जिनके बच्चे विदेश में पढ़ते हैं या जो विदेश यात्राओं और शॉपिंग पर खर्च करते हैं। लेकिन महंगे डॉलर के दो बड़े नुक़सान सामने हैं। एक तो महंगाई बढ़ने की रफ्तार तेज़ हो जाती है क्योंकि भारत का कच्चे तेल का बिल बढ़ने लगता है और दूसरा भारत में विदेशी मुद्रा आने की रफ्तार कम और यहां से जाने की रफ्तार तेज़ हो जाती है। एक्सपोर्टरों को कुछ फायदा ज़रूर दिखता है लेकिन उसकी कसर इंपोर्ट होनेवाली चीज़ों के दाम बढ़ने से निकल जाती है। इसी का नतीजा है कि अप्रैल से जून के बीच भारत का व्यापार घाटा बढ़कर 23.9 अरब डॉलर हो गया है यानी जीडीपी का 2.8%। जनवरी से मार्च के बीच यही आंकड़ा 13.4 अरब डॉलर या 1.5% था। यह व्यापार घाटे का एक नया रिकॉर्ड है, और इस बात की पूरीआशंका है कि जब जुलाई से सितंबर के आंकड़े आएंगे तब वो इस रिकॉर्ड को पीछे छोड़ते हुए ही दिखेंगे।
ऐसे में चिंता बढ़नी स्वाभाविक है। खासकर यह देखते हुए कि एक के बाद एक आर्थिक विशेषज्ञ और संस्थाएँ अमेरिका में गहरी और लंबी मंदी की भविष्यवाणी कर रहे हैं। 2008 की मंदी से पहले ही उसकी चेतावनी देने के लिए मशहूर अर्थशास्त्री नूरिएल रूबिनी का कहना है कि अमेरिका अगले पूरे साल मंदी की चपेट में रहेगा। ब्रिटेन की नई सरकार ने टैक्स कटौती और बाज़ार से बॉंड खरीदने के जो एलान किए हैं उनसे वहां हालात सुधरेंगे या और बिगड़ेंगे यह सवाल खड़ा हुआ है। चीन एक बड़े आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा है, इसमें अब कोई शक नहीं है। हालांकि तमाम ब्रोकरेज और रेटिंग एजेंसी यह कह चुकी हैं कि दुनिया में मंदी के बावजूद भारत के लिए खतरा उतना बड़ा नहीं है बल्कि इसमें भारत के लिए एक बड़ा मौका हो सकता है।
तमाम ब्रोकरेज और रेटिंग एजेंसियों का कहना है कि विकसित देशों के बाहर विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में पैसा लगाने के लिए इस वक्त भारत से बेहतर कोई जगह नहीं दिखती।
लेकिन फिर भी पिछले कुछ दिनों में ही जिस तेज़ी से हालात बिगड़ रहे हैं उनमें भारत की अर्थव्यवस्था पर मंडराते खतरे को नजरंदाज़ नहीं किया जा सकता है। रिजर्व बैंक ने अगले साल जीडीपी में बढ़त का अनुमान घटा दिया है। महंगाई के मोर्चे पर भी उसे कोई राहत मिलने के आसार सिर्फ तब दिखते हैं जब कच्चे तेल के दामों में गिरावट जारी रहे। उधर दिग्गज ब्रोकरेज सीएलएसए ने एक ताज़ा रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि भारत और दुनिया के बाज़ारों में संबंध विच्छेद या डीकपलिंग तो दिख रही है मगर हालात नाज़ुक हैं। उसने तो आशंका जताई है कि भारत के शेयर बाज़ार में भी तीस परसेंट तक की गिरावट आ सकती है।
हालाँकि बाज़ार में तेज़ी और गिरावट से देश की अर्थव्यवस्था का हाल नहीं समझा जा सकता है। लेकिन डॉलर के सामने रुपए की कमजोरी लगातार चिंता बढ़ा रही है। कॉर्पोरेट जगत की तरफ से तो यह मांग भी उठने लगी है कि सरकार गैर ज़रूरी चीजों के आयात पर लगाम कसे और डॉलर को बढ़ने से रोके। लेकिन योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया जैसे अर्थशास्त्री मानते हैं कि सरकार को या रिजर्व बैंक को मुद्रा का भाव तय करने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। रुपए और डॉलर का रिश्ता पूरी तरह बाज़ार के हवाले छोड़ देने से नुकसान कम और फायदे ज्यादा होंगे।
मगर उससे बड़ी चीज़ इस वक्त यह है कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था को फिर तेज़ी देने के लिए ज़रूरी मांग भारत के अपने बाज़ारों में पैदा होगी। अब कंपनियों और विशेषज्ञों की नज़र नवरात्र से शुरू हुए त्यौहारी मौसम पर है। यहाँ से लेकर होली तक लगातार किसी न किसी बहाने बाज़ार में खरीदारी आती है। अगर पिछले दो सालों से हाथ बांधकर बैठे खरीदार इस बार खुलकर बाज़ार में आ गए तो फिर भारत की अर्थव्यवस्था किसी विदेशी हाथ के भरोसे नहीं खुद अपने दम पर खड़ी होती दिखाई देगी।
(साभार - हिंदुस्तान)