‘गुड गवर्नेंस’ के मोदी मॉडल में नागरिकों की आज़ादी पर ग्रहण क्यों?

09:20 am Aug 16, 2020 | अनन्त मित्तल - सत्य हिन्दी

आज़ादी की सालगिरह से ऐन 36 घंटे पहले देश के आयकरदाताओं को कर आतंक से कथित मुक्ति दिलाने की घोषणा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो ‘गुड गवर्नेंस’ का दावा किया उससे बीजेपी सरकार की कार्यशैली पर सवालिया निशान लग रहा है।

छह साल के मोदी-बीजेपी राज में आख़िर आज़ादी और संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों पर शिकंजा क्यों कसता जा रहा है कर आतंक से निजात के दावे के बावजूद राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से आयकर एवं प्रवर्तन निदेशालय के छापों की मार्फत हथियार डलवाने का सिलसिला थम क्यों नहीं रहा 

कोरोना

नागरिक अधिकारों का सबसे व्यापक हनन महामारी के डर से लाखों प्रवासी कामगारों के बीवी-बच्चों के साथ हजारों किलोमीटर पैदल महानगरों से अपने गाँव लौटने के कारण हुआ  है। ताली-थाली बजाने और दिए जलाने में व्यस्त निर्वाचित सरकार की इस नाकामी को पूरी दुनिया ने कलेजा थाम कर देखा। दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र में देश के नागरिकों का महामारी काल में ऐसी तकलीफ़देह यात्रा के लिए मज़बूर होना ऐतिहासिक ज्यादती है। देश के 1947 में बँटवारे के बाद लोगों के इतनी अधिक तादाद में पलायन की पिछले 73 साल में कोई मिसाल नहीं है। 

मीडिया पर अघोषित सरकारी नियंत्रण, प्रतिद्वंद्वी विचारधारा अथवा राजनीतिक दल के सदस्यों के वैचारिक एवं व्यक्तिगत चरित्रहनन के लिए ट्रोल सेना का दुरुपयोग, नागरिकता संशोधन क़ानून बना कर उसके विरोधियों की धरपकड़, धारा 370 ख़त्म करके कश्मीर के भारत संघ में विलय पर वहाँ के नागरिकों को दी गई संवैधानिक गारंटी रद्द करना, प्रतिद्वंद्वी विचारधारा के बुद्धिजीवियों को देशद्रोह के आरोपों में जेल में डालना आदि प्रवृत्तियां दिनोंदिन बढ़ रही हैं। 

लोकतंत्र को कमज़ोर करने की कोशिश

हरेक चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हथकंडे अपनाना, सूचना के अधिकार का गला घोंटना, राज्यों में साम-दाम-दंड-भेद से निर्वाचित सरकार गिरा कर अथवा जनादेश को अपहृत कर बीजेपी की सरकार बनाना, पिछली सरकारों के आर्थिक आँकड़ों में कतर-ब्योंत और अपने शासनकाल के आँकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने जैसे हथकंडे भी लोकतंत्र को कमज़ोर कर रहे हैं। 

हड़बड़ी में नोटबंदी,अव्यवस्थित जीएसटी प्रणाली और लॉकडाउन लागू किए जाने से बैठे रोज़गार और अर्थव्यवस्था की बदहाली से भी देश की जनता त्रस्त है। बीजेपी सरकारों की इन जनविरोधी हरकतों के ख़िलाफ़ जनता पिछले आधा दर्जन विधानसभा चुनावों में स्पष्ट निर्णय सुना चुकी है, मगर उसे भरमाने को रोज नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।

बेंगलुरु हिंसा

कर्नाटक में बेकाबू कोरोना वायरस महामारी की कथित कड़ी बंदिशों के बीच आज़ादी की सालगिरह से ठीक चार दिन पहले 11 अगस्त को राजधानी बेंगलुरु में दलित कांग्रेस विधायक अखंड श्रीनिवास मूर्ति के घर पर रात भर हिंसा और आगजनी का तांडव चलता रहा! भीड़ ने विधायक के घर सहित दो पुलिस थानों और कई गाड़ियों को फूंक दिया। हिंसा में तीन लोग मारे गए और पुलिसकर्मियों सहित कई लोग घायल हैं। उस पर तुर्रा यह कि मुख्यमंत्री बी. एस. येदियुरप्पा अपने प्रशासन की मुश्कें कसने के बजाए हिंसा का ठीकरा विपक्षियों के माथे फोड़ रहे हैं। 

ऐसी जघन्य वारदात पर मुख्यमंत्री राजनीतिक रोटियाँ क्या सिर्फ अपने राज्य में ध्रुवीकरण के लिए सेंक रहे हैं अथवा यह सुदूर बिहार और पश्चिम बंगाल तक फैली बीजेपी की चुनावी रणनीति के तहत है

इससे महामारी पर अंकुश लगाने के लिए कड़ाई के सरकारी दावों की भी पोल खुल गई। यदि रात में आवाजाही पर रोक थी तो विधायक के किसी रिश्तेदार की सोशल मीडिया पर कथित पोस्ट के विरूद्ध पलक झपकते हज़ारों लोग उनके घर में आग कैसे लगाने लगे

पुलिस की नाकामी

उन्हें तितर-बितर करने में राज्य पुलिस रात भर नाकाम कैसे रही  महामारी बेकाबू होने पर बीजेपी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री बी. श्रीरामुलु अपने आठ करोड़ नागरिकों को भगवान भरोसे छोड़ सरकारी नाकामी का इजहार कर ही चुके हैं। वह खुद और उनके आधा दर्जन से ज़्यादा साथी उसकी छूत से ग्रस्त हो अस्पताल की हवा भी खा चुके हैं। 

यदि येदियुरप्पा, उनके प्रशासन और बीजेपी द्वारा इंगित समुदाय हिंसा में शामिल था तो फिर उसी के नवयुवकों को पूरी दुनिया ने हनुमान मंदिर को घेरे उसकी सुरक्षा में तैनात कैसे देखा कोई निर्वाचित सरकार लोकतंत्र के मंदिर यानी विधान सभा में चुने गए विधायकों की ही सुरक्षा में नाकाम साबित हो जाए तो वह ‘गुड गवर्नेंस’ कैसे कहलाएगी 

'ईज ऑफ़ डूइंग बिज़नेस'

क्या देश में प्रौद्योगिकीय अनुसंधान और विकास तथा उससे जुड़ी उद्यमशीलता की राजधानी बेंगलुरु में 'ईज ऑफ़ डूइंग बिज़नेस' के तहत बीजेपी सरकार ने अराजकता की हद तक ढील दे दी है क्या गुड गवर्नेंस का मतलब बीजेपी के लिए गवर्नेंस यानी राजकाज  से ही तौबा कर लेना है कम से कम कर्नाटक में बेकाबू महामारी और हिंसा के आगे प्रशासन के टिके हुए घुटने तो यही जता रहे हैं। 

बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश में भी आए दिन अपहरण, हत्या, कथित पुलिस मुठभेड़ में हत्या, नाबालिगों से बलात्कार के कारण बीजेपी की योगी सरकार पर जंगलराज के आरोप लग रहे हैं।

 उत्तर प्रदेश 

प्रदेश की बाइस करोड़ आबादी के बीच कोरोना महामारी की छूत जिस तेज़ी से फैल रही है उससे विश्व स्वास्थ्य संगठन भी चिंतित है। इसकी वजह है इतनी सारी आबादी की जान पर घिरे ख़तरे के बावजूद छूत की जाँच और उसे रोकने के उपायों में आपराधिक प्रशासनिक ढिलाई। देश के सबसे बड़े राज्य में गाँवों तो क्या शहरों तक में मुँह पर मास्क लगाने और महामारी से बचाव के अन्य उपाय लागू करवाने में प्रशासन सरासर नाकाम है। इसका सबसे बड़ा सबूत अयोध्या में मंदिर के भूमि पूजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्पर्श करके गर्मजोशी से मिलने वाले मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास का कोरोना की छूत से पीड़ित पाया जाना है। 

उत्तर प्रदेश की तरह ही देश भर को सबसे अधिक प्रवासी कामगार मुहैया कराने वाला राज्य बिहार भी महामारी, बाढ़ और अपराध से बेहाल है। देश के तमाम महानगरों और राज्यों की राजधानियों में रिक्शा से लेकर कारखाने तक चलाने वाले बिहारी कामगार अपनी ही मातृभूमि में महामारी के इलाज और बाढ़ से सुरक्षा से महरूम हैं। कायदे से तीन महीने बाद विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े बिहार में नए बने पुलों के पहुँच मार्ग ढह जाने का भी रिकार्ड बन रहा है। आधा दर्जन नए पुलों में ऐसी दुर्घटना के बावजूद मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी उनका उद्घाटन करके वाहवाही लूटने का मौका नहीं गँवा रहे। 

असम

असम में भी महामारी और बाढ़ ने जहाँ प्रशासन, जनता और वन्यजीवों को पानी पिला रखा है वहीं असमिया अस्मिता यानी पहचान तय करने की सिफ़ारिशों के ख़िलाफ़ राज्य में जनाक्रोश भड़कने का अंदेशा घिर रहा है। यह सिफ़ारिश असम समझौते के छठे खंड के तहत बीजेपी गठबंधन सरकार द्वारा गठित समिति के सदस्यों ने जारी कर दी है। यह सिफारिश साल 1980 में असमिया अस्मिता बचाने और घुसपैठियों को भगाने के लिए छिड़े असम आंदोलन की प्रणेता आसू यानी ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने सार्वजनिक की है। आसू के अनुसार समिति ने बीती फरवरी में ही सिफ़ारिश सोनोवाल सरकार को दे दी थी, मगर सरकार 6 महीने से उसे दबाए बैठी है। 

मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल भले ही इन सिफारिशों को दबाने से इनकार करें, मगर इनके ख़िलाफ़ आंदोलन की चुनौती महामारी और बाढ़ से त्रस्त बीजेपी गठबंधन सरकार की मुश्किल और बढ़ा सकती है।

ये सभी सरकारें बीजेपी की हैं। सवाल यह है कि वे ‘गुड गवर्नेंस’ के मॉडल क्यों नहीं बन पाईं। क्यों चारों तरफ़ नफ़रत का वातावरण बन गया है। और क्यों सब को साथ लेकर चलने वाला देश आज सवालों के घेरे में है