सीनियर वकील क्यों कह रहे हैं- जस्टिस यादव पर FIR हो

02:14 pm Jan 18, 2025 | सत्य ब्यूरो

सुप्रीम कोर्ट के 13 सीनियर वकीलों ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव के खिलाफ भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को पत्र लिखा है। पत्र में सीजेआई से विवादित भाषण पर स्वत: संज्ञान लेने का अनुरोध किया गया है। आग्रह किया गया है कि मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए, जस्टिस यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए सीबीआई को निर्देश दिया जाए। वकीलों ने के. वीरास्वामी बनाम यूओआई (1991) मामले में निर्धारित कानून का हवाला दिया है।

सीनियर वकीलों ने कारण बताये हैं कि आखिर सीजेआई को ऐसा क्यों करना चाहिए- “भारत के चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के जजों की नियुक्ति के मामले में एक सहभागी पदाधिकारी हैं (संदर्भ अनुच्छेद 124(2) और 2 17(1))। यहां तक ​​कि एक जज को एक हाईकोर्ट से दूसरे हाईकोर्ट में ट्रांसफर करने के लिए भी चीफ जस्टिस से भारत के राष्ट्रपति को सलाह लेना चाहिए (संदर्भ अनुच्छेद 222)। यदि किसी हाईकोर्ट के जज की आयु के संबंध में कोई सवाल उठता है, तो भारत के चीफ जस्टिस की सलाह के बाद राष्ट्रपति द्वारा उस सवाल पर निर्णय लिया जाएगा ( संदर्भ अनुच्छेद 217(3))। दूसरे, न्यायपालिका का प्रमुख होने के नाते चीफ जस्टिस मुख्य रूप से न्यायपालिका की अखंडता और निष्पक्षता के चिंतित होते हैं।

जिन 13 सीनियर वकीलों ने पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं, उनमें इंदिरा जयसिंह, अस्पी चिनॉय, नवरोज़ सीरवई, आनंद ग्रोवर, चंदर उदय सिंह, जयदीप गुप्ता, मोहन वी. कटारकी, शोएब आलम, आर. वैगई, मिहिर देसाई, जयंत भूषण, गायत्री सिंह और अवि सिंह शामिल हैं। हालांकि जस्टिस शेखर यादव ने स्पष्ट किया है कि वो अपने बयान पर कायम हैं। उन्होंने कुछ भी संविधान विरूद्ध नहीं किया है।

इन सीनियर वकीलों ने कारण बताया है कि वो सीजेआई को ऐसा करने के लिए क्यों कह रहै हैं- भारत के चीफ जस्टिस को किसी जज के खिलाफ विचार किए जाने वाले किसी भी आपराधिक मामले की तस्वीर से बाहर नहीं रखा जा सकता। वह मामले में अपनी राय देने के लिए बेहतर स्थिति में होंगे और भारत के चीफ जस्टिस के साथ सलाह से सरकार को सही नतीजे पर पहुंचने में काफी मदद मिलेगी। सीआरपीसी की धारा 154 के तहत सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट किसी भी जज या चीफ जस्टिस के खिलाफ तब तक मामला दर्ज नहीं किया जा सकता, जब तक कि मामले में भारत के चीफ जस्टिस से सलाह न ली गई हो।

सीनियर वकीलों ने लिखा है- सरकार को चीफ जस्टिस द्वारा व्यक्त की गई राय का उचित सम्मान करना चाहिए। यदि मुख्य न्यायाधीश की राय है कि यह अधिनियम के तहत कार्यवाही के लिए उपयुक्त मामला नहीं है, तो मामला दर्ज नहीं किया जाएगा। यदि भारत का मुख्य न्यायाधीश स्वयं वह व्यक्ति है जिसके विरुद्ध आपराधिक कदाचार के आरोप हैं तो सरकार सर्वोच्च न्यायालय के किसी अन्य जज या जजों से परामर्श करेगी। मुकदमे के लिए मंजूरी देने के सवाल की जांच के चरण में भी इसी तरह का परामर्श होगा और यह आवश्यक और उचित होगा कि मंजूरी का सवाल भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह के अनुसार निर्देशित किया जाए। इसके अनुसार शासन को निर्देश जाएंगे। हमारी राय में, ये निर्देश सभी संबंधित पक्षों की इस आशंका को दूर कर देंगे कि कार्यपालिका अधिनियम का दुरुपयोग नहीं करेगी।''

13 वकीलों ने कहा- सबसे बड़ा मुद्दा "न्यायिक निष्पक्षता" और "संवैधानिक मूल्य" हैं, जिसे बनाए रखने की सभी न्यायाधीशों को शपथ दिलाई जाती है।


पत्र में कहा गया है: "यह सार्वजनिक नोटिस में लाया गया है और व्यापक रूप से बताया गया है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक मौजूदा न्यायाधीश, जस्टिस शेखर यादव ने 8 दिसंबर, 2024 को एक सभा को संबोधित किया था। उक्त सभा विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित की गई थी। विहिप के कानूनी प्रकोष्ठ ने उनके भाषण को रिकॉर्ड किया और व्यापक रूप से प्रसारित किया। जिसे घृणास्पद भाषण के रूप में वर्णित किया गया है, जिसमें ऐसी टिप्पणियाँ शामिल हैं जो असंवैधानिक और एक न्यायाधीश द्वारा ली गई पद की शपथ के विपरीत हैं। "

पत्र में यह भी बताया गया है कि जस्टिस यादव को इलाहाबाद हाईकोर्ट में नियुक्त करने के प्रस्ताव का भारत के पूर्व सीजेआई डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कड़ा विरोध किया था। चंद्रचूड़, जिन्होंने सलाहकार न्यायाधीश के रूप में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था, जिसमें यादव के अपर्याप्त कार्य अनुभव, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के साथ उनके संबंधों का हवाला दिया गया था।

पत्र में आगे लिखा है कि - सबसे महत्वपूर्ण बात, एक (तत्कालीन) भाजपा के राज्यसभा सांसद, जो वर्तमान में केंद्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री हैं, से उनकी (जस्टिस यादव) निकटता है। इसलिए वह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

  • 13 वकीलों ने लिखा है-  "अपने पूरे संबोधन में, जस्टिस यादव ने "हमारी गीता" (हमारी गीता) और "आपकी कुरान" बोला। "हम" और "आप" के बीच एक सख्त और भड़काऊ अंतर बताया। यह स्पष्ट रूप से विभाजनकारी बयानबाजी न्यायिक निष्पक्षता की उपेक्षा करती है, जिसमें जज खुले तौर पर खुद को एक धार्मिक समुदाय के साथ जोड़ते हैं जबकि दूसरे को बेहद अपमानजनक तरीके से चित्रित करते हैं। उनका मुसलमानों के एक वर्ग को कठमुल्ला बताना बेहद परेशान करने वाला है।''

वरिष्ठ वकीलों ने लिखा है- धार्मिक सुधार के अपने संदर्भ में, जस्टिस यादव ने जबरदस्ती और प्रभुत्व का स्वर अपनाया। पत्र में कहा गया है कि यह स्वीकार करते हुए कि हिंदुओं ने सती और छुआछूत जैसी पारंपरिक प्रथाओं में सुधार किया है, उन्होंने मुसलमानों से बहुविवाह और तीन तलाक जैसी प्रथाओं को त्यागने की मांग की। जाहिरा तौर पर, न्यायमूर्ति यादव समान नागरिक संहिता पर टिप्पणी कर रहे थे, लेकिन उनका पूरा भाषण सार्वजनिक मंच पर नफरत फैलाने वाले भाषण जैसा लग रहा था। भाषण कुछ भी अकादमिक, कानूनी या न्यायिक नहीं था।

13 वकीलों ने इस बात पर आपत्ति जताई कि- "इसके अलावा, न्यायमूर्ति यादव ने यह कहते हुए शासन के बहुसंख्यकवादी नजरिये पर जोर दिया कि भारत "बहुसंख्यकों" द्वारा चलाया जाता है, जिसका आदेश लागू होना चाहिए। वकीलों ने कहा- यह संविधान में दर्ज सभी के लिए समानता और न्याय के संवैधानिक वादे का अपमान है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों के वादे का अपमान है।'' पत्र में कहा गया है कि न्यायमूर्ति यादव ने "राम लला" की "मुक्ति" और अयोध्या में मंदिर के निर्माण की बात करते हुए विभाजनकारी कल्पना का भी जिक्र किया, जबकि भारत के "बांग्लादेश" या "तालिबान" में बदलने की निराधार आशंकाओं का जिक्र किया।

वकीलों ने इस बात पर आपत्ति जताई है कि - न्यायमूर्ति यादव ने मुसलमानों को उदारता और सहनशीलता की कमी वाला बताया और आरोप लगाया कि "उनके" बच्चों को हिंसा की प्रवृत्ति के साथ पाला-पोसा किया जाता है।

ऐसी टिप्पणियाँ न केवल तथ्यात्मक रूप से निराधार हैं बल्कि खतरनाक रूप से भड़काऊ भी हैं। जस्टिस यादव ने यह तक कहा कि हिंदू धर्म में सहिष्णुता के बीज थे जो इस्लाम में नहीं हैं।

वकीलों ने जस्टिस यादव के भाषण का पैराग्राफ भी पत्र में लिखा है- “हमें सिखाया जाता है कि... एक चींटी को भी नहीं मारना चाहिए। शायद इसीलिए हम सहिष्णु और उदार हैं। हमें किसी का कष्ट देखकर कष्ट होता है... किसी को कष्ट देखकर पीड़ा होती है... पर आपके अंदर नहीं होती है... क्यों? क्योंकि जब हमारे समुदाय में कोई बच्चा पैदा होता है, तो उसे बचपन से ही भगवान, वेद और मंत्रों के बारे में सिखाया जाता है... उन्हें अहिंसा के बारे में बताया जाता है... लेकिन आप के यहां तो बचपन से बच्चे सामने रख कर के वध किया जात है जानवरों का।... तो आप कैसी अपेक्षाएं करते हैं कि साहसी होगा वो...उदार होगा वो। आप उस व्यक्ति से सहिष्णु, दयालु बनने की उम्मीद कैसे करते हैं?”

इस पत्र जस्टिस बी.आर. गवई, सूर्यकांत, हृषिकेश रॉय और अभय एस. ओका को भी भेजी गई है। ये सभी CJI की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के सदस्य हैं।