भारतीय जनता पार्टी के सांसद बृजभूषण शरण सिंह (कैसरगंज, उत्तर प्रदेश) के खिलाफ महिला कुश्ती खिलाड़ियों द्वारा लगाए गए आरोपों के बाद और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज की गई FIR की कॉपी सामने आई है। भाजपा सांसद के खिलाफ़ दो FIR दर्ज की गईं हैं जिनमें से एक, नाबालिग लड़की से यौन उत्पीड़न के संबंध में है जिसके बाद बृजभूषण पर पॉक्सो कानून, 2012 के तहत मामला दर्ज किया गया था। अन्य मामले में बृजभूषण पर भारतीय दंड संहिता में यौन उत्पीड़न से जुड़ी धाराओं 354, 354A, 354D के तहत मामला दर्ज हुआ है। बच्चों के यौन उत्पीड़न से संबंधित पॉक्सो ऐक्ट 2012 की जिस धारा(10) के तहत FIR की गई है वह 'ऐग्रवेटेड सेक्शुअल असॉल्ट' यानी 'गंभीर यौन हिंसा' के अंतर्गत आता है। इसके तहत आरोप सिद्ध होने पर 5 से 7 साल तक की सजा का प्रावधान है। इतने गंभीर आरोपों के बावजूद भाजपा सांसद बृजभूषण को गिरफ्तार नहीं किया गया है।
अब तक गिरफ़्तारी न होने का दंभ ही है कि बृजभूषण ने 18 मई को ऐलान किया कि वह अयोध्या के रामकथा पार्क में जन चेतना रैली करेंगे ताकि पॉक्सो ऐक्ट 2012 की कमियों को लेकर एक आंदोलन किया जा सके। उनका दुस्साहस यहीं नहीं रुकता, वह 24 मई को एक फेसबुक पोस्ट पर लिखते हैं कि 5 जून की रैली अयोध्या और देश के संतों व महापुरुषों के सान्निध्य में होगी। बृजभूषण ने 5 जून की आगामी रैली को "पूज्य पीठाधीश्वर और पूज्य संतों की ओर से प्रस्तावित मांग का एक ज्ञापन" बताया। बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए लाए गए पॉक्सो ऐक्ट-2012 के खिलाफ आयोजित की जाने वाली रैली के पोस्टर पर बेशर्मी से मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तस्वीर उकेरी गई और लिखा गया कि “देश के पूज्य संतों के आह्वान पर, 5 जून अयोध्या चलो, जन चेतना महारैली....”। यद्यपि यह रैली अब दबाव में रद्द कर दी गई है।
FIR में महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न का जो विवरण सामने आया है वह मन को व्यथित कर देने वाला है। महिलायें खुलकर बता रही हैं कि भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने उनका कब और कैसे-कैसे यौन उत्पीड़न किया। इतने गंभीर विवरण के बाद भी दिल्ली पुलिस द्वारा भाजपा सांसद को गिरफ्तार न किया जाना इस बात की ओर संकेत करता है कि भाजपा सांसद को समर्थन देने वाला कोई बड़ा नेता है जहां से उसे गिरफ्तार न किए जाने का लगातार आश्वासन मिल रहा है और उसी नेता की वजह से दिल्ली पुलिस सांसद महोदय को गिरफ्तार करने का साहस नहीं जुटा पा रही है।
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इतने गंभीर और शर्मनाक मामले में बृजभूषण को अयोध्या के संतों का साथ मिलना ऐतिहासिक है। यह ऐसा इतिहास है जो दशकों तक साधु संतों को शर्मसार करता रहेगा। जिन संतों-महंतों ने महिला पहलवानों के आरोपों पर संदेह व्यक्त करते हुए बृजभूषण की बात को सत्य मान लिया है उनकी चेतना पर मुझे संदेह है।
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आखिर ये कैसा दर्शन और धर्म है जिसमें शोषित की बात सुने बिना ही शोषणकर्ता को समर्थन प्रदान कर दिया जाता है।
ऐसे संतों-महंतों ने एक बार भी जंतर-मंतर जाकर महिला पहलवानों का पक्ष जानने की कोशिश नहीं की लेकिन निर्णय सुनाने की सनक में ब्रजभूषण के साथ जाकर खड़े हो गए। मैं इन्हे न ही हिन्दू धर्म का मानती हूँ, न ही सनातन परंपरा से और न ही यह मानती हूँ कि इन्हे अब अयोध्या की पावन धरती पर 10 सेकंड भी रुकने का नैतिक अधिकार है। जो महंत यह नहीं समझ पा रहा है कि पहलवानों ने ‘तब’ विरोध क्यों नहीं किया?, और यह कि पहलवान तो शक्तिशाली होते हैं इनका शोषण कैसे हुआ? ऐसे महंतों को तवज्जो देना शब्दों के साथ अपराध होगा।
शायद महंत भूल गए होंगे या उनकी जानकारी में नहीं होगा कि सालों तक शोषण के बाद भी आसाराम को 2013 में पकड़ा जा सका इसके पहले तो वह हर राजनैतिक दल के लिए मसीहा था। आखिर ऐसे मसीहा के खिलाफ कौन आवाज उठाता? लेकिन यह मसीहा और इसका बेटा दोनो पॉक्सो ऐक्ट के तहत बलात्कार के आरोप में आजीवन उम्र कैद की सजा काट रहे हैं। आसाराम, तथाकथित साधु, वही आदमी है जिसने निर्भया जैसे बलात्कार के मामले में निर्भया पर ही आरोप लगा दिया था। जनवरी 2013 में अपने ‘भक्तों’ को संबोधित करते हुए आसाराम कहता है कि "पीड़िता उतनी ही दोषी है जितनी उसका बलात्कारी... उसे दोषियों को भाई कहकर बुलाना चाहिए था और उनसे रुकने के लिए विनती करनी चाहिए थी... इससे उसकी गरिमा और जीवन बच सकता था। क्या एक हाथ से ताली बज सकती है? मुझे ऐसा नहीं लगता!" इससे अधिक बेशर्मी वाला बयान नहीं हो सकता!
अयोध्या के संत समाज को अपना समर्थन किसी भी ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहिए जो भारत की 50% आबादी की गरिमा से जुड़ा हुआ हो। मुझे डर है कि ऐसे समर्थन संत समाज को विलुप्त होने में मदद करेंगे, धर्म में लोगों की आस्था को कम करेंगे और लोग नास्तिकता की ओर अग्रसर होते जाएंगे। 2017 का उन्नाव बलात्कार मामला जिसमें लंबे समय तक भाजपा के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को समर्थन किया जाता रहा, बदायूं बलात्कार मामला, कठुआ बलात्कार मामला (2018), हैदराबाद बलात्कार मामला (2022) और मुजफ्फरपुर, बिहार का शेल्टर कांड सभी पॉक्सो ऐक्ट के अंतर्गत दर्ज किए गए मामले हैं। इन सभी में नाबालिगों का यौन शोषण और बलात्कार किया गया है। ऐसे लोगों को शक्ति और समर्थन देने का कारण है कि ऐसे अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं।
भारत में हर रोज लगभग 86 बलात्कार हो रहे हैं (NCRB,2021), संतों को समर्थन देने से पहले एक बार सोचना चाहिए था।
भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने कहा कि पॉक्सो ऐक्ट समाज का कैंसर बनता जा रहा है। इसमें संशोधन का दुस्साहस करते हुए वह कहते हैं, “ छेड़ने, घूरने या स्पर्श करने जैसे आरोप, जिनकी प्रामाणिकता स्वयं ही संदिग्ध रहती है, ऐसे मामलों में आरोप के आधार की जांच किए बिना व्यक्ति को अपराधी मानकर दंड देना न्यायोचित नहीं है।” जिस कानून को भारतीय संसद ने बनाया उसमें संशोधन करने के लिए साधु समाज का समर्थन मांग रहे बृजभूषण शरण सिंह को संसद सदस्यता त्याग कर साधु ही बन जाना चाहिए और तब ‘कानून बदलना है’ का जाप उन पर जँचेगा लेकिन अभी यह ठीक नहीं है। बृजभूषण यह जानते हैं कि छेड़ने और घूरने को साबित नहीं किया जा सकता इसीलिए स्वयं को पहले से निर्दोष मान बैठे हैं लेकिन बृजभूषण शायद यह नहीं जानते कि दोनो सदन और इस विधेयक पर हस्ताक्षर करने वाले भारत के प्रथम नागरिक अर्थात राष्ट्रपति भी जानते रहे होंगे कि यह साबित नहीं हो सकेगा इसके बावजूद दोनो सदनों ने अपनी सहमति दी और राष्ट्रपति ने अपने हस्ताक्षर किए। इसका अर्थ है कि लोकसभा और राज्यसभा में बैठे प्रतिनिधियों ने यह मान लिया होगा कि ऐसा आरोप लगने पर कानून को महिलाओं के साथ और उनके पक्ष में झुकना और खड़ा होना होगा।
ब्रजभूषण को यह यह भी जानना चाहिए कि कोई भी कानून खासकर ऐसा कानून जो समाज के संवेदनशील और वंचित वर्ग से संबंधित होता है, इतनी आसानी से अपनी मंजिल पर नहीं पहुंचता। महिलाओं के यौन शोषण का ही मामला ले लीजिए। 1992 में राजस्थान में भँवरी देवी नाम की सामाजिक कार्यकर्ता ने एक साल के बच्चे का बाल-विवाह होने से रोकने में अपनी भूमिका निभाई। समाज के रूढ़िवादी ढांचे को यह पसंद नहीं आया जिसकी कीमत भँवरी देवी को अपने साथ हुए गैंग-रेप से चुकानी पड़ी। जब यह मामला 1997 में सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा तो न्यायालय ने कार्यक्षेत्र में महिलाओं के यौन शोषण को लेकर ‘विशाखा दिशानिर्देश’ जारी किए।
इन्ही निर्देशों को कानूनी प्रतिबद्धता प्रदान करने के लिए विस्तृत रूप में यूपीए सरकार द्वारा यौन उत्पीड़न से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2013 पारित किया गया। इस अधिनियम में प्रावधान किया गया कि भारत के प्रत्येक सरकारी अथवा निजी संगठन/कंपनी/शाखा/ऑफिस जिसमें 10 या इससे अधिक कर्मचारियों की संख्या है उन्हे अनिवार्य रूप से आंतरिक शिकायत समितियों(ICCs) का गठन करना आवश्यक है। यौन उत्पीड़न की अवस्था में यही समितियाँ प्राथमिक जांच करती हैं। ताज्जुब यह है कि भारत में इस समय 30 राष्ट्रीय खेल फेडरेशन हैं लेकिन इनमें से 16 में आंतरिक शिकायत समिति आजतक बनी ही नहीं है। यही हाल भारतीय कुश्ती महासंघ(WFI) का है। WFI के अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह पर महिला पहलवानों ने यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगाए हैं। लेकिन WFI में कानून द्वारा निर्देशित शिकायत समिति नहीं है।
बृजभूषण 2012 से लगातार WFI के अध्यक्ष हैं और समितियाँ बनाने के लिए कानून 2013 से लागू है। 2014 में सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने इस बात की सुध नहीं ली कि कानून का पालन हो रहा है कि नहीं। वर्तमान खेल मंत्री अनुराग ठाकुर 2021 से इस मंत्रालय में हैं लेकिन उन्हे याद नहीं आया कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए कानून में वर्णित शिकायत समितियों का गठन करवाया जाए। संसद द्वारा पारित कानून का पालन करवाने में विफल रहने के कारण खेल मंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिए और जिन खेल फेडरेशन में शिकायत समितियाँ नहीं बनीं हैं उन्हे भंग करके फिर से बनाना चाहिए क्योंकि ऐसे फेडरेशन अवैध हैं, गैर कानूनी हैं।
कॉंग्रेस और राहुल गाँधी के मुद्दे पर हर दिन टीवी पर दिख जाने वाले खेल मंत्री महिला पहलवानों के साथ खड़े नहीं दिखे। युवा और खेल मंत्रालय जैसी जिम्मेदारी के बावजूद उन्हे कभी बेरोजगारों और प्रदर्शनकारी छात्रों के बीच बातचीत करते नहीं देखा गया। राहुल गाँधी की हर बात को भारत की छवि से जोड़ देने वाले खेल मंत्री क्या भारत की जनता को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बताएंगे कि आखिर ‘एशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप-2023’ जो नई दिल्ली में होने वाली थी उसका स्थान बदलकर अस्ताना, कजाखस्तान क्यों कर दिया गया है? खेल मंत्री नहीं बताएंगे कि मंत्रालय द्वारा यौन उत्पीड़न की जांच के लिए बनाई गई ‘ओवरसाइट कमेटी’ की अधूरी जांच को अपना आधार बनाते हुए आयोजन भारत में रद्द कर दिया है।
वास्तव में ऐसी घटना भारत की छवि को धूमिल करती हैं। यह पूरी दुनिया में ऐसा संदेश भेज रही है कि भारत महिलाओं की सुरक्षा को लेकर न ही सतर्क है और न ही गंभीर। 28 मई को जिस दिन भारत में नए संसद भवन का उद्घाटन हो रहा था उस समय दिल्ली पुलिस देश के लिए ओलिम्पिक मेडल लाने वालों को पीट और घसीट रही थी। देश की छवि खराब हो रही थी, क्या सरकार को फिक्र है? यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग और इंटरनेशनल ओलिम्पिक कमेटी अपनी अपनी प्रतिक्रिया दे रही हैं, भारतीय कुश्ती संघ की मान्यता रद्द हो सकती है, क्या सरकार को भारत की छवि की चिंता है? मुझे नहीं लगता कि सरकार को ऐसी कोई चिंता है। सरकार को सिर्फ इस बात की चिंता है कि कोई उसके खिलाफ प्रदर्शन न करने पाए और यदि कोई प्रदर्शन करेगा तो उसकी बात को अनसुना कर दिया जाएगा। ऐसा लगता है मानो प्रदर्शन करना, सिस्टम की खामियों को उजागर करना अपने आप में कोई अपराध हो!
नए भारत में नया भ्रम यह पैदा किया जा रहा है कि वर्तमान सरकार के खिलाफ कोई प्रदर्शन करना, उसकी आलोचना करना आदि अपने आप में भारत की आलोचना है। एक अनंत और अनवरत भारत के पीछे एक व्यक्ति, दल या संगठन को छिपाने की कोशिश भारत की गरिमा को चोट पहुंचाने का कार्य है। ‘एक नेता’ की मोनोलॉग की प्रवृत्ति को पोषण देने के लिए भारत के लोकतान्त्रिक मूल्यों को हवनकुंड में डालना उचित नहीं है। भारत एक स्वतंत्र और स्वयंप्रभु राष्ट्र है, नेतृत्व की कमी यहाँ नहीं हो सकती। यदि एक व्यक्ति देश का नेतृत्व करने में खुद को असक्षम महसूस कर रहा है तो उसे हटा दिया जाना चाहिए। एक व्यक्ति जो अपने ‘मन की बात’ में इतना व्यस्त है कि उसे देश की आधी आबादी यानि महिलाओं की समस्याओं में सिर्फ ‘चूल्हा’ दिखा!
नए भारत में देश की सबसे सशक्त महिलाओं की तस्वीर यह है कि देश की राजधानी में पुलिस द्वारा उन्हे घसीटा और पीटा जाता है, सभी देशों के दूतावास अपने अपने देशों में क्या सूचना भेज रहे होंगे? यही कि भारत में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” एक चुनावी जुमला भर है, संस्कृति के नाम पर नागरिकों को ठगने का जरिया मात्र है। विभिन्न सभ्य विकसित देश चुप हैं ताकि एक स्वयंप्रभु राष्ट्र अपनी समस्याओं को अपने आप सुलझा ले लेकिन यहाँ तो एक यौन उत्पीड़न के आरोपी सांसद को बचाने में पूरी सरकार ने मोर्चा खोल दिया है। पूरी दुनिया देख रही है, अंतर्राष्ट्रीय राष्ट्रीय संगठन प्रतिक्रिया दे रहे हैं लेकिन एक व्यक्ति है जो खामोश है और प्रतिबद्धता के साथ अपनी रैलियों और उद्घाटनों में लगा हुआ है। कोई उसे आधुनिक नीरो कहना चाहता है लेकिन मैं उसे नीरो नहीं कहूँगी क्योंकि हमने उसे चुनकर भेजा है।
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भारत के संविधान ने ‘लोगों’ को सर्वोच्च माना और लोगों ने ही उसे चुनकर भेजा इसलिए लोकतंत्र की दीवारों के बीच उसका सम्मान आवश्यक है। लेकिन अब वक्त है कि उसे बदला जाए नहीं तो वह भारत को बदल देगा कुछ इस तरह कि हर भारतवासी को दशकों तक शर्म का सामना करना पड़ेगा।
देश की महिलायें परेशान हैं, एक सत्ताधारी सांसद उनका यौन शोषण कर रहा था और वो शिकायत तक नहीं कर सकीं। जब शिकायत की तो कोई सुन नहीं रहा है। विपक्ष का सबसे कद्दावर नेता खुलकर कह रहा है कि उसका फोन सुना जा रहा है। भारत के मीडिया की रगों में सरकारी नोट ठूंस दिए गए हैं, रीढ़ को स्थायी रूप से झुका दिया गया है, वह दुनिया का सबसे निम्नस्तरीय मीडिया बन चुका है। कमजोरों और वंचितों की आवाज उठाना तो दूर उनका जिक्र तक नहीं होता। मीडिया उस अशिष्ट यज्ञ में खुद की आहुति दे चुका है जिसका उद्देश्य एक व्यक्ति को देश, समाज, इतिहास और संविधान से भी बड़ा बनाना है।
किसी खिलाड़ी को देश के युवाओं ने भगवान मान लिया, तो किसी अभिनेता को लोगों ने भगवान बना दिया, उनके मंदिर और आरती गाई गईं, उन्हे दिल से सम्मान दिया गया। इन सबके घरों में बेटियाँ हैं लेकिन मजाल है कि कोई भी एक शब्द यौन उत्पीड़न झेल रही महिला पहलवानों के पक्ष में बोल दे। बहुत देर से पता चला इनमें से कोई भगवान नहीं था, इनमें से कोई आइकन बनने लायक ही नहीं था। ये सब प्रोफेशनल थे, अपने प्रोफेशन में अच्छा किया, कमाया और अब अपनी जिंदगी जी रहे हैं। सरकार और सत्ता के शोषण के खिलाफ बोलना मैच जीतना नहीं, फिल्म हिट करवाना नहीं बल्कि अपने डर और सुविधाओं के दायरे से आगे निकलना है जो भारत में देखने को नहीं मिलता। हाल में नीरज चोपड़ा, शिवा केशवन, अभिनव बिंद्रा, कपिल देव, मदन लाल, अनिल कुंबले और सुनील गावस्कर जैसे कुछ खिलाड़ियों द्वारा समर्थन और रोष जताया गया है लेकिन तथाकथित लोकप्रिय भगवानों की ओर से खामोशी के अतिरिक्त कुछ नहीं आया।
हिन्दी के सरकार समर्थक अखबार जोर शोर से ऐसे लेखों को छापने की कोशिश कर रहे हैं जिनसे महिलाओं द्वारा लगाए जाने वाले यौन उत्पीड़न के आरोपों की मशाल में पानी फेरा जा सके। महिलाओं पर शक पैदा किया जा सके और महिलाओं का समर्थन करने वालों को ‘छद्म नारीवादी’ कहकर हतोत्साहित किया जा सके। लेकिन महिलाओं के शोषण को नकारने के लिए इन झूठे हिन्दी अखबारों को लगातार 100 वर्षों तक काम करना होगा क्योंकि शोषण की कहानियाँ छद्म सरकारी लेखों के ऊपर चढ़कर चीख रही हैं उन्हे अनसुना करना असंभव है।
जो सबसे दुखद है वह यह कि संसद, न्यायपालिका, मीडिया में महिलाओं का बेहद कम प्रतिनिधित्व इस समाज को पुरुषों का ही समाज बनाता है। यहाँ तक कि टीवी डिबेट कार्यक्रमों में महिलाओं की न के बराबर संख्या महिलाओं के दृष्टिकोण को सामने ही नहीं ला पाती। पुरुषों को बुरा लग सकता है लेकिन जिस समाज में न जज, न वकील, न नेता, न मीडियाकर्मी और न ही कोई आम नागरिक लैंगिक-संवेदनशीलता को समझता हो वह समाज पुरुषों का ही रहने वाला है। क्या यह लैंगिक-असंवेदनशीलता नहीं कि एक उच्च न्यायालय का न्यायधीश रेप पीड़िता को न्याय देने के बजाय उसकी और आरोपी की कुंडली में मांगलिक दोष की जांच करवा रहा है ताकि उनकी शादी कारवाई जा सके!
यह नियम किसने बनाया कि रेप पीड़िता की शादी करवानी है? मुद्दा यह है कि लैंगिक-संवेदनशीलता का अभाव है। जिसको देश सौंपा गया वह स्वयं में मशगूल है जिन्हे संविधान सौंपा गया वह ‘न्याय की प्रक्रिया’ में मशगूल हैं और जिन्हे भगवान बना दिया गया वह अपने अपने मंदिरों से बाहर नहीं निकलना चाहते। पुरुषों के ऐसे वर्चस्व को चुनौती देने वाली ताराबाई शिंदे लगभग 150 साल पहले अपने निबंध ‘स्त्री-पुरुष तुलना में भगवान से प्रश्न पूछते हुए लिखती हैं-
"देवताओं! मुझे आपसे कुछ पूछना है, आप सर्वशक्तिमान और सभी के लिए स्वतंत्र रूप से सुलभ माने जाते हैं। आपको पूरी तरह से निष्पक्ष कहा जाता है। इसका क्या मतलब है कि आप कभी भी पक्षपाती नहीं थे? लेकिन क्या यह आप नहीं थे जिसने स्त्री और पुरुष दोनों को बनाया? फिर आपने केवल पुरुषों को ही सुख क्यों दिया और स्त्रियों को सिवाय पीड़ा के कुछ नहीं?आपकी इच्छा पूरी हुई! लेकिन युगों-युगों से महिलाओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा है।"
ताराबाई शिंदे की आवाज और प्रश्न न सिर्फ खामोश सरकारों को खरोंचती है बल्कि उन दीवारों पर भी ठोकर मारती है जहां भारतीयों द्वारा बनाए गए भगवान और शास्त्रों द्वारा बनाए गए भगवान जाकर अनंत नींद में सो चुके हैं जबकि औरतें पीड़ा सहने के लिए अभिशप्त हैं।