जार्ज साहब अर्थात जार्ज फ़र्नांडिस का जाना हमारी मौजूदा राजनीति के एक दौर का अंत है। मौजूदा मतलब आज़ादी के बाद की राजनीति। जार्ज शुद्ध रूप से आज़ादी के बाद की राजनीति की पैदाइश थे, खिलाड़ी थे, कप्तान बनने की काबिलियत रखते थे। यह राजनीति जैसी बनी और चली, उसमें उनका बड़ा योगदान था। और इस राजनीति से जिन सबसे प्रतिभावान लोगों का नुक़सान हुआ उसमें भी जार्ज सबसे आगे थे।
जो शख़्स कर्नाटक में पैदा हुआ हो, मुंबई को अपना अखाड़ा बनाए और जेल से बिहार की एक अनजान सीट से रिकार्ड वोट से जीता हो और बाद में वही शख़्स एक सीट के लिए अपने सारे सिद्धांतों से समझौता करता दिखे तो इससे ज़्यादा बेचारगी और क्या होगी।
बहुत कुछ करना चाहते थे जॉर्ज
जीवन भर घर-परिवार की परवाह न करने वाला नेता अगर आख़िरी वर्षों में बीमारी और उससे भी ज़्यादा परिवार की ‘कै़द’ में गुजारे तो यह उसके लिए दुखद ही है। पर इन सबसे न तो जॉर्ज का क़द घटा और न ही उनका महत्व। उनकी वैचारिक छटपटाहट तो यही बताती है कि वह और भी बहुत कुछ करना चाहते थे।
नहीं रहे जॉर्ज: पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का निधन
इस लेखक के लिए चालीस साल से ज़्यादा का समय उनकी धारा की वैचारिक राजनीति में कभी प्रेम, कभी लड़ाई करने के बाद उनका जाना यह काफ़ी कुछ निजी नुक़सान भी लगता है। जॉर्ज का संपादन, विषयों की समझ, उनकी लिखी कॉपी (ख़ासकर अंग्रेजी) और कई मामलों में उनकी अद्भुत समझ हैरान करने वाली थी और इतने लम्बे पत्रकारीय जीवन में इस लेखक को वैसे गुण कम संपादकों में दिखे।
फ़ोटो साभार दिनमणि.कॉम
बेचैन आत्मा थे
जॉर्ज की भाषण कला तो शायद आज़ाद भारत के सबसे आगे के नेताओं वाली थी। माना जाता है कि पहले सुभाष बाबू भी इसी तरह का भाषण देते थे। पर जिस हालत में वह पिछले कई वर्षों से पड़े थे, यह समय उनकी शख़्सियत के हिसाब से लंबा लग रहा है। वरना जार्ज जिंदा हों और इतने वर्ष तक कुछ बड़ा न हो यह असम्भव था। जार्ज बेचैन आत्मा थे और चैन से बैठ ही नहीं सकते थे।
परिवार, समाज से की बग़ावत
कर्नाटक के एक पादरी परिवार के इस व्यक्ति ने परिवार से, समाज से बग़ावत करके ही समाजवादी राजनीति शुरू की, वह भी मुंबई में। और सीधे एस. के़ पाटिल से भिड़े और उन्हें धूल चटा दी। जार्ज तब क्या रहे होंगे, इसकी एक झलक तब भी दिखी जब इन्दिरा गाँधी रायबरेली से चुनाव हारने के बाद कर्नाटक के बेल्लारी से उपचुनाव लड़ने गईं और तब जार्ज साहब ने विपक्ष का अभियान संगठित किया।
प्लास्टिक की बाल्टी में एक-एक नोट का चंदा जमा करते वह किसी भी भीड़ में घुस जाते थे और दिन या रात का अंतर समझने को तैयार न थे। उनमें भाषण देने का गुण तो था ही, नई जगह पर संगठन खड़ा करने की क्षमता भी दिखती थी। मुंबई में जमने और राजनीति जमाने के तो उनके अनगिनत किस्से हैं पर वह चुनाव लड़ने मुंबई नहीं गए थे।
अपना झंडा गाड़कर ही माने
जार्ज साहब को तो वहाँ ट्रेड यूनियन बनानी थी और सारे स्थापित दलों जिनमें कम्युनिस्ट और कांग्रेस से जुड़ी यूनियनों के बीच उन्होंने न सिर्फ़ अपना झंडा गाड़ा बल्कि टैक्सी मेंस यूनियन के लिए बैंकिंग, सहकारी दुकान और गाड़ियों के मेंटेनेंस की सहकारी व्यवस्था शुरू की।
मुंबई की टैक्सी सेवा और टैक्सी वालों का संगठन आज भी सबसे अलग है। आज मजदूर आंदोलन के पस्त होने और जॉर्ज साहब की अपनी राजनीति के ‘द एंड’ तक पहुँचने के बावजूद उनके आंदोलन के ये पौधे लहलहा रहे हैं।
इंदिरा को कराया ताक़त का अहसास
जार्ज साहब की यूनियन पॉलिटिक्स का असली रंग रेलवे मज़दूरों के बीच और 1974 की देशव्यापी हड़ताल में दिखा जिसने सबसे ज़्यादा असर डाला ‘आयरन लेडी’ इंदिरा गाँधी पर। उसके बाद से आज तक 45 वर्षों में फिर वैसी कोई हड़ताल नहीं हुई और आज भी उनकी यूनियन रेल कर्मचारियों में लोकप्रिय है।
फ़ोटो साभार - द हंस इंडिया
जब जार्ज साहब की टोली ने इंदिरा से लड़ाई में मुल्क को गरमाने के लिए बम की पॉलिटिक्स (जैसा समाजवादियों ने 1942 में किया था) करनी चाही तो उन्हें और उनके साथियों को बड़ोदा डायनामाइट केस में उलझाया गया। उन पर देशद्रोह का मुक़दमा चला, सख़्त ज़ेल हुई, जंजीरों में जकड़े गए। उनके दर्ज़न भर साथियों, जिनमें जूनियर जसवीर सिंह भी थे, को क्या-क्या जु़ल्म नहीं सहने पड़े।
फ़ोटो साभार ट्विटर
जेल से चुनाव जीते जार्ज
इसके बाद जार्ज जेल से ही चुनाव जीते, जंजीरों में जकड़े जार्ज की तसवीर ने कांग्रेस के एक और दिग्विजयी को परास्त कर दिया वह भी तीन लाख से ज़्यादा वोटों से। वह अपने परिचित इलाक़े मुंबई, बेंगलुरू या दिल्ली से नहीं बल्कि सुदूर बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर से लड़े और जीते थे जहाँ उनका सिर्फ़ कट-आउट ही घूमा था।
नहीं छोड़ा मुज़फ़्फ़रपुर का मोह
घनघोर जातिवादी राजनीति (पहले राजपूत बनाम भूमिहार और बाद में अगड़ा बनाम पिछड़ा) का अखाड़ा जार्ज का अपना बन गया जबकि वहाँ दस-बीस क्रिश्चियन वोट नहीं होंगे। वह उनका नया ठिकाना बना जो आख़िर तक मन में बसा रहा। कमज़ोर होकर भी वह वहीं से लड़े, जमानत जब्त कराई पर मुज़फ़्फ़रपुर का मोह नहीं छोड़ा।
जार्ज कांटी का बिजलीघर ले आए पर चला नहीं। पर इस बार की जीत और रेल मंत्री बनना जार्ज को बदलने वाला भी साबित हुआ। जनता पार्टी की टूट के समय एक दिन पहले मोरारजी सरकार के पक्ष में और दूसरे दिन चरण सिंह के पक्ष में भाषण देकर जार्ज ने एक नए तरह का इतिहास बना डाला।
सत्ता की राजनीति बनी अहम
पहले और बाद में भी जॉर्ज ऐसे न थे। उनके यहाँ तो गुरुजी जैसा साथी या पात्र रहता था जो खाता-पीता रहता था वहाँ और दिन भर मजे से जॉर्ज की आलोचना करता था। उनके सबसे भरोसेमन्द लोगों में विनोदानंद प्रसाद सिंह, शरद राव, विजय नारायण और चंचल भी थे जिन्हें जॉर्ज की भक्ति से परहेज रहा। पर साफ़ लगता है कि यहीं से जॉर्ज अपने लिए लोगों की राजनीति को नीचे करके सत्ता की राजनीति को ऊपर ले आए। कोई वंशवाद नहीं किया, कोई साम्राज्य नहीं बनाया, स्विस बैंक का खाता नहीं खोला, हत्या/दंगा नहीं कराया, बेटे-बीबी को आगे नहीं किया लेकिन सत्ता की चिंता ऊपर हो गई।
जार्ज के लिए यूनियन का काम, संसद के अन्दर का काम, लोगों के बीच जाने का काम, मुल्क की राजनीति के ज़रूरी मुद्दे पहचानकर लड़ने-भिड़ने का काम अब पीछे चला गया। शायद उन्हें सत्ता से ही सामाजिक बदलाव का भरोसा हो गया हो।
वाजपेयी और आडवाणी के साथ जार्ज
एनडीए भी जॉर्ज ने ही बनाया
इस खेल में भी जॉर्ज खू़ब खेले। खू़ब स्कोर किया। चरण सिंह को आगे करके लोक दल की राजनीति की तो बीजेपी से हाथ मिलाकर उसका अछूतपना दूर किया। बीजेपी को दो सीटों से बढ़ाकर सत्ता तक लाने में जॉर्ज के बनाए गए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का कितना बड़ा हाथ है, यह तो इतिहासकार तय करेंगे ही, अभी की राजनीति के भी काफ़ी लोग बता देंगे।
अगर जार्ज न होते तो एनडीए न होता, अटल बिहारी की सरकार न बनती, बीजेपी को कोई राम मंदिर, धारा 370 और कॉमन सिविल कोड से दूर न करता। हो सकता है बीजेपी नेतृत्व भी यह चाहता हो और जार्ज ने बहाना उपलब्ध करा दिया हो, पर यह हुआ है।
इस दौर में जार्ज साहब ने अपनी पुरानी पत्रिका ‘प्रतिपक्ष’ को लगातार निकाला, बर्मा के आंदोलनकारियों, तिब्बत के आंदोलनकारियों, श्रीलंका में मानवाधिकार हनन के सवाल को, पूर्वोत्तर के बाग़ी गुटों को उनका समर्थन जारी रहा। बंगले का एक कमरा भर उनका अपना होता था, बाक़ी सब ऐसे ही जमातोँ और साथियों का रहता था।
बदले हुए जार्ज का असर साफ़ दिखने में वक़्त नहीं लगा। हालत यह हो गई कि गुजरात नरसंहार के बाद जार्ज ने दंगाइयों के पक्ष में बोलते-बोलते गर्भवती औरतों का पेट फाड़ने जैसी घटनाओं को भी ‘पहली बार नहीं हुआ’ बताने में कोताही नहीं की।
पत्नी, पुत्र की निगरानी में रहे
आख़िरी बार एक सेमिनार में उनको देखा तो वह व्हीलचेयर पर आ गए थे और स्मृति जाने लगी थी। बीच के दौर में उनकी सबसे बड़ी सहयोगी जया जेटली जी ही उनको ले आई थीं, जिन्हें बाद में उनसे मिलने से भी रोक दिया गया। बाद में पत्नी लैला और पुत्र की निगरानी में ही वह रहे। उसके बाद से उनके स्वास्थ्य या बीमारी की ख़बर एकाध बार उनके सहयोगी और अपने मित्र सुनीलम की फ़ेसबुक पोस्ट से ही मिली।
नहीं हुआ उनके जैसा कोई दूसरा
अब जार्ज नहीं हैं तो काफ़ी कुछ याद आ रहा है। पर सबसे बढ़कर यही कि आज़ाद भारत की राजनीति में ऐसा दूसरा कौन हुआ जो पादरी परिवार में जन्म लेकर समाजवादी हुआ। घर से निकलकर कई-कई बार पूरे देश को हिलाने या रोक देने वाला बना, सरकार बनाई-गिराई, पार्टी बनाई-तोड़ी, पर जो न सत्ता से संतुष्ट हुआ न धन से। जिसकी बेचैनी शायद ज़्यादा बड़ी थी। अब यह बेचैनी किसमें दिखेगी?