अकेले जीना मुश्किल है और मरने के वक़्त अकेले रहना शायद और भी पीड़ादायक। कोरोना वायरस के संक्रमण के ख़तरे ने यह अहसास दिला दिया है। कल्पना भर कीजिए कि आपकी उम्र 80-85 के पार है। ज़िंदगी के आख़िरी पलों में आप क्या चाहेंगे क्या हो जब उस वक़्त चाहकर भी आपके क़रीबी आपके पास न जा पाएँ क्या हो जब आप चाहकर भी उन्हें पास नहीं बुलाना चाहें क्या मरने के वक़्त अकेले होने का डर इस कोरोना वायरस से कम होगा
इसी खौफ में अमेरिका में लाखों बुजुर्ग हैं। वे भी जो कोरोना से संक्रमित हो गए हैं और वे भी जो संक्रमित नहीं हैं। सिर्फ़ न्यूयॉर्क शहर में ही क़रीब 17 लाख बुजुर्ग हैं। उनमें से अधिकतर के लिए अकेले मरने का खौफ दूसरी महामारी बन गया है। ऐसे ही एक बुजुर्ग से 'न्यूयॉर्क टाइम्स' ने बात की है। इसके अनुसार, 89 वर्षीय शत़्जी वीज़बर्गर को दिल के दौरे पड़ने के लक्षण दिखे। उनके सीने में दर्द उठा। एक सेवानिवृत्त नर्स वीज़बर्गर अपने अपार्टमेंट में अकेले मरना नहीं चाहती थीं। लेकिन अगर वह अस्पताल जातीं तो उन्हें डर था कि वह कोरोनो वायरस की चपेट में आ जाएँगी और अजनबियों के बीच मर जाएँगी, उन लोगों के बीच नहीं जिनको वह बहुत चाहती हैं। उन्होंने कहा, 'मुझे पता है कि मैं असुरक्षित हूँ क्योंकि मैं क़रीब 90 साल की हूँ। मैं किसी भी परिस्थिति में अस्पताल नहीं जाऊँगी।'
उनका यह डर बेवजह नहीं है। दुनिया भर में ऐसी रिपोर्टें आ रही हैं कि 55-60 से ज़्यादा उम्र के लोगों को कोरोना वायरस से ज़्यादा ख़तरा है। जितनी ज़्यादा उम्र उतना ज़्यादा ख़तरा। दूसरे, यह वायरस बहुत तेज़ी से दूसरे लोगों को संक्रमित कर रहा है। यही वह वजह है जिससे लोगों को अलग-थलग पड़ने का डर है। जिसको यह वायरस हो रहा है उससे अपने परिजनों को भी मिलने नहीं दिया जा रहा है क्योंकि इससे संक्रमण का ख़तरा रहता है।
इस घातक संक्रमण की वजह से ही इटली जैसे कई देशों से तो ऐसी रिपोर्ट आती रही कि कई लोग मरने के वक़्त तो अकेले रहे ही, उनके अंतिम संस्कार तक में अपने लोग शामिल नहीं हो पाए।
ये वो लोग थे जिनके परिवार में सभी लोग संक्रमित थे और ऐसे में किसी सदस्य की मौत पर वे अंतिम संस्कार में भी नहीं जा सकते थे। यही अलग-थलग यानी अकेले रहने की मजबूरी ने अजीब तरह का खौफ लोगों में उत्पन्न किया है। ऐसे में उन बुजुर्गों का क्या हाल हो सकता है जिनके बुढ़ापे के कारण सभी अंग कमज़ोर पड़ गए हों, जो मानसिक तौर उतने स्वस्थ नहीं हों, हमेशा अपनों के साथ रहना चाहते हों और अपनों के बीच ही मरना उनकी आख़िरी इच्छा हो!
आम तौर पर हर बुजुर्गों की जैसी यही इच्छा वीज़बर्गर की भी है। उन्होंने बहुत पहले से ज़िंदगी के अपने आख़िरी क्षण के बारे में पूरी योजना बना ली थी। वह कहती हैं, 'एक मित्र ने अंतिम दिनों में मेरे साथ बैठने का वादा किया था'। हालाँकि वीज़बर्गर के सीने का दर्द बाद में ठीक हो गया, लेकिन यह डर अभी भी उनके जहन में है।
अमेरिका के क्विंस में रहने वाली चीनी मूल की 87 वर्षीय इलिन लो कहती हैं, 'मैं अकेले मरने से बहुत डरती हूँ। अगर मुझे कोई सामान्य बीमारी हो तो मैं अपने बच्चों को न्यूयॉर्क आने के लिए कह सकती हूँ। लेकिन कोरोना वायरस होने पर, मैं उनसे ऐसा करने के लिए नहीं कह सकती हूँ।'
न्यूयॉर्क में ही अधिकतर लोगों ने अपने रिश्तेदारों या दोस्तों से मार्च की शुरुआत से ही मुलाक़ात नहीं की है जबसे पाबंदियाँ लगनी शुरू हुई थीं। यानी वे काफ़ी लंबे समय से अकेले रह रहे हैं और इस एकांतवास की पीड़ा क्या होती है, अधिकतर लोगों को यह अहसास है। इसी बीच कोरोना वायरस से संक्रमित होने का डर और फिर हॉस्पिटल में अलग-थलग रखे जाने का डर भी है। इसने लोगों में तनाव को पैदा किया है।
कुछ ऐसे ही तनाव की बात मनोचिकित्सक भी कहते हैं। 'न्यूयॉर्क टाइम्स' से अमेरिकन साइकियाट्रिक एसोसिएशन में जेरियाट्रिक मनोरोग परिषद के अध्यक्ष डॉ. रॉबर्ट रोका ने कहा, 'सहयोग और समर्थन के लिए आप लोगों से उम्मीद करते हैं। ऐसे में यह धारणा कि वे वहाँ नहीं हो सकते हैं, अत्यंत चिंताजनक हो सकता है।' वह कहते हैं कि क्वरेंटाइन के कपड़े पहने होने और अलग-थलग किए जाने से बुजुर्गों में यह डर कई गुना बढ़ जाता है। इससे उनका अकेलापन और चिंता ज़्यादा बढ़ जाती है। इस कारण उनके स्वास्थ्य पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं। यह डर वायरस नहीं पैदा करता है, बल्कि यह उन लोगों में इस डर को बढ़ा देता है जिन पर इस वायरस के प्रति ज़्यादा वल्नरेबल हैं यानी ज़्यादा असुरक्षित हैं।
अधिकतर लोगों के लिए यही वह बड़ा डर है। यानी कोरोना का डर नहीं। अकेले में मरने का डर। हालाँकि वजह कोरोना ही है।