कृषि मार्केटिंग पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क मसौदे पर विवाद थम नहीं रहा है। तमाम किसान संगठनों ने पहले ही इस मसौदे को खारिज कर दिया है। मोदी सरकार ने इस मसौदे पर तमाम राज्यों से भी राय मांगी थी। जाहिर है कि बीजेपी शासित राज्यों से उसे अपनी पसंद की राय मिल गई लेकिन विपक्ष शासित राज्यों ने इस मसौदे पर गहराई से नजर डाली। पंजाब चूंकि मुख्य कृषि प्रधान राज्य है, उसकी गंभीर राय की ज्यादा जरूरत थी। लेकिन पंजाब ने इस मसौदे को पूरी तरह खारिज कर दिया। उसने कहा कि यह मसौदा किसानों के खिलाफ है। इसलिए वो इस पर अपनी सहमति नहीं दे सकता। लेकिन अभी भी इस मसौदे के बारे में आम लोग दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। जबकि यह मुद्दा जितना किसानों से जुड़ा है, उतना ही आम लोगों से जुड़ा है।
मसौदा नीति को केंद्र ने पिछले साल 25 नवंबर को भेजा था। जिसमें 15 दिसंबर तक टिप्पणी मांगी गई थी। अकेले पंजाब राज्य ने जवाब देने के लिए अतिरिक्त समय मांगा, क्योंकि मुद्दा किसानों का था। मसौदा कमेटी ने पंजाब को 10 जनवरी तक का समय दिया। पंजाब ने अपनी राय मसौदा समिति को देने से पहले किसानों, कृषि विशेषज्ञों और कमीशन एजेंटों से सलाह की।
मसौदे में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर क्या है
मोदी सरकार की मसौदा कमेटी ने एमएसपी पर चुप्पी साध रखी है। इसका कोई जिक्र मसौदे में नहीं है। पंजाब, हरियाणा के किसानों के लिए एमएसपी सबसे महत्वपूर्ण है। उल्टा मसौदा यह बताता है कि किस तरह निजी कृषि बाजार को बढ़ावा देने की जरूरत है। इसका मतलब है पहले से चल रही मंडी समितियों को कमजोर किया जाना। उन्हें अप्रासंगिक बनाने का पूरा इंतजाम इस मसौदे में है। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में मंडियों का एक बड़ा नेटवर्क है।
क्या कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा दिया जा रहा हैः कृषि मार्केटिंग पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क मसौदा पूरी तरह से कान्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को समर्पित है। जिसमें अनाज की सीधे खरीद के लिए निजी साइलो को खुले बाजार यार्ड के रूप में घोषित करना शामिल है। यहां बताना जरूरी है कि हरियाणा, पंजाब में अडानी समूह के साइलो पहले से ही बने हुए हैं। जिनमें किसानों से सीधे अनाज खरीद कर रखा भी गया है। अगर इस मसौदे को मंजूर किया गया तो इसका सीधा फायदा अडानी समूह को होगा। क्योंकि उसके साइलो पहले से ही तैयार हैं। इस क्षेत्र में अडानी ही अभी तक अकेले खिलाड़ी हैं। उनके बाद पंजाब-हरियाणा में वहां की सरकारी खरीद एजेंसियों के साइलो जैसे भंडार हैं। मसलन हरियाणा में हैफेड के अपने भंडार हैं। लेकिन अब वो दयनीय दशा में हैं।
कुछ अन्य मुद्दे भी हैं, जिनके आधार पर इसे खारिज किया जाना चाहिएः
- किसानों के हितों की बलि देकर कॉरपोरेट्स को लाभ पहुंचाने की कोशिश छोटे उत्पादकों को खेती से बाहर कर देगी।
- निजी क्षेत्रों, कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिग, साइलो चलाने वाली कंपनियों के लिए इस मसौदे में किसी तरह की रेगुलेटरी संस्था बनाने की बात नहीं है जो किसानों के हितों को देख सके।
- मसौदे में कृषि बुनियादी ढांचे में सुधार का वादा किया गया है लेकिन धन की कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई गई है। यानी सरकार कितना पैसा खर्च करेगी, उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया है।
- 27 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में सरकारी मंडी समितियों का नेटवर्क मौजूद है। इन मंडी समितियों से 7,057 थोक बाजारों में अनाज भेजा जाता है। इस मसौदे के लागू होने पर निजी कंपनियां उतरेंगी और वो मंडी समितियों को पीछे कर देंगी या फेल कर देंगी।
- भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 28 के तहत कृषि राज्य का विषय है। मोदी सरकार उसकी परवाह किये बिना अपने बनाये कानून कृषि क्षेत्र में भी लागू करना चाहती है। उसने इस मसौदे को तैयार करने से पहले राज्यों से कोई सलाह नहीं ली। जबकि खेती के लिए उपयुक्त नीतियां बनाने का काम राज्यों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए।
सरकार अगर इस मसौदे को लेकर इतना गंभीर है तो वो क्यों नहीं मसौदे को विज्ञापन के रूप में प्रकाशित करे और किसान संगठनों से बात करे। खासतौर पर तीन प्रमुख कृषि उत्पादक राज्य पंजाब, हरियाणा और यूपी के किसानों की सोच के आधार पर मसौदा आना चाहिए।