यूक्रेन में रूस के हमले के साथ ही कच्चे तेल का दाम 2014 के बाद रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया है। क्रूड ऑयल के दाम 100 डॉलर प्रति बैरल पहुँच गया। गुरुवार को एक समय तो इसकी क़ीमत 105 डॉलर प्रति बैरल पर पहुँच गयी। समझा जाता है कि रूस-यूक्रेन संकट बने रहने के साथ ही यह और भी महंगा हो सकता है। तो सवाल है कि भारत पर इसका असर क्या पड़ेगा? जब कच्चे तेल महंगे होंगे तो भारत में डीजल-पेट्रोल तो महंगा होगा ही। तो सवाल है कि यह कितना महंगा होगा और कब?
हर दिन कच्चे तेल महंगे होने पर हर दिन ही भारत में भी डीजल-पेट्रोल के दाम तय होते हैं। लेकिन पिछले तीन महीने यानी क़रीब से 100 दिन से ज़्यादा समय से क़ीमतों में बढ़ोतरी नहीं हुई है। तो डीजल-पेट्रोल के दाम क्यों नहीं बढ़े? वैसे इस सवाल के जवाब में भारतीय तेल कंपनियों ने तो कुछ नहीं कहा है, लेकिन माना यह जाता है कि चुनाव की वजह से ऐसा नहीं हो पा रहा है क्योंकि सरकार चुनावी नुक़सान की वजह से ऐसा नहीं चाहती है।
यानी चुनाव ख़त्म होते ही डीजल-पेट्रोल का दाम बढ़ना तय है! देश में पिछले साढ़े तीन महीने यानी क़रीब 100 दिन से डीजल-पेट्रोल के दाम नहीं बढ़े हैं। जबकि इस दौरान अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम क़रीब 85 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर क़रीब 100 डॉलर प्रति बैरल से ज़्यादा हो गये हैं। प्रति बैरल 1 डॉलर से भी कम की बढ़ोतरी होने पर भी डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ाने वाली भारतीय तेल कंपनियाँ क़रीब 15 डॉलर यानी 18 फ़ीसदी बढ़ोतरी के बाद भी दाम नहीं बढ़ा पाई हैं। यानी वे डीजल-पेट्रोल की कम से कम इतनी क़ीमतें तो बढ़ाएँगी ही, यदि वे अब तक हुए नुक़सान की भरपाई नहीं करें तो भी।
हालाँकि, इस हिसाब से डीजल-पेट्रोल के मौजूदा दाम में क़रीब 18 फ़ीसदी की बढ़ोतरी करने पर कच्चे तेल के बढ़े दामों की बराबरी हो पाएगी। यानी यदि डीजल या पेट्रोल की क़ीमत जहाँ 100 रुपये है उसकी जगह 118 रुपये हो तो महंगाई की बराबरी हो सकती है। हालाँकि, क़ीमतें बढ़ाने या घटाने का फ़ैसला तो कंपनियाँ ही लेंगी।
लेकिन ऐसा होता हुआ नहीं दिखता है कि तेल कंपनियाँ ही क़ीमतें बढ़ाने का फ़ैसला लेती हैं। ऐसा इसलिए कि चुनाव की वजह से तेल कंपनियाँ दाम क्यों नहीं बढ़ा रही हैं? चुनाव से भला इन कंपनियों का क्या लेना देना!
फ़िलहाल, उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में चुनाव चल रहे हैं। 7 मार्च को चुनाव ख़त्म हो जाएँगे और 10 मार्च को परिणाम आएँगे। समझा जाता है कि चुनाव ख़त्म होने के बाद ही डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ सकते हैं।
इससे पहले देश में डीजल-पेट्रोल के दाम 2 नवंबर को बढ़े थे। उस दिन पेट्रोल के दाम लगातार सातवें दिन बढ़े थे और दिल्ली में पेट्रोल 110.04 रुपए प्रति लीटर पर पहुँच गया था और डीजल 98.42 रुपए पर था। उसी दिन 13 राज्यों में उपचुनाव के नतीजे आए थे। वे नतीजे बीजेपी के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं थे। और फिर 3 नवंबर को केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क में कटौती का फ़ैसला लिया।
मोदी सरकार ने 3 नवंबर को फ़ैसला लिया था कि सरकार पेट्रोल और डीजल पर पाँच और 10 रुपये का उत्पाद शुल्क कम करेगी और यह फ़ैसला दिवाली के दिन लागू होगा। इससे यह दिखाने की कोशिश भी थी कि सरकार का टैक्स पर नियंत्रण है इसलिए वह इसे कम कर रही है और तेल के दाम तय करना तेल कंपनियों के हाथ में है।
लेकिन सरकार के इस दावे पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या सच में तेल की क़ीमतें सरकारी तेल कंपनियों के हाथ में है? आख़िर तेल कंपनियों की क्या मजबूरी है कि उसने 100 दिन से घाटा उठाते हुए दाम नहीं बढ़ाए हैं? ये वही तेल कंपनियाँ हैं जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम बेहद कम होने के बाद भी डीजल पेट्रोल के दाम कम नहीं किए और किए भी तो कभी-कभार नाम मात्र के।
जनवरी 2020 में 1 लीटर कच्चा तेल 28.84 रुपये प्रति लीटर था, तब दिल्ली में 1 लीटर पेट्रोल 77.79 रुपये का था जबकि जनवरी 2021 में 1 लीटर कच्चा तेल सस्ता होकर 25.20 रुपये का था तो 1 लीटर पेट्रोल 87 रुपये से ज़्यादा का हो गया था।
बहरहाल, कच्चे तेल के दाम बढ़ने से डीजल-पेट्रोल के साथ ही रसोई गैस, सीएनजी और पीएनजी के दाम भी बढ़ सकते हैं।