वैसे तो आम तौर पर मेरी फ़ेसबुक पोस्ट पर लिखी टिप्पणियों पर मैं बाद में टीका नहीं करता हूँ परन्तु इस बार एक ‘आलेख’ लिखकर किन्हीं पत्रकार महोदय ने पूरे विस्तार से मेरी पोस्ट पर जो लिखा उसमें वर्णित कुछ तथ्यात्मक बातों पर कहने की विवशता हो रही है खास तौर पर ‘आलेख’ के अंत में लिखे वाक्यों और समझ के बाबत जिसे पहले ही मैं उद्धृत कर रहा हूँ। न जाने किस मंतव्य से बेहद आपत्तिजनक और असत्य बातें कही गई हैं:-
“समाजवादियों को इस पर भी सोचना होगा कि संघ परिवार नेहरू को देखना नहीं चाहता है, लेकिन लोहिया और जे.पी. को छीन लेना संभव मानता है। क्या जे.पी. और लोहिया के विचारों में कहीं कोई कोमलता है जो उन्हें ऐसे सोचने को प्रेरित करती है? अगर ऐसी कोमलता है तो समाजवादियों को इससे मुक्ति पानी होगी। लोकतंत्र, समता, सेकुलरिज़्म के सवालों पर कठोर बनना होगा। यह एक मौक़ा भी है जिसका इस्तेमाल हम आरएसएस से सहयोग की अपने पुरखों की भूल सुधारने के लिए कर सकते हैं। समाजवादियों की काल्पनिक स्वायत्तता तथा कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी के सिद्धांत के पीछे मोदी को बनाए रखने की अप्रत्यक्ष कोशिश है। समाजवाद, लोकतंत्र और सेकुलरिज्म के सवाल सतही और अवसरवादी चिंतन से नहीं सुलझ सकते। बेचैनी कांग्रेस से नजदीकी को लेकर नहीं, मोदी के विरोध से है।
यह एक मौका भी है जिसका इस्तेमाल हम आर.एस.एस. से सहयोग की अपने पुरखों की भूल सुधारने के लिऐ कर सकते हैं। इसके पीछे के व्यक्तिगत कारणों में जाना मर्यादा के अनुकूल नहीं होगा। अपने अवसरवाद को वैचारिक जामा पहनाने में समाजवादियों से मुक़ाबला कौन कर सकता है? लेकिन इसमें भी एक मर्यादा होनी चाहिए।” (संदर्भित पोस्ट से उद्धृत)
मैं भी वायदा करता हूँ कि प्रतिक्रिया स्वरूप कहीं भी व्यक्तिगत मामले चर्चा में नहीं आयेंगे (जो कि वैसे भी हैं नहीं) लेकिन इसके पहले मेरी उस पोस्ट में आखिरी एक पैरा में यह ज़रूर लिखा था- “बुनियादी सामाजिक मूल्य जिन पर पूरा जीवन काम किये हैं खपायें है: उसके लिये वचनबद्ध होकर क्यों संगठित लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती सरकारों के खिलाफ। जीवन के संध्याकाल में तो वैसे ही आ चुके हैं तो इस संघर्ष में भी अधिकतम क्या होगा- जेल या मौत! सत्ताओं के खिलाफ एक बहादुर सोशलिस्ट की भाँति अंत हो! कायर मरघिल्ले याचक की तरह नहीं!”
अब कोई भी भाषाविज्ञ या हिंदी का सामान्य जानकार भी संदर्भ से जोड़कर उन कथित आपत्तिजनक तीन शब्दों के निहितार्थ समझ सकता है कि वे तीनों शब्द समाजवादियों के बाबत नहीं कहे गये बल्कि समाजवादियों को आगाह करने में इस्तेमाल हुये कि कहीं अपनी अकर्मण्यता और वैचारिक भ्रम में वे वैसे ही न हो जायें।
आप सब चाहें तो मेरी व उनकी मूल पोस्ट को भी पढ़ सकते हैं। जिससे बातें और अधिक स्पष्ट हो सकेंगी। उनका एक कथन यह भी है कि कांग्रेस ने समाजवादियों का सम्मान तो किया पर कंजूसी के साथ।
अपनी हत्या के पहले की कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में महात्मा गांधी ने नये कांग्रेस अध्यक्ष के लिऐ आचार्य नरेन्द्र देव का नाम प्रस्तावित किया जिसका तुरंत ही वहीं सरदार पटेल व नेहरू ने विरोध कर गांधी जी के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। कांग्रेस द्वारा भारतीय प्राचीन दर्शन, बौद्ध दर्शन, ज्ञान व प्रज्ञा के उद्भट् विद्वान एवं समाजवादी आंदोलन के पितामह महान विद्वान आचार्य नरेन्द्र देव का खूब सम्मान किया गया कि बाद में जब आचार्य जी सक्रिय राजनीति से अलग हो गये तो उन्हें लखनऊ वि.वि. का कुलपति नियुक्त कर दिया जैसे कि वे इस पद के लिए कोई कमतर योग्य थे।
यह आचार्य जी की महानता ही थी जो व्यक्ति भारत के राष्ट्रपति पद को स्वीकार करने के योग्य था उसने एक वि.वि. के कुलपति पद को स्वीकार करने में अरूचि नहीं दिखाई। समाजवादियों का सम्मान करना सीखना है तो कोई नेहरू जी व सरदार पटेल से सीखता। यह कंजूसी नहीं बहुत बड़ी उदारता थी शायद। क्या आचार्य जी के स्तर का कोई अन्य कुलपति भारत में उस समय था?
कांग्रेस के मुख्य सांगठनिक मुख्यालयों या उसकी आनुषांगिक संस्थाओं में कहीं भी किसी भी समाजवादी नेता की तस्वीर है?
ज्यादातर स्थानों में गांधी जी के अलावा मात्र नेहरू के परिवार के उन लोगों के ही चित्र हैं जो राजनीति में रहे जैसे इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राहुल गांधी, सोनिया गांधी, संजय गांधी और प्रियंका गांधी।
कृपया ज्ञानवर्धन किया जाये कि यूसुफ मेहर अली का मरणोपरांत भी क्या सम्मान किया गया? जीते जी तो सरदार पटेल ने उनके विरूद्ध चुनाव में प्रचार किया ही जब बंबई के मेयर का चुनाव आजादी पूर्व हुआ था। कांग्रेस तब पूरी तरह सरदार पटेल के हाथों में थी। समाजवादी पुरोधा यूसुफ मेहर अली कांग्रेस के विरूद्ध चुनाव जीते भी और गांधी जी तक इसकी लंबी-चौड़ी शिकायत भी हुई। यूसुफ मेहर अली का भारत की आजादी में योगदान किस बड़े कांग्रेसी नेता से कम था?
डॉ. लोहिया का “सम्मान” तो जैसा कांग्रेस ने किया वैसा किसी का हो ही नहीं सकता। आज़ादी के बाद भारत में पहला आँसू गैस का गोला और लाठी चार्ज लोहिया पर ही हुआ जब सिर्फ एक सौ से भी कम संख्या के पुरुष व महिला प्रदर्शनकारी नेपाली राजतंत्र के विरूद्ध अहिसंक शांतिपूर्ण ढंग से मंडी हाउस स्थित नेपाली राजमहल के सामने प्रदर्शन कर रहे थे। सभी को तुरंत जेल भी भेजा गया और तत्कालीन गृहमंत्री ने शांतिभंग का हवाला देते हुए कहा भी कि कानून के अनुसार ऐसा आगे भी होगा। कुल सात दर्जन महिलाओं व पुरुषों से दिल्ली की शांतिभंग हो गई थी। मुझे वह सब भी तफसील से पता है जो इसके बाद प्रधानमंत्री नेहरू और गृहमंत्री पटेल के मध्य पत्राचार आदि में वर्णित है। नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय का हवाला मात्र दिया कि लोहिया जैसे नेता की गिरफ्तारी से विदेशों में भारतीय लोकतंत्र पर शंका उठ सकती है पर लोहिया तो मजिस्ट्रेट जज के आदेश से ही कई दिनों बाद छूटे, शायद कई हफ्ते बाद। सम्मान कोई करे तो ऐसा!
इसके बाद डॉ. लोहिया को कांग्रेस सरकार की पुलिस ने भारतीय सीमा के उत्तर-पूर्वी राज्यों में ही कई बार (एक बार नहीं) दौरे करने पर रोका, गिरफ्तार किया और एक घटना में तो पुलिस ने भरी अदालत में कुर्सी से बांधकर पेश किया। पुलिस ने जबरदस्ती शारीरिक बल का अनैतिक इस्तेमाल करते हुए मजिस्ट्रेट के सामने कागजों पर डॉ. लोहिया का अंगूठा लगवा लिया। अभिन्न मित्र रहे नेहरू को एक एक गिरफ्तारी व पुलिस के व्यवहार की सूचना रही पर ‘सम्मान’ जो करना था तो कुछ नहीं किया, बोले भी नहीं।
आजादी के बाद कुल मिला कर नौ या दस बार लोहिया की नागरिक आजादी को कुचलते हुये निरोध में रखा। कई बार सुप्रीम कोर्ट में खुद की पैरवी करते हुये हैबियस कॉरपस लगा कर छूटते रहे पर क्या मज़ाल कि कानून का दोबारा दुरूपयोग लोहिया पर न हो- ‘सम्मान' जो करना था।
प्रोस्टेट की साधारण शल्य चिकित्सा के बाद जब दिल्ली के विलिंगडन अस्पताल में लोहिया के शरीर में इन्फेक्शन फैल गया तो कांग्रेस सरकार को ऐसी चिंता व सम्मान प्रकट हुआ कि विदेश से न कोई डॉक्टर या दवाई मंगवा कर एक इन्फेक्शन को ठीक कर लेने के बजाय मात्र 57 साल की उम्र में प्रतिपक्ष के सबसे बड़े नेता को मर जाने दिया गया। यह सफेद झूठ कई लोग आज भी नादानी में फैलाते हैं कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रोज वहाँ अस्पताल में उन्हें देखने आती थीं। मृत्यु के बाद केन्द्रीय मंत्री मोरारजी देसाई और यशवंत राव चव्हाण ज़रूर लाश को कंधा देने आये थे। डॉ. लोहिया की इच्छानुसार उनका दाह संस्कार भी दिल्ली के लावारिसों के दाहगृह पर हुआ। आज़ादी का इतना बड़ा सेनानी और भारत का राष्ट्रीय झंडा तक उसके शव पर नहीं रखा गया। यह होता है सम्मान! मेरे द्वारा इस विषय पर कहने को इतना कुछ बाकी रखा गया है लेकिन फेसबुक उतने लंबे लेखों के लिऐ उपयुक्त मंच नहीं है।
वयोवृद्ध जे.पी. पर केन्द्रित दो बार लाठी चार्ज पटना और दिल्ली में ‘सम्मान’ का ही एक नायाब तरीका था। जे.पी. जिसने आज़ादी की लड़ाई में उत्कृष्ट भूमिका निबाही थी उस पर कहते हैं और मैंने भी कई जगह पढ़ा व सुना है कि नेहरू खुद कहते थे कि मेरे बाद जे.पी. प्रधानमंत्री हो सकते हैं।
एकाध बार कहा ज़रूर लेकिन तैयारी पूरी पुत्री के लिए होती रही। आपातकाल में चंडीगढ़ में कांग्रेस सरकार के डॉक्टरों ने कौन सी दवाइयाँ दीं कि किडनी फेल होनी शुरू हो गई। जे.पी. जैसा सुशिक्षित संभ्रात व्यक्ति ज़रूर बीमार होने के बावजूद डॉक्टरों पर दोष नहीं मढ़ सकता था। पता चलने पर सरकार ने और पूर्व प्रधानमंत्री ने माफी मांगी? जनता पार्टी सरकार ने ज़रूर जाँच बैठाई पर कांलातर में ‘सम्मानित’ करने वाली कांग्रेस सरकार ने प्राप्त जानकारी के आधार पर क्या किया? जांच ही बंद कर दी। सीआई एजेंट तो कह ही चुके थे। शायद ‘सम्मान' यही होता है। जे.पी. ज़्यादा दिन नहीं बच सके। जनता सरकार के दौरान यह चर्चा ज़रूर चली कि जे.पी. को भारत रत्न दिया जाये पर जे.पी. ने सख्ती से मना कर दिया जो अधूरा काम अटल बिहारी की भा.ज.पा. सरकार को करना पड़ा।
राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस, मामा बालेश्वर दयाल, हरिविष्णु कामत, एस.एम. जोशी, एन. जी. गोरे, कैप्टन अब्बास अली, रामसेवक यादव, सूरज नारायण सिंह, बदरीविशाल पित्ती और चंद्रशेखर जैसे बीसियों अन्य समाजवादियों का सम्मान भी हुआ और खूब हुआ। जिसे प्रत्यक्ष या किताबी जानकारी न हो उसे शायद नहीं भी हो सकती है लेकिन मैंने अपनी युवावस्था में ही जॉर्ज फर्नांडीस का फूटा-खिला हुआ सिर बहता खून दिल्ली में देखा था जब 6 अप्रैल को संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रदर्शन पर भयंकर लाठीचार्ज हुआ। नेता जी राजनारायण की टांग टूटी थी। मधु लिमये जी की पसलियों में चोट थी। सरकार कांग्रेस की थी और हर आदेश ऊपर से आता था कि अच्छे से ‘सम्मानित’ करना है।
चंद्रशेखर जी का भी कोई कम सम्मान कांग्रेस ने नहीं किया। कांग्रेस की सर्वोच्च कार्यसमिति के सदस्य थे और 25 जून की रात को उन्हें भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और जब बाद में राजीव गांधी ने श्री चंद्रशेखर को कांग्रेस ने बाहरी समर्थन से प्रधानमंत्री बनाया तो चार महीने बर्दाश्त नहीं कर सकी। एक झूठी फर्जी बात को मुद्दा बनाकर दबाव बनाया लेकिन जैसा कि चंद्रशेखर का स्वाभिमानी व्यक्तित्व था उन्होंने तत्काल इस्तीफा दे दिया। मुझे स्मरण नहीं है कि चंद्रशेखर का मरणोपंरात भी क्या ‘सम्मान’ रचा गया?
सुना गया है कि स्मृति डाक टिकट निकालना भी सम्मान होता है, हाँ जरूर पर जब कोई सरकार यह फैसला ले ले कि सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की स्मृति में डाक टिकट जारी करेगी तो इसमें किन्हीं समाजवादियों की डाक टिकट भी जारी हो गयी हो तो मान लिया जाये।
वैसे बता दूँ कि इन सबकी डाक टिकटें डाक तार विभाग के संग्रहालय में भी कोई ढूंढ कर बता दे। जिस दिन डाक टिकट रिलीज होती है उसी दिन दो चार सौ बेची जाती है अब तो खैर डाक टिकट इतिहास के गर्त में जा चुकी है।
कैप्टेन अब्बास अली का नाम कोई पुराना कांग्रेसी भी यदि बता दें तो इसी पर टेस्ट कर लो।
बदरीविशाल पित्ती के शानदार प्रकाशकीय, सांस्कृतिक, समाजवादी कामों को कोई कैसे भूल सकता है? जिनके पैतृक निवास में ही मकबूल फिदा हुसैन ने रामायण, महाभारत पर सैकड़ों ऐतिहासिक चित्र बनाये थे। कहीं कोई सम्मान की कभी कांग्रेस ने सोची?
निजी तौर पर कौन किसका मित्र रहा यह इतिहास में खास दर्ज नहीं होता पर शासकीय, सार्वजनिक व्यवहार में, लिखित में क्या हुआ उसी पर गौर करना होता है।
अटल जी और चंद्रशेखर जी ही नहीं कई राजनेता निकट के मित्र रहे होंगे। यह सिफ्त भी आज खत्म होती जा रही है। व्यक्तिगत रूप से विभिन्न राजनीतिक लोग पारस्परिक सम्मान से रहते ही आये थे। इसमें दलीय या सरकार का निर्णय शामिल नहीं है। जनता पार्टी की कांग्रेस समर्थित सरकार कब थी? कभी नहीं। चंद्रशेखर जी के दल की कांग्रेस समर्थित सरकार में एक विशेषता जरूर थी कि कांग्रेस चंद्रशेखर जी को कैसा भी हुकुम नहीं सुना सकती थी। उन दिनों यदि प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी ने मधु जी पर डाक टिकट जारी भी किया तो इसमें कांग्रेस की भूमिका शून्य थी वैसे ही जैसे चंद्रशेखर सरकार ने उन्हीं दिनों सरदार पटेल को भारत रत्न दिया था।
समाजवादियों और मेरे पास भी अपने नेताओं के विरूद्ध कांग्रेसी दुर्व्यवहार का पूरा ग्रंथ है लेकिन आज कांग्रेस विपक्ष में है इसलिये सब कुछ नहीं प्रकाशित कर रहा हूँ।
यह सरासर झूठ और बदनीयती भरा वक्तव्य है कि डॉ. लोहिया और जे.पी. के विचारों में किसी भी साम्प्रदायिक तत्व या संगठन के प्रति कैसी भी कोमलता थी बल्कि सच तो यह है कि वे ही थे जो इन मामलों में एकदम मजबूत रहे और राजनीतिक रणनीति के बतौर अपनी शर्तों व नीतियों पर उनसे व्यापक समर्थन भी ले सकते थे।
यह भी जान लीजिये कि साम्प्रदायिकता का पहला बीज भारतीय राजनीति में कांग्रेस ने ही अपने चुनावी फायदों के लिये बोया जिसकी सफलता देख कई अन्य दल भी अपने मूल साम्प्रदायिक चरित्र में आते गये।