आख़िरकार कांग्रेस गांधी परिवार के नेतृत्व से मुक्त हो ही गई। राजनीति में विघ्नसंतोषी मानसिकता वाले वो तमाम लोग अब चैन की साँस ले सकेंगे जो कांग्रेस से ज़्यादा पार्टी के प्रथम परिवार से खफा थे और उनकी नज़र में कांग्रेस तब तक दोबारा सत्ता में नहीं लौट सकती जब तक सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल गांधी और प्रियंका गांधी पार्टी का नेतृत्व करते रहेंगे। हालाँकि ऐसे लोगों की दिलचस्पी क़तई कांग्रेस की भलाई और उसके उत्थान में नहीं बल्कि कांग्रेस के ख़िलाफ़ इस मुद्दे को लगातार ज़िंदा रखने में थी जिससे जनमत में कांग्रेस और उसके प्रथम परिवार के ख़िलाफ़ माहौल गरमाता रहे और उस पर वंशवाद का आरोप पक्के तौर पर चस्पा हो जाए।
लेकिन एक झटके में कांग्रेस ने इन तत्वों को निराश कर दिया। उसने वो कर दिया जिसकी जरा भी उम्मीद कांग्रेस विरोधियों को नहीं थी। उन्हें ये असंभव लगता था कि सोनिया परिवार के रहते कांग्रेस में संगठन के आंतरिक चुनाव भी होंगे और कोई गैर गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन हो जाएगा। इसलिए टीवी बहसों और सोशल मीडियी के सार्वजनिक विमर्श में लगातार यह कहा जाता था कि चुनाव कराने का हो हल्ला कांग्रेस का नाटक है और आख़िर में राहुल गांधी ही दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएंगे। तब मैंने लगातार कहा था कि जितना मैं राहुल गांधी को समझ सका हूं उसके हिसाब से वह कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनेंगे और न ही परिवार के किसी सदस्य को बनने देंगे।
अब जबकि चुनाव के ज़रिए एक गैर गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन चुका है तब विरोधियों ने नया तीर निकाला है, वह है कि खड़गे नाम के लिए अध्यक्ष होंगे यानी उनका रिमोट कंट्रोल गांधी परिवार, विशेषकर, राहुल गांधी के पास ही होगा। यही आरोप आज तक मनमोहन सिंह पर लगता रहा है। इसलिए अब यह सोनिया गांधी और उनसे भी ज्यादा राहुल गांधी की जिम्मेदारी है कि वह रोजमर्रा के कामकाज में खड़गे को पूरी आज़ादी और स्वायत्तता दें और अपना प्रभाव कांग्रेस कार्यसमिति के ज़रिए पार्टी के नीतिगत मसलों और व्यापक मुद्दों तक सीमित रखें।
कांग्रेस में इन नए प्रयोग के बाद क्या अब राहुल गांधी के पुनर्मूल्यांकन और उन्हें नए सिरे से समझने की ज़रूरत नहीं है? राहुल गांधी ने 2004 में राजनीति में प्रवेश किया था। तब उनकी उम्र 34 साल की थी। दादी और पिता की हत्या के बाद सुरक्षा कारणों से उनका लालन-पालन बेहद सुरक्षित-संरक्षित और एकांत माहौल में हुआ था। उनके संवाद और संबंध का दायरा बहुत ही सीमित था। ऐसे वातावरण में पले-बढ़े राहुल गांधी जब पहली बार अमेठी से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुँचे तो कांग्रेसी उनके भीतर नेहरू, इंदिरा, संजय और राजीव वाला नेता देख रहे थे जो कांग्रेस के लिए देश भर में वोटों की लहलहाती फ़सल पैदा कर देगा और उन्हें उसी तरह सत्ता भोग कराता रहेगा जैसा राहुल के पूर्वज कराते रहे। मेहनत और जमीन पर संघर्ष किए बिना सत्ता सुख के आदी ये कांग्रेसी राहुल को राजनीति के गुर सिखाने और सियासत की कड़वी हकीकत समझाने की बजाय उनकी चापलूसी में लग गए और उन्हें राजकुमार और युवराज की तरह जनता के बीच पेश करने लगे।
लेकिन राहुल गांधी इसके आदी न थे।
पश्चिमी लोकतांत्रिक प्रणाली की खूबियों से प्रभावित राहुल कांग्रेस में आमूल-चूल बदलाव के पक्षधर थे। उनका स्वभाव है कि उन्हें जो जिम्मेदारी दी जाती है वह उससे इतर कुछ नहीं करते। जबकि कांग्रेसी चाहते थे कि राहुल सोनिया गांधी के बेटे होने के कारण उसी तरह पार्टी के कामकाज में हर स्तर पर हस्तक्षेप करें जैसे कि इंदिरा गांधी के जमाने में संजय गांधी और बाद में राजीव गांधी की तूती बोलती थी। अपने स्वभाव के मुताबिक़, राहुल अपने पहले लोकसभा कार्यकाल में जब वह महज अमेठी के सांसद थे, अपना ध्यान सिर्फ अमेठी लोकसभा क्षेत्र से जुड़ी समस्याओं पर लगाते थे।
राहुल अमेठी लखनऊ होकर जाते थे, लेकिन हवाई अड्डे पर अगर उनके स्वागत के लिए कांग्रेसियों की भीड़ पहुँचती तो वह खासे नाराज हो जाते थे। इसलिए वह दिल्ली से लखनऊ हवाई जहाज और फिर हवाई अड्डे से सीधे अमेठी चले जाते थे। वह प्रदेश कांग्रेस के दफ्तर तक नहीं जाते थे।
वहीं कांग्रेसी चाहते थे कि राहुल गांधी कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कोहिमा तक कांग्रेस संगठन की समस्याओं और कामकाज में अपना सीधा दखल दें। जब भी कोई कांग्रेसी नेता राहुल से अपने राज्य और प्रदेश कांग्रेस संगठन की बात करता तो वह फौरन उसे संबंधित राज्य के प्रभारी महासचिव और कांग्रेस अध्यक्ष से बात करने की सलाह देकर उससे उसके राज्य की उन बातों पर चर्चा करते थे जिनका ताल्लुक सीधा राजनीति से नहीं होता था। मसलन, वह मिलने वाले कांग्रेसी नेता से उसके क्षेत्र के उद्योगों, खेती बाड़ी, बाजार, तकनीकी संस्थानों, सांस्कृतिक केंद्रों, रीति रिवाज, वेश भूषा कला साहित्य आदि की बात करना पसंद करते थे। जबकि पूरी तरह सत्ता की राजनीति में ऊपर से नीचे तक रसे पगे कांग्रेसी इस चर्चा को फिजूल समझते थे और बाहर आकर राहुल को लेकर दबी जुबान से उन सभी उपमाओं से विभूषित करने लगे जिनसे आगे चलकर विरोधी आईटी सेल ने उन्हें पप्पू की छवि में कैद कर दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक दांव-पेंचों और छल-छद्म से दूर राहुल गांधी सियासत में लंबे समय तक अपरिपक्व रहे और उनसे कुछ ऐसी गलतियां हुईं जिसने उनके ‘पप्पूपने’ को और मजबूत किया। बीच राजनीतिक गतिविधियों के अचानक छुट्टी मनाने या नानी से मिलने विदेश चले जाना या सार्वजनिक उपस्थिति से गायब हो जाना, इनसे राहुल की छवि एक ऐसे राजनेता की बनी जिसे जबर्दस्ती राजनीति में लाया गया है और जिसका दिल देश और राजनीति में नहीं बल्कि विदेश और गैर राजनीतिक गतिविधियों में ज्यादा लगता है। राहुल के भाषणों को तोड़-मरोड़ कर सोशल मीडिया पर चुटकुले और मजाक के मीम बनाकर लाखों-करोड़ों की संख्या में लोगों तक पहुँचाए जाते रहे। भाषणों के दौरान अगर राहुल की जुबान जरा भी फिसली तो तत्काल संदर्भ से काट कर उन्हें ऐसे पेश किया जाता रहा मानो राहुल गांधी के पास हाईस्कूल पास व्यक्ति के स्तर का भी दिमाग नहीं है। यह सिलसिला पिछले आठ-दस वर्षों से लगातार चल रहा है।
दिलचस्प है कि राहुल की इस मजाकिया छवि बनाने की शुरुआत उन कांग्रेसियों ने की जो न तो राहुल को कभी समझ सके और न ही समझने की कोशिश की। राहुल जब उनके स्वार्थ और सत्ता की राजनीति और तिकड़मों के रास्ते में बाधा बनने लगे तो उन्होंने राहुल की छवि एक अड़ियल जिद्दी नासमझ गैर जिम्मेदार नेता की बनाकर तमाम झूठे-सच्चे क़िस्से-कहानियों को प्रचारित किया। इसे विरोधी दल ने उठाया।
विपक्षी दलों ने एक अभियान के तहत राहुल गांधी को 'पप्पू' के विशेषण से विभूषित करने में कोई क़सर नहीं छोड़ी। लेकिन राहुल गांधी इससे विचलित नहीं हुए।
मुझे अच्छी तरह याद है कि 2017 में मुझे साक्षात्कार देते हुए उन्होंने उनकी छवि से संबंधित सवाल के जवाब में बिना झिझके कहा था कि मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन मेरे बारे में क्या सोचता और कहता है। मैं अपना काम कर रहा हूं और एक दिन लोग मुझे किसी छवि से नहीं मेरे काम से जानेंगे। आज जब राहुल कन्याकुमारी से कश्मीर तक 3750 किलोमीटर की ऐतिहासिक पदयात्रा पर हैं तो उनकी कही यह बात मुझे सच होती लग रही है।
राहुल को रिलेक्टेंट पॉलिटिशियन (जबर्दस्ती का राजनेता) और जनता के बीच न रहने वाला नेता कहकर उनकी आलोचना करने वाले भी खामोश हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि क्या कहें और क्या करें। पहले ऐसे लोगों को भरोसा ही नहीं था कि कांग्रेस और राहुल गांधी कोई इतना बड़ा आयोजन भी कर सकते हैं। उदयपुर चिंतन शिविर में जब पदयात्रा की घोषणा हुई तो इसे हवाई घोषणा माना गया। कहा गया कि कुछ नेता और कार्यकर्ता पदयात्रा की औपचारिकता कर लेंगे जिसमें कहीं एक-दो दिन के लिए राहुल गांधी भी शामिल हो सकते हैं। फिर कहा गया गया कि राहुल गांधी कार से चलेंगे। फिर कहा गया कि वह दो-चार दिन बाद थक कर आराम करने कहीं निकल जाएंगे। लेकिन अब जब एक हजार किलोमीटर से ज़्यादा यात्रा हो चुकी है तब लोग राहुल गांधी के जज्बे और उनकी मेहनत के कायल हो रहे हैं जिस तरह वह अनथक चल रहे हैं और दक्षिण भारत के राज्यों में उन्हें और उनकी यात्रा का जिस तरह स्वागत हो रहा है वह विरोधियों के लिए चिंता का कारण बनता जा रहा है।
राहुल सियासी वारिस
राहुल गांधी जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के सियासी वारिस हैं। कांग्रेस उन्हें विरासत में मिली है और कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेताओं ने राहुल गांधी को बचपन से देखा है। राहुल 137 साल पुरानी कांग्रेस का पूर्ण लोकतांत्रिककरण करना चाहते हैं। इसमें मल्लिकार्जुन खड़गे के निर्वाचन के बाद कोई शक नहीं रह गया है। राहुल चाहते तो 2019 के लोकसभा चुनावों में हार के बाद कार्यसमिति की बैठक में अपना इस्तीफा न देकर हार के कारणों की समीक्षा के लिए एक समिति बनाकर हार का दोष स्थानीय नेताओं पर थोप सकते थे। लेकिन उन्होंने खुद हार की जिम्मेदारी लेकर अपना इस्तीफा दिया। परंतु बिडंबना यह थी कि राहुल गांधी के समर्थन में कांग्रेस के एक भी पदाधिकारी और कार्यसमिति के एक भी सदस्य ने अपना इस्तीफा नहीं सौंपा बल्कि राहुल गांधी से इस्तीफा वापस लेने का दबाव बनाने लगे। लेकिन राहुल टस से मस नहीं हुए। आखिरकार सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनना पड़ा क्योंकि किसी एक गैर गांधी नाम पर सहमति नहीं बन रही थी। इसके बाद तीन सालों तक लगातार राहुल गांधी से वापस अध्यक्ष बनने का अनुरोध करते हुए दबाव डाला जाता रहा।
हालाँकि इन तीन सालों में भले ही सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष रहीं लेकिन उनके फ़ैसलों पर पूरी तरह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की छाप होती थी। इससे विरोधी दलों को फिर कांग्रेस पर वंशवाद और एक ही परिवार की बंधक होने का आरोप लगाने का मौक़ा मिला। आज़ादी के 75 साल पूरे होने पर लाल क़िले से अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति में परिवारवाद का मुद्दा उठाकर इसे मिटाने की बात जब कही तो उनके निशाने पर सीधे कांग्रेस थी, क्योंकि भाजपा को कभी भी क्षेत्रीय परिवारवादी दलों से कभी कोई दिक्कत नहीं हुई।
प्रधानमंत्री के भाषण के बाद कांग्रेस पर परिवारवाद को लेकर हमले और तेज हो गए। तब कांग्रेस ने अपने संगठन चुनावों की प्रक्रिया को तेज किया।
विरोधियों के परिवारवाद के हमले को ख़त्म करके कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी ने अन्य दलों के सामने आंतरिक लोकतंत्र का एक बड़ा मुद्दा खड़ा कर दिया है। सर्वानुमति के नाम से बिना चुनाव के लगातार अपने अध्यक्ष बनाने वाली बीजेपी को इसका जवाब देना है। अब विरोधियों ने रिमोट कंट्रोल का नया तीर निकाला है और यह घोषणा की जाने लगी है कि मल्लिकार्जुन खड़गे सिर्फ़ नाम के अध्यक्ष हैं, असली फैसले अभी भी सोनिया परिवार ही लेगा, जिसमें सबसे ज्यादा राहुल गांधी की ही चलेगी।
दरअसल, अब गैर गांधी कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह साबित करने की है कि वह रिमोट कंट्रोल यानी खड़ाऊं अध्यक्ष नहीं हैं। यही चुनौती सोनिया परिवार खासकर राहुल गांधी के सामने भी है कि वह नए गैर गांधी अध्यक्ष की संगठन सत्ता और अपनी लोकप्रिय सत्ता के बीच कैसे संतुलन बनाते हैं जिससे कांग्रेस अध्यक्ष की गरिमा भी बरकरार रहे और पार्टी की रीति नीति पर गांधी परिवार का प्रभाव भी बरकरार रहे। यह खड़गे और राहुल गांधी के तालमेल पर निर्भर करेगा। लेकिन जहाँ तक राहुल गांधी को लेकर मेरी समझ है कि वह ऐसा कोई काम न खुद करेंगे और न ही किसी को करने देंगे जिससे कांग्रेस अध्यक्ष की गरिमा को ठेस पहुंचे।
विरोधी 2013 का वह उदाहरण दे सकते हैं जब राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से मनमोहन सिंह सरकार के उस अध्यादेश की प्रति फाड़ी थी जो राजनीति में आपराधिक छवि वाले नेताओं को राहत देने के उद्देश्य से लाया गया था। उनके इस कृत्य ने राहुल गांधी और मनमोहन सिंह दोनों की छवि को तार तार कर दिया था। लेकिन तब से लेकर अब तक राहुल गांधी बहुत कुछ देख सुन चुके हैं और उनके स्वभाव व व्यहवार में खासी परिपक्वता आ गई है और भारत जोड़ो पदयात्रा उन्हें दिनों दिन और परिपक्व बना रही है। ज़रूरी नहीं है कि लड़कपन (तब राहुल का राजनीतिक लड़कपन ही था) में की गई गलती व्यक्ति आगे भी दोहराए।
कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र लाने की राहुल गांधी की यह पहली पहल नहीं है। इसके पहले उन्होंने जब महासचिव के रूप में युवक कांग्रेस और एनएसयूआई का प्रभार संभाला तो इन दोनों मोर्चा संगठनों में पदाधिकारियों की नियुक्ति आंतरिक चुनाव से कराने के प्रयास किए गए। यह एक ऐतिहासिक पहल थी, लेकिन पार्टी के दिग्गज नेताओं ने इसे यह कहकर सफल नहीं होने दिया कि इससे संगठनों में गुटबाजी बढ़ेगी और संगठन कमजोर पड़ जाएंगे। कुछ हद तक शुरुआत में ऐसा हुआ भी लेकिन अगर पूरा संगठन एकजुट होकर इस प्रयोग को सफल होने देता तो यह भारतीय राजनीति में आंतरिक लोकतंत्र की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता था। लेकिन इसे पार्टी के दिग्गज नेताओं ने ही चलने नहीं दिया। इसी तरह राहुल गांधी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में प्रयोग के तौर पर कुछ सीटों पर उम्मीदवार चुनने के लिए अमेरिका की तर्ज पर प्राइमरी प्रणाली लागू करने की वकालत की। लेकिन इसे भी बड़े नेताओं ने अव्यावहारिक बताकर परवान नहीं चढ़ने दिया। क्योंकि अगर ये दोनों प्रयोग सफल हो जाते तो दिग्गज नेताओं की ताक़त कमजोर हो जाती।
कांग्रेस में गैर गांधी अध्यक्ष का राहुल गांधी का यह नया प्रयोग है। गांधी परिवार के निकटवर्ती सूत्रों का कहना है कि सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी शुरू में राहुल गांधी के इस प्रयोग को लेकर सहमत नहीं थीं। सोनिया को नरसिंह राव का जमाना आज तक नहीं भूला है और वह उसे दोहराना नहीं चाहती थीं। इसीलिए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के बाद सोनिया गांधी ने संगठन के ज़रिए सत्ता के सूत्र अपने हाथ से कभी जाने नहीं दिए। लेकिन अध्यक्ष पद से अपने इस्तीफे के बाद से ही राहुल गांधी इस मुद्दे पर अड़े हुए थे। उन्हें समझाने की खासी कोशिश की गई। सोनिया के अलावा परिवार के कुछ नजदीकी मित्रों ने भी राहुल को व्यावहारिक राजनीति और आदर्शवादी राजनीति का अंतर समझाते हुए यही सलाह दी थी कि उन्हें अपनी जिद छोड़कर पार्टी का अध्यक्ष पद संभालना चाहिए और अगर खुद नहीं संभालते हैं तो यह शर्त लगाना ठीक नहीं है कि परिवार का कोई सदस्य अध्यक्ष नहीं बनेगा। परिवार के वफादार नेताओं का एक गुट राहुल के न बनने की स्थिति में प्रियंका को अध्यक्ष बनाने की वकालत करता रहा। राहुल गांधी अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए और उन्होंने तब भी जब अशोक गहलोत को लेकर जयपुर प्रकरण हुआ राहुल खुद कमान संभालने को राजी नहीं हुए और आखिरकार अध्यक्ष पद पर मल्लिकार्जुन खड़गे बनाम शशि थरूर का बाकायदा चुनाव हुआ।