क्या छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाक़े में केंद्रीय सुरक्षा बलों के लोग माओवादियों के बिछाए जाल में फँस गए या उनके पास सही जानकारी नहीं थी? क्या तमाम सख़्तियों और ऑपरेशन्स के बावजूद माओवादी अपने गढ़ में अभी भी मजबूत स्थिति में हैं और राज्य की सत्ता को चुनौती देने लायक ताक़त उनके पास बची हुई है?
शनिवार को बस्तर में सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच मुठभेड़ और उसमें 22 जवानों के मारे जाने और दर्जन भर से अधिक के ज़ख़्मी होने के बाद ऐसे कई सवाल खड़े हो गए हैं।
10 टीमें गईं नक्सली इलाक़े में
'इंडियन एक्सप्रेस' के अनुसार, माओवादियों के ख़िलाफ़ एक सुनियोजित ऑपरेशन चलाया गया था ताकि उनके प्रभाव क्षेत्र में उनका दबाव ख़त्म किया जा सके।
सुकमा से दो और बीजापुर के कैंप से आठ, यानी कुल दस टीमें बनाई गई थीं, जिनका काम माओवादियों के ख़िलाफ़ सर्च ऑपरेशन चलाना था।
इसमें सीआरपीएफ़ का कोबरा कमांडो यूनिट, एसटीएफ़ और छत्तीसगढ़ पुलिस का ज़िला फ़ोर्स और डीआरजी शामिल थे। कुल मिला कर एक हज़ार से अधिक जवानों और अफ़सरों ने अभियान छेड़ा।
क्या हुआ?
तरेम से अलीपुडा और जोनागुडा दो अलग-अलग जगहों के लिए ये लोग रवाना हुए। यह जंगल का अंदरूनी इलाक़ा है। लेकिन वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला और वे लौटने लगे। लौटते हुए रास्ते में घात लगाए माओवादियों ने उन पर हमला किया और वे बुरी तरह फँस गए। इन माओवादियों के बात आधुनिक हथियार थे और वे प्रशिक्षित थे।
माओवादियों के जाल में फँस गए?
जवानों ने पाया कि जिरागाँव और टेकलागुडम गाँव पूरी तरह खाली थे। लेकिन यहां माओवादियों ने गाँव खाली करा लिया था और वहीं सुरक्षा बलों के लोगों पर हमला कर दिया।
जवानों को पीछे हटना पड़ा। कुछ लोग मारे गए। बाद में जवानों की एक टीम घायल साथियों को निकालने गई तो उन पर एक बार फिर हमला हुआ। उन्हें मजबूरन वापस लौटना पड़ा।
इस मुठभेड़ में माओवादियों का हमला इतना तीखा था कि सुरक्षा बल के लोगों को वापस भागना पड़ा। माओवादियों ने सुरक्षा जवानों पर अंडर बैरल ग्रेनेड लॉन्चर, बंदूकों और हथगोलों से हमला कर दिया।
ख़ुफ़िया नाकाम
छत्तीसगढ़ पुलिस और सीआरपीएफ़ के कोबरा फ़ोर्स का कहना है कि माओवादियों का नेतृत्व हिडमा कर रहे थे, जो बटालियन वन के कमांडर हैं।
इस मुठभेड़ से सुरक्षा बलों की नाकामी एक बार फिर उजागर हुई है।
पहली नज़र में ही साफ हो जाता है कि यह ख़ुफ़िया नाकामी थी।
राज्य ख़ुफ़िया ब्यूरो ने जानकारी दी थी कि सिलजर में 60-70 और बोडागुडा में 40-50 माओवादी जमा हो सकते हैं।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने 'इंडियन एक्सप्रेस' से कहा,
हमारी सूचना का मुख्य स्रोत माओवादियों की बातचीत को बीच में सुनना है। माओवादियों को यह पता है कि हम उनकी बातें सुनते हैं। वे हमें ग़लत जानकारी देते हैं। ऐसा पहले भी हो चुका है।
भागना पड़ा जवानों को
इस वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक़, पहले माओवादियों ने जानबूझ कर ग़लत जानकारी दी, उसके बाद जब सुरक्षा बलों के जवान उस जगह पहुँचे तो उन्हें कुछ नहीं मिला। लेकिन जब वे वापस लौटने लगे तो घात लगाए माओवादियो ने उन पर बीच में यकायक हमला कर दिया। सुरक्षा जवानों के बाद भागने का कोई विकल्प नहीं था।
दूसरी बात यह है कि एक बार में एक साथ एक हज़ार लोगों को लेकर हमला करने की रणनीति ही गलत है। इस पर फिर से विचार करना चाहिए।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने 'इंडियन एक्सप्रेस' से कहा, "बड़े ऑपरेशन में वरिष्ठ अफ़सर हवाई जहाज से एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं, बड़ी तादाद में जवानों को एकत्रित किया जाता है। इसे छुपा कर रखना मुश्किल है। नक्सलियों को सबकुछ मालूम हो जाता है।"
इसके बदले ग्रेहाउंड जैसे फ़ोर्स के ऑपरेशन ज्यादा कामयाब होते हैं। वे छोटे स्तर पर कम लोगों को लेकर ऑपरेशन करते हैं।
एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि कुछ जवान भाग कर लौट आए और कुछ वहीं डटे रहे और लड़ते हुए मारे गए।
नक्सलियों को इतना समय मिल गया कि उन्होंने मारे गए जवानों के पास से सारे हथियार लूट लिए। यह उनके जखीरे में बढ़ोतरी हुई और वे बाद में इसका इस्तेमाल कर सकते हैं।
एक दूसरा सवाल यह है कि पत्रकार तो अगले दिन आधे घंटे में ही घटना स्थल पर पहुँच गए, लेकिन सुरक्षा बल के जवानों को अधिक समय लगा। वे जब बहां गए तो फंस गए।
इन तमाम बिन्दुओं की जाँच जरूरी है। गृह मंत्रालय को यह जानना होगा कि आखिर कहां और क्या चूक हो रही है कि बार-बार सुरक्षा बल मुँह की खाता है और इसके जवान मारे जाते हैं। मोदी सरकार के सत्ता की बागडोर संभालने के बाद से कुछ बड़े माओवादी हमले :