भारत के मशहूर वरिष्ठ टीवी (एबीपी न्यूज़) पत्रकार ब्रजेश राजपूत जिन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में रामनाथ गोयनका जैसे उत्कृष्ट अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है, उनके द्वारा लिखित किताब ‘ऑफ़ द कैमरा टीवी रिपोर्टिंग के क़िस्से' वर्ष 2022 मंजुल पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित की गयी।
इस किताब के पहले भी पत्रकार ब्रजेश राजपूत ‘ऑफ़ द स्क्रीनः टीवी रिपोर्टिंग की कहानियाँ' और ‘वो 17 दिन' जैसी अन्य किताबें लिख चुके हैं जिन्हें खूब सराहा गया है। इसी प्रकार उनकी हाल ही में आयी यह किताब ‘ऑफ़ द कैमरा टीवी रिपोर्टिंग के क़िस्से' भी काफ़ी सुर्खियों में बनी है। क्योंकि इस किताब में 65 ऐसे क़िस्से हैं, जिन्हें लेखक कैमरा के माध्यम से प्रदर्शित नहीं कर पाए। ऐसे में उन्होंने इन 65 क़िस्सों को एक किताब के रूप में सहेजा है।
किताब की प्रशंसा में राहुल देव, रशीद किदवई, प्रियदर्शन जैसे अन्य वरिष्ठ पत्रकार और लेखकों ने टिप्पणियां लिखी हैं। इनमें पत्रकार राहुल देव की टिप्पणी की कुछ पंक्तियाँ यह ज़ाहिर करती हैं कि, 'पुस्तक में लिखी गयी सच्ची कहानियाँ सिद्ध करती हैं कि इतने सालों बाद भी पत्रकार ब्रजेश की मानवीय संवेदना, लेखकीय दक्षता, सजग दृष्टि तथा सधी हुई चिंतनशीलता उसके अनुभव, समझ की गहराई और सरोकारों की तरह ही निरंतर विकसित और विस्तारित हुई है'।
आगे पत्रकार प्रियदर्शन द्वारा की गयी टिप्पणी की एक पंक्ति बतलाती है कि, 'यह किताब उस दुनिया का सच बताती है, जिसे हम छोड़ते और भूलते जा रहे हैं'।
इसके आगे लेखक रशीद किदवई की टिप्पणी में लिखी गयी कई पंक्तियों में से एक पंक्ति कहती है कि, 'पत्रकार ब्रजेश के लेखन में दु:ख-सुख, राजनीति के उतार-चढ़ाव व अनेक घटनाओं का साक्षी भाव से जीवंत वर्णन है'।
लेखक इन पन्नों में वायु सेना के कैप्टन वरुण की शहादत का ज़िक्र करते हैं कि जब देश के लिए शहीद हुए जवान का पार्थिव शरीर उसके घर पहुंचता है, तब परिवार की आंखों के आंशु सूख जाते हैं। बच्चों के यह पूछने पर कि, पापा को क्या हुआ? कोई जवाब नहीं दे पाता। और इस ग़मगीन आलम में भी परिवार यही कहता है कि देश के लिए क़ुर्बान हुए मेरे लाल पर मुझे गर्व है।
आगे किताब में विदिशा जिले में मौत का कुआं, भोपाल अस्पताल में आग, बाढ़ के हालात जैसी कुछ अन्य घटनाओं का उल्लेख किया गया है जो असावधानियों और सरकार की नाकामियों से घटती हैं। ऐसी इन घटनाओं में कई जिंदगियाँ मौत में तब्दील हो जाती हैं।
किताब का एक अंश कोरोना काल का आंखों देखा हाल बयां करता है जिसमें आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। प्रवासी मजदूरों ने पलायन करते हुए भारत की धरती को पैरों से नाप दिया। कोरोना संकट में इंसान न अपनों को बचा पाया और न सपनों को।
इसके आगे कोरोना बीमारी के क़हर को खुद पर बीती बताते हुए लेखक ब्रजेश राजपूत लिखते हैं कि कोराना जब मेरे फेफड़ों तक पहुंच गया तब मुझे लगा यमराज मेरे क़रीब आ गया है। इस दौरान मेरे मुंह पर 19 घंटे ऑक्सीजन का मास्क रहता था तब ऑक्सीजन अंदर जाती थी। कोरोना बीमारी झेलने के बाद लेखक अपने अनुभव में कहते हैं कि बीमारी उतनी बड़ी नहीं, जितना बड़ा उसका डर है।
किताब का 38वां अध्याय स्वच्छता मिशन के तहत मध्य प्रदेश में बनाए गए शौचालयों में भ्रष्टाचार और बदहाली की पोल खोलता है। जिसमें यह दर्ज़ किया गया है कि मध्य प्रदेश में 2014 से लेकर पिछले साल तक 50 हजार से ज़्यादा गांव में तक़रीबन 90 लाख 56 हजार शौचालय बनाए गए। सर्वे से विदित हुआ कि लगभग 4 लाख 50 हजार घरों में शौचालय है ही नहीं। साथ ही 5 लाख 50 हजार ऐसे शौचालय सामने आए, जो किसी काम के ही नहीं थे।
इससे यह मालूम होता है कि सरकार की शौचालय योजना फलीभूत प्रमाणित नहीं हुयी, बल्कि भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी।
किताब में कुछ क़िस्से मध्यप्रदेश की सियासी उथल-पुथल पर भी लिखे गए। जिनमें इससे भी वाक़िफ़ कराया गया कि कैसे मध्यप्रदेश में कमलनाथ सरकार सत्ता में आयी और फिर कैसे हुई शिवराज सरकार की वापसी।
लेखक ने अपनों को श्रद्धांजलि भी अर्पित की है। इनमें लेखक के प्रिय नेता और एमपी के भूतपूर्व सीएम बाबूलाल गौर, पूर्व केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली, भोपाल के गैस पीड़ितों की आवाज़ जब्बार भाई और बैतूल के ज्योतिषी कुंजीलाल जैसे अन्य नाम शामिल हैं।
पुस्तक के अंतिम पन्नों में (अयोध्या) राम मंदिर के भूमिपूजन के दिन का एक वाक्या प्रस्तुत किया गया है। इसमें लिखा गया है कि लेखक को कार से टीकमगढ़ ले जा रहे चालक रामपूजन से जब लेखक पूछते हैं कि राममंदिर बनने जा रहा है तो क्या आप खुश हो? तब चालक रामपूजन कहते हैं, ‘सर्! वैसे आप बुरा मत मानना। मैं हिंदू हूं। सुबह-शाम घर पर भगवान राम की पूजा करता हूं। रामरक्षा स्तोत्र पढ़ता हूं। मगर क्या करूं सर! मन्दिर बनने की खुशी नहीं हो रही है। काम मिलने की खुशी हो रही है।’ आगे रामपूजन कहते हैं कि काम मिलेगा, तो बच्चे पाल पाऊँगा, घर चला पाऊँगा।
राम पूजन का सवाल ब्रजेश को भी कचोटता है। और लेखक बस सोचता रह जाता है।
(सतीश भारतीय एक स्वतंत्र पत्रकार है)