पटना से मुज़फ्फरपुर होते हुए मधुबनी और वहां से मोतिहारी के सफर के दौरान राष्ट्रीय राजमार्ग बुरे हाल में मिले। ट्रकों पर लदे दिल्ली की तरफ जाते मजदूर मिले। बाजारों में परेशान हाल व्यापारी मिले। महंगाई की शिकायत करते आम लोग मिले। बाढ़ से तबाह खेत मिले। जो नहीं मिला वह था बिहार का चुनाव।
न कोई झंडा-पताका, न कोई लाउडस्पीकर, न प्रचार-प्रसार। यह माहौल कहीं से कुछ भी यह इशारा नहीं कर रहा था कि अगले 20 दिनों के अन्दर बिहार में नयी सरकार बननी है। किसी को इस बात में दिलचस्पी लेते नहीं देखा कि नीतीश कुमार जाएंगे या रहेंगे। कोई यह नहीं बतिया रहा था कि चिराग पासवान एनडीए से अलग हट गये हैं तो क्या होगा।
किसी हरवाहे को न लालू प्रसाद को याद करते देखा और न किसी दाढ़ी-टोपी वाले को तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने या नहीं बनने की बहस में उलझते देखा। यह बात सड़क किनारे घूमते-फिरते लोगों की है।
काम-धंधे पर मार
आमतौर पर ढाबों पर ऐसी बातें सुनने को मिल जाती थीं। मगर ढाबे वाले तो इस बात से परेशान मिले कि ग्राहक ही नहीं आ रहे हैं। बसें कम चल रही हैं और जो चल रही हैं, वे उनके ढाबों पर रुक नहीं रहीं। अगर कोई रुक भी रही हैं तो कोई खास ऑर्डर नहीं मिलता।
सड़क से जरा नीचे उतरने पर गांवों और कस्बों में पार्टी का संदेश लेकर पहुंचे लोग ज़रूर दिखते हैं। लोग इस बात से परेशान हैं कि अब उन्हें आठ-दस कप चाय बनानी होगी। पार्टी वालों को अपनी बात रखने के लिए जितनी मेहनत करनी पड़ रही है, उतनी शायद किसी बीमा कंपनी के एजेंट को भी नहीं करनी पड़ती हो।
मधुबनी जिले के बरदाहा गांव तक पहुंचने के लिए दरभंगा के मब्बी से कुछ आगे जाकर बाएं मुड़ने पर स्टेट हाइवे तो अच्छी हालत में मिला लेकिन कुछ ही दूर जाकर बाढ़ से तबाह फसलें दूर-दूर तक निराश करती हैं। सड़कों से अलकतरा हट गया है और मिट्टी में गाड़ी खींचना मुश्किल होता है।
काम के बोझ से दबे लोग
बरदाहा एक मुसलिम बहुल गांव है। यहां सवर्ण के नाम पर एकमात्र घर कायस्थ परिवार का है। बाकी अति पिछड़े या अनूसूचित जाति के हैं। यहां की खूबसूरत मसजिद से अजान की आवाज़ साफ सुनाई देती है। बगल ही में शाम में लाउडस्पीकर से शिव चर्चा हो रही है। कुछ मजदूर सामान लादते हुए मिले। हमने जब उनसे वोट के बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि हमें वोट डालने से क्या मिलेगा। हमें तो काम चाहिए। लाख मनाने पर भी नहीं बताया कि किसे वोट देंगे। बस इतना कहा कि जो काम करेगा उसे वोट मिलना चाहिए।
हमने देखा कि छोटे मालवाहक ट्रक पर एक युवक हर घर से पंद्रह सौ रुपये प्रति क्विंटल चावल खरीद रहा है। बाजार में यही चावल ढाई हजार रुपये या इससे अधिक दर पर खरीदना पड़ता है। इनसे बातचीत में भी चुनाव का नामो-निशान नहीं मिलता है। हमें यहां मंजर हसन साहब मिले। उम्र बतायी 72 साल। डाक विभाग से रिटायर हुए हैं।
लालू के शासन पर राय
मंजर हसन कहते हैं, ‘चुनाव के बारे में क्या बात कीजिएगा। सब नेता अपना ध्यान रखते हैं और हमें तो तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है।’ उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार अच्छे लीडर हैं लेकिन उन्हें बीजेपी से मुक्त हो जाना चाहिए। उनकी नजर में लालू प्रसाद के समय में जो इत्मिनान था, वैसी बात अब नहीं है।
देखिए, बिहार चुनाव पर चर्चा-
अलीगढ़ से बारहवीं पास साहिल फवाद को पहली बार वोट देने का मौका मिला है। साहिल का कहना है, ‘लालू प्रसाद का समय नहीं देखा। नीतीश कुमार अच्छे लीडर हैं लेकिन हमारे मुद्दों पर उनकी पार्टी हमारा साथ नहीं देती। हमारे युवा लीडरों को परेशान किया जाता है तो कोई पार्टी इसके ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाती।’
यहां से आगे बढ़ने पर भी रास्ता ख़राब मिलता है। हर आदमी अपनी फसल बर्बाद होने से खिन्न नजर आता है। उन्हें फिलहाल वोट डालने की चिंता नहीं है।
मधुबनी से मोतिहारी लौटते समय मुज़फ्फरपुर के रास्ते में मर्द और औरतें माॅर्निंग वाॅक के साथ माॅर्निंग रन करते हुए मिलीं। जहां भी सड़क की हालत ख़राब थी वहां गाड़ी संभालकर चलानी पड़ रही थी। टोल प्लाजा पर भी अधिक भीड़ नहीं मिल रही थी।
मोतिहारी में भी खुले तौर पर तो चुनावी चर्चा सुनने को नहीं मिली लेकिन अपनी बैठकों में लोग जोड़-घटाव करते मिले। सब जगह इस बात की चर्चा कि कौन किसके वोट काटेगा। कौन बागी हो गया है। किसने पैसे देकर टिकट लिया है और किसे किसने वोटकटवा के तौर पर पैसे देकर खड़ा किया है।
नीतीश पर मिली-जुली राय
नीतीश कुमार के समर्थन में लोग तर्क देते हुए मिले लेकिन उनकी बातों में थकावट और असंतोष भी मिला। नीतीश कुमार के शुरू के कामों की खूब तारीफ भी मिली लेकिन इस साल लोगों को हुई परेशानी के लिए कई लोगों ने उन्हें अपशब्द भी कहे। कई लोगों ने यह तर्क दिया कि सामने वाला नीतीश से बेहतर होगा तब ही न बदलिएगा।
तेजस्वी यादव के लिए लोगों के दिलों में हमदर्दी दिखी। खासकर उनके परंपरागत वोटरों में। कई युवाओं ने दस लाख नौकरी की बात पर उनकी तारीफ की मगर कुछ लोगों ने कहा कि करके दिखावे तब न।
आटे-दाल का हिसाब
कुल मिलाकर, फिलहाल नेताओं को काफी मेहनत करनी पड़ रही है और कोरोना-लाॅकडाउन से परेशान जनता अपने घर के लिए आटे-दाल का हिसाब कर रही है। अक्सर लोग वोट देने के लिए जाने की बात पर बिल्कुल निराश मिले। लेकिन कई लोग ऐसे भी मिले कि पांच साल में एक बार तो एक वोट मिलता है। जो काम नहीं किया है, उसको हराना है। जो काम करने वाला है उसे जिताना है।