महाराष्ट्र में एक बार फिर तख्ता पलट, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए खुली राजनीतिक चेतावनी है। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य मंत्री एकनाथ शिंदे के हठ को दरकिनार करके बीजेपी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बना ही दिया और शिंदे को उपमुख्यमंत्री बनने के लिए मजबूर कर दिया। नीतीश और शिंदे में एक समानता है।
दो साल पहले शिंदे जब उद्धव ठाकरे से बगावत करके बीजेपी के पाले में आए थे तब बीजेपी के विधायकों की संख्या ज़्यादा थी। तब बीजेपी के निशाने पर उद्धव थे इसलिए बीजेपी ने शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन 2024 के विधान सभा चुनावों में बीजेपी के शानदार प्रदर्शन के बाद भी जब शिंदे मुख्यमंत्री बने रहने के लिए बाल हठ पर उतर आए तो बीजेपी ने अपना तेवर दिखा दिया। शिंदे भूल गए थे कि उन पर लगाम रखने के लिए ही बीजेपी ने अजित पवार को पहले से ही खड़ा कर रखा था।
पाला बदल कर बचे नीतीश
नीतीश बार बार पाला बदल कर बीजेपी को बिहार में छकाते रहे हैं। 2020 में बिहार में बीजेपी के विधायकों की संख्या 74 और जेडीयू की 43 होने के बावजूद नीतीश मुख्यमंत्री बन गए। लेकिन क़रीब दो साल पहले जब बीजेपी ने मिशन महाराष्ट्र के तहत शिंदे की बगावत के ज़रिए उद्धव को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतार दिया तो अपनी पार्टी टूटने के डर से घबराए हुए नीतीश फिर से लालू यादव की शरण में चले गए। लालू की पार्टी आरजेडी के विधायकों की संख्या भी नीतीश की पार्टी जेडीयू से लगभग दूनी (75) थी, फिर भी वो मुख्यमंत्री बने रहने में कामयाब रहे।
2024 के लोक सभा चुनावों से कुछ पहले नीतीश एक बार फिर बीजेपी के शरण में गए और मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने में सफल रहे। ये बात बीजेपी के स्थानीय नेताओं को पच नहीं रही है फिर भी वो केंद्रीय नेतृत्व के दबाव में चुप हैं। सवाल ये है कि 2025 के विधान सभा चुनावों के बाद क्या होगा? फ़िलहाल नीतीश सुरक्षित हैं। बीजेपी और जेडीयू दोनों को उनकी ज़रूरत है। बीजेपी उनके बग़ैर विधान सभा में जीत की उम्मीद नहीं कर सकती। इसलिए विधान सभा चुनावों से पहले उन्हें छेड़ा नहीं जाएगा।
बिहार के अजित पवार
बीजेपी की मुश्किल ये है कि बिहार में अजित पवार जैसा कोई नेता नहीं है, जिसे शिंदे की तरह नीतीश के समानांतर खड़ा किया जा सके। नीतीश से बगावत के बाद पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी दो - चार सीटों वाले नेता बन कर रह गए हैं।
चिराग पासवान का दायरा भी सीमित है। चिराग को काबू में रखने के लिए बीजेपी ने पहले उनके चाचा पशुपति पारस को आगे किया। मोदी भक्ति और जन समर्थन के कारण चिराग को लोकसभा चुनावों से पहले अपने पिता रामबिलास पासवान की विरासत वापस मिल गयी। लेकिन पशुपति भी अब तक बीजेपी के दर पर ही पड़े हुए हैं।
उपेंद्र कुसवाहा को नीतीश के बरक्स खड़ा करने की मुहिम पहले ही असफल हो चुकी है। बिहार की राजनीति चार पार्टियों के इर्द गिर्द घूमती है। बहुत कोशिश के बाद भी आरजेडी के वोट बैंक में सेंध नहीं लग पाया है। लालू के कई वरिष्ठ सहयोगियों को बीजेपी अपने पाले में ले गयी, लेकिन उनमें से कोई भी न तो शिंदे बन पाया और न अजित पवार। लालू और तेजस्वी की जोड़ी ने कांग्रेस के साथ-साथ वामपंथी पार्टियों को भी अपने साथ जोड़ रखा है।
बीजेपी के पास ले दे कर जेडीयू और नीतीश का ही आसरा रह गया है। चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कुछ महीनों पहले अपनी अलग पार्टी बना कर विधान सभा का उप चुनाव लड़ा तब राजनीति के कई विशेषज्ञों का कहना था कि प्रशांत को पर्दे के पीछे से बीजेपी का समर्थन प्राप्त है। चार क्षेत्रों के उप चुनाव में आरजेडी खेमा की दो सीटों पर हार प्रशांत किशोर के जन सुराज पार्टी की उपस्थिति को माना जा रहा है। तो क्या 2025 के विधान सभा चुनावों में प्रशांत किशोर को अजित पवार जैसी कोई चमत्कारिक सफलता मिल पाएगी। प्रशांत की थोड़ी भी सफलता नीतीश की राजनीति के लिए चुनौती साबित हो सकती है।