बिहार के चुनाव झमाझम आ गए लगते हैं। वहां चौथे या पाँचवें नंबर की पार्टी कांग्रेस भी तैयारियों के साथ मैदान में आती लगती है। बीजेपी, राजद, जदयू और भाकपा-माले की तैयारियां तो कब से चल रही हैं। बल्कि भाजपा की तैयारियाँ तो उसी दिन से शुरू लगती हैं जब नीतीश कुमार पाला बदलकर उसके साथ आ गए। बीजेपी ने एक और असंभव सा काम लोकसभा चुनाव में भी कर लिया था जदयू, जीतनराम मांझी और चिराग पासवान वाली एलजेपी के साथ सफलतापूर्वक गठबंधन बनाना और राज्य में भारी सफलता पाना। राजद ने भी कांग्रेस के साथ ही सारे वामपंथी दलों और मल्लाह पार्टी विकासशील भारत पार्टी को साथ लेकर चुनाव लड़ा। और अगर दम हो तो ऐसे भारी गठबंधन और दो ध्रुवीय लड़ाई के बीच में जीत हासिल की जा सकती है, यह पप्पू यादव ने दिखाया। गायक पवन सिंह ने बागी बनाकर कई सीटों पर असर डाला।
पर सबको लगता है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में फर्क होगा। और यह भी माना जा रहा है कि अगर नीतीश कुमार एक और पलटी न मारें और एनडीए एकजुट रहे तो उसकी जीत होनी चाहिए। पर पिछली बार तेजस्वी यादव ने जैसी और जितनी नज़दीकी टक्कर दी थी उसमें उनकी चुनौती को खारिज करना एक भूल हो सकती है।
नीतीश कुमार वाली शर्त लगाने के पीछे उनका रिकॉर्ड तो है ही, एनडीए में उनका व्यवहार भी है। वे खुद दो बार दिल्ली आकर किसी बड़े नेता से मिले बगैर चले गए और दिल्ली में भाजपा सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं आए। राज्य में भाजपा के अतिवादी नेता जब तब अपने बयानों और गतिविधियों से उनके धैर्य और सेकुलरिज्म की परीक्षा भी लेते रहे हैं और इसमें उनका गुस्सा कभी भी भड़क सकता है। अब उनका ज्यादा कुछ दांव पर नहीं है। पर यह सब दोयम महत्व का मसला है। असली चीज है महाराष्ट्र में नीतीश फार्मूले से शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना और फिर किनारे करना। और अब वही शिंदे फार्मूला बिहार में लागू होता दिखता है क्योंकि भाजपा और लोजपा बार बार उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने की घोषणा तो कर रहे हैं लेकिन चुनाव के बाद उनको ही मुख्यमंत्री बनाए रखने की चर्चा सिरे से गायब है।
आज शिंदे दूध में पड़ी मक्खी बन चुके हैं। बीस साल राज करने के बाद नीतीश जी का कद अब काफी बड़ा हो चुका है लेकिन थकान और ऊब भी दिखाई देने लगी है। उनकी स्थिति कुछ अजीब हो गई है। इतने लंबे राजनैतिक करियर में कोई दाग नहीं है और उन्होंने बिहार में काफी काम भी किया है, अपने राजनैतिक आदर्शों के अनुरूप आचरण भी किया है। लेकिन उनसे ऊब भी है और उनके अंदर भी ऊब दिखती है। बिना ‘अपराध’ मुजरिम बनने का उनसे बढ़िया उदाहरण नहीं है और यह चीज सबसे ज्यादा उनके खुद के सोचने की है।
बीते तीसेक साल से और मोदी-शाह की जोड़ी के नेतृत्व में तीसरे चुनाव में उतरते हुए बीजेपी पूरी चुस्त दुरुस्त और मुस्तैद लगती है। चुनाव में तेजस्वी यादव या लालू परिवार और कांग्रेस की घेरेबंदी से लेकर नीतीश कुमार की घेरेबंदी तक में। साधन और संगठन की बात ही कौन करेगा। पर बार-बार बिहार के हाथ न आने से यह भी लगता है कि इस बार स्थितियां कोई बदली नहीं हैं। कोई स्थानीय चेहरा ऐसा नही है जिसके नाम पर दो चार सीटों का इजाफा होगा। सुशील मोदी, शत्रुघ्न सिन्हा, नन्द किशोर यादव और रविशंकर प्रसाद जैसों को किनारे करने के बाद जितने उपमुख्यमंत्री भी बनाए गए उनमें से कई तो अपनी सीट भी नहीं बचा पाए। अगड़ों के मुख्य हिस्से पर उनका असर है लेकिन बीते 35 साल से पिछड़ा राज रहा बिहार इस आधार की प्रतिक्रिया में दूसरी तरफ़ जा सकता है- मुसलमान, दलित ही नहीं, ओबीसी एकदम छिटक सकता है। इसलिए नीतीश कुमार मजबूरी और ज़रूरी हैं। भाजपा के पास न ओबीसी आधार है न बड़ा नेता। अगर कोइरी वोटर गोलबंद होकर यादव तेजस्वी के सामने आ सकता है तो उसका बड़ा नेता भी उपेंद्र कुशवाहा ही हैं, सम्राट चौधरी का वह प्रभाव नहीं है। पर भाजपा के लिए वह सवाल ज्यादा परेशानी का नहीं है।
पिछली बार तेजस्वी यादव ने अचानक से रोजगार के सवाल को दमदार ढंग से उठाकर सबको बैकफूट पर ला दिया था और चुनाव लगभग जीतने जैसी स्थिति में आ गए थे।
राजद क्यों हारा, कैसे हारा यह सब अब दोहराने की चीज नहीं है लेकिन तेजस्वी का वह प्रदर्शन सबको हैरान कर गया। और यह कहने में भी हर्ज नहीं कि लोकसभा चुनाव में बढ़िया तालमेल बनाने और मुक़ाबले को दो ध्रुवीय बनाने के बावजूद वे खुद भी विधानसभा जैसा असर नहीं डाल पाए। लेकिन इस बीच आरक्षण और जातिगत सर्वेक्षण के सवाल पर काफ़ी कुछ हुआ। नेतृत्व नीतीश कुमार का ही रहा, लेकिन बात आँकड़े जुटाने, उसके अनुसार आरक्षण का कोटा बढ़ाने और सरकारी फ़ैसला कर लेने तक में राजद का दबाव हर कोई महसूस कर रहा था। दूसरी ओर बीजेपी मजबूरी में साथ खड़ी रही लेकिन उसने सुप्रीम कोर्ट में सर्वेक्षण रोकने का प्रयास करने से लेकर आरक्षण के बढ़े कोटे पर अदालती रोक तक में संदेहास्पद भूमिका निभाई और अब केंद्र और राज्य दोनों जगह शासन में होकर उसे लागू कराने के लिए ज़रूरी क़दम तो नहीं ही उठा रही है।
अब अचानक तेजस्वी यादव ने अपने विधायकों की बैठक और धरना के ज़रिए अरक्षण के बढ़े हुए 16 फ़ीसदी के सवाल को केंद्र में ला दिया है। उनका कहना है कि नीतीश कुमार और उससे भी बढ़ाकर बीजेपी ने दलितों, आदिवासियों, औरतों और ओबीसी समाज को मिले अतिरिक्त 16 फीसदी आरक्षण के हक को मार लिया है, चुरा लिया। अब कोटा 65 से वापस 49 फीसदी पर आ गया है। ये लोग आरक्षण चोर हैं। भाजपा लालू परिवार के लिए चारा चोर और सर्टीफायड चोर जैसे जुमले उठाकर उसका जबाब देने की कोशिश कर रही है पर बिहार जैसे राज्य में यह सवाल दब नहीं रहा है।
बिहार में न सिर्फ पिछड़ों का भारी बहुमत और ध्रुवीकरण है बल्कि यहां मुसलमानों की अच्छी-खासी आबादी है। आरक्षण और जातिगत जनगणना का सवाल राजद और कांग्रेस के बीच की खटर-पटर को ख़त्म करने का आधार बन सकता है। वामदलों का समर्थन भी इस सवाल पर नहीं डगमगाएगा। दूसरी ओर यह सवाल एनडीए के गैर भाजपाई दलों को जबाब देने और अपना पोजीशन लेने के लिए मजबूर कर सकता है। पर यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि 35 साल से पिछड़ा राज वाले बिहार में आरक्षण का सवाल नए सिरे से राजनैतिक उबाल लाता है या नहीं। भाजपा यही सोचकर हिन्दू एकता और ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है। राजनीति मंडल बनाम कमंडल होती है या मंडल की नई लहर भाजपा की सारी तैयारियों पर पानी फेरेगी, यह देखने की चीज होगी। पर यह बिहार है, यह याद रखना होगा।