दिल्ली में मौसम जितना प्रचंड हो रहा है, राजनीतिक पारा भी उतना ही बढ़ता जा रहा है। राजधानी में आमतौर पर इतनी गर्मी में चुनाव नहीं हुआ करते। नगर निगम चुनाव दिसंबर में हुए थे तो विधानसभा चुनाव फरवरी में। दिल्ली की सात लोकसभा सीटों पर 2014 में दस अप्रैल को और 2019 में 12 मई को मतदान हो चुका था। इस बार 25 मई को तब चुनाव कराए जा रहे हैं जब गर्मी अपने पूरे यौवन पर होगी। मौसम विभाग का पूर्वानुमान है उस दिन तापमान 46 डिग्री को भी पार कर सकता है। निश्चित रूप से मौसम भी राजनीतिक समीकरणों को बदलने में सक्षम हो सकता है।
बीजेपी पिछले दो लोकसभा चुनावों से सातों सीटें जीतकर क्लीन स्वीप करती आ रही है। इस बार भी उसे यही उम्मीदें हैं। दिल्ली में बीजेपी ने एंटी इनकम्बेंसी को खत्म करने के लिए वह फॉर्मूला अपनाया जो 2017 में नगर निगम में लागू किया था। तब उसने अपने सारे उम्मीदवार बदल डाले थे और इस बार भी सात में से 6 उम्मीदवारों को बदलकर एक बड़ा जोखिम उठाया। अगर दिल्ली में आप और कांग्रेस में सीट शेयरिंग नहीं हुई होती तो शायद बीजेपी ऐसा नहीं करती लेकिन दोनों पार्टियों का गठबंधन होते ही उसने यह दांव खेल दिया।
बीजेपी के उम्मीदवारों की बात करें तो कोई नहीं मान सकता था कि नई दिल्ली से इस बार मीनाक्षी लेखी का टिकट कट सकता है। पिछली बार 2019 में तो ऐसा लगता था कि वह बीजेपी कार्यकर्ताओं के साथ पटरी नहीं बिठा पाई लेकिन इस बार तो केंद्रीय मंत्री बनने से उनका प्रोफाइल काफी वजनदार हो गया था लेकिन उनकी जगह बांसुरी स्वराज को टिकट दिया गया। पश्चिम दिल्ली से प्रवेश वर्मा का टिकट कटने की संभावना तो किसी को भी नहीं रही होगी लेकिन उनकी जगह कमलजीत सहरावत को उतारकर बीजेपी ने सभी को चौंका दिया। दक्षिण दिल्ली से रमेश बिधूड़ी लगातार जीतते आ रहे हैं लेकिन वह भी अपनी सीट नहीं बचा पाए और उनकी जगह विधानसभा में विपक्ष के नेता रामवीर सिंह बिधूड़ी जैसा बड़ा नाम आ गया।
पूर्वी दिल्ली से गौतम गंभीर खुद बैकआउट कर गए तो चांदनी चौक से डॉ. हर्षवर्धन और उत्तर-पश्चिम दिल्ली से हंसराज हंस को रिपीट न करने की बातें पहले से ही चल रही थीं। बीजेपी ने सिर्फ उत्तर-पूर्वी दिल्ली से मनोज तिवारी को तीसरी बार टिकट दी और इसकी वजह यह है कि आम आदमी पार्टी ने पश्चिम दिल्ली से महाबल मिश्रा को उतारकर पूर्वांचल कार्ड खेल दिया था और इस कोटे से दिल्ली में मनोज तिवारी के अलावा और बड़ा कोई नाम दिखाई नहीं देता।
न जाने क्यों आम आदमी पार्टी ने लोकसभा के लिए अपने सबसे मजबूत उम्मीदवारों को नहीं उतारा। आम आदमी पार्टी के हिस्से जो चार सीटें आई, उनमें सिर्फ पश्चिमी दिल्ली की सीट ऐसी है जहां कांग्रेस के पूर्व सांसद रहे महाबल मिश्रा ही भारी-भरकम उम्मीदवार नजर आए। बाकी सभी उम्मीदवारों का राजनीतिक कद लोकसभा का चुनाव लड़ने लायक तो नहीं था। हालांकि बीजेपी की ओर से नई दिल्ली से बांसुरी स्वराज राजनीति की नई खिलाड़ी हैं और अभी कुछ दिन पहले ही उन्हें दिल्ली प्रदेश बीजेपी में पदाधिकारी बनाया गया है लेकिन अपनी मां सुषमा स्वराज की राजनीतिक विरासत के भरोसे उन्हें हाई प्रोफाइल मान लिया गया। उनके मुकाबले आम आदमी पार्टी ने सोमनाथ भारती 2013 में मंत्री बनने के बाद से ही जिस तरह विवादों में घिरे रहे हैं, उससे जनता में उनकी छवि बहुत अच्छी नहीं रही। विदेशी महिलाओं से दुर्व्यवहार से लेकर पुलिसवालों से उलझना या नगर निगम के अमले पर बरस जाना उन्हें जनता की निगाहों में वजनदार उम्मीदवार नहीं मानते।
इसी तरह दक्षिण दिल्ली के संभ्रांत और शिक्षित मतदाताओं के सामने सहीराम पहलवान को उतारना समझदारी वाला फैसला नहीं कहा जा सकता। पूर्वी दिल्ली संसदीय सीट से कुलदीप कुमार को भी सही चयन नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह रिजर्व सीट नहीं है और इसमें सबसे ज्यादा मिडिल क्लास आबादी है जिसमें वैश्य और पंजाबी बड़ी संख्या में हैं। अगर आप गौर करें तो विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी दिल्ली में कुल मिलाकर आठ सीटें जीतीं जिनमें से तीन पूर्वी दिल्ली और तीन उत्तर-पूर्वी यानी यमुनापार से जीती है।
नगर निगम चुनाव में 2022 में भी पूर्वी दिल्ली और उत्तर-पूर्वी दिल्ली में बीजेपी ने 21-21 सीटें जीती थीं जबकि आम आदमी कुल 28 सीटें जीत सकी। अगर नगर निगम का एकीकरण न हुआ होता तो बीजेपी पूर्वी दिल्ली नगर निगम में सत्ता में होती। इसलिए यहां के मतदाताओं की नब्ज आम आदमी पार्टी इस बार भी नहीं पकड़ पाई। ऐसे में पिछली बार की तरह इस बार भी आतिशी को क्यों नहीं उतारा गया? दक्षिण दिल्ली से सौरभ भारद्वाज बेहतर उम्मीदवार साबित हो सकते थे।
कांग्र्रेस के उम्मीदवारों के चयन को लेकर तो जो बगावत हुई, वह सभी के सामने है। चांदनी चौक से जयप्रकाश अग्रवाल को छोड़कर अपने हिस्से की दोनों सीटों पर कांग्रेस ने ऐसे उम्मीदवार उतारे जो उसके कार्यकर्ताओं को स्वीकार नहीं थे। एक तो उम्मीदवारों का चयन ही बाकी पार्टियों से बहुत देरी से हुआ और उसके बाद उत्तर-पूर्वी दिल्ली से कन्हैया कुमार और उत्तर-पश्चिम दिल्ली से उदित राज के पीछे कांग्र्रेस कार्यकर्ताओं का ऐसा हजूम नजर नहीं आता जो उनकी नैया को पार लगाता हुआ दिखाई दे।
यह सच है कि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के मिलकर चुनाव लड़ने से बीजेपी को जबरदस्त चुनौती मिल रही है। अगर 2014 में इन दोनों पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ा होता तो दिल्ली की सात में से छह सीटों पर जीत जाते। सिर्फ पश्चिमी दिल्ली ही ऐसी सीट थी जहां बीजेपी को मिले वोट दोनों पार्टियों के कुल वोटों से भी ज्यादा थे। वरना बाकी सभी सीटों पर बीजेपी ने वोट बंटने के कारण बाजी मारी। 2014 में बीजेपी को कुल 46.40 फीसदी वोट मिले थे जबकि कांग्र्रेस के 15.10 और आप के 32.90 का टोटल 48 फीसदी हो जाता है। मगर, 2019 में ऐसी एक भी सीट नहीं थी जो बीजेपी को हार की स्थिति में लाती क्योंकि उसे कुल 56.9 फीसदी वोट मिले थे। कांग्रेस को 22.5 और आम आदमी पार्टी को 18.1 प्रतिशत वोट मिले थे।
जहां तक इस बार की बात है तो अब तक के अनुमानों केे अनुसार नई दिल्ली, उत्तर-पश्चिम दिल्ली और दक्षिण दिल्ली पर बीजेपी प्रचार में काफी आगे मानी जा रही है। हालांकि अरविंद केजरीवाल को चुनाव प्रचार के लिए जमानत मिलने के बाद आम आदमी पार्टी के जोश का जवाब नहीं है लेकिन बीजेपी ने जिस तरह आप की ईमानदार छवि को नुकसान पहुंचाया है और अब स्वाति मालीवाल कांड हुआ है, उससे आप को जवाब देना भारी पड़ गया है।
नई दिल्ली में मोदी नाम का जादू साफ दिखाई देता है। यहां की सभी दस सीटें आप के पास होने के बावजूद सोमनाथ भारती भारी नहीं पड़ रहे। नई दिल्ली इलाके से लेकर आर.के. पुरम तक सरकारी कर्मचारियों की कॉलोनियों में बीजेपी हावी है। इसी तरह दक्षिण दिल्ली में भले ही दोनों उम्मीदवार गुर्जर हैं लेकिन सहीराम पहलवान बीजेपी उम्मीदवार रामवीर सिंह बिधूड़ी के समक्ष टिकते दिखाई नहीं देते। गांवों में बिधूड़ी का अपना वजूद है तो पॉश कॉलोनियों में बीजेपी के समर्थक बहुत ज्यादा हैं। इसी तरह दिल्ली के एकमात्र रिजर्व क्षेत्र उत्तर-पश्चिम दिल्ली में बीजेपी के योगेंद्र चंदोलिया भले ही बड़ा नाम नहीं हों लेकिन उदित राज यहां से बीजेपी के सांसद रह चुके हैं लेकिन वह अपने संपर्क और छवि नहीं बना सके। वैसे भी कांग्र्रेस के पूर्व मंत्री राजकुमार चौहान के नेतृत्व में इतनी बड़ी बगावत हुई है कि उदित राज के लिए जंग और भी मुश्किल हो गई है। कांग्रेस ने कार्यवाहक प्रदेश अध्यक्ष देवेंद्र यादव इसी इलाके के हैं लेकिन जो नुकसान हो चुका है, उसकी भरपाई कर पाना उनके बस की बात नहीं है।
यमुनापार की दोनों सीटों के साथ-साथ चांदनी चौक की सीट को विपक्षी गठबंधन इंडिया के लिए इसलिए मुफीद कहा जा रहा है कि मुस्लिम वोट एकजुट होकर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के पीछे हैं। उत्तर-पूर्वी दिल्ली की चार विधानसभा सीटों सीलमपुर, मुस्तफाबाद, बाबरपुर और सीमापुरी में मुस्लिम मतदाता करीब 40 फीसदी है और उनका वोटिंग प्रतिशत भी 80-90 फीसदी तक पहुंच जाता है। इसके अलावा बुराड़ी और करावल नगर विधानसभा सीट पर केजरीवाल के मुफ्त सुविधाओं वाले वोटर ज्यादा हैं लेकिन उनमें से बहुत बड़ी संख्या पूर्वांचल के लोगों की भी है। इसलिए वहां से कांग्रेस के कन्हैया कुमार वर्तमान सांसद मनोज तिवारी को टक्कर देते दिखाई देते हैं। बीजेपी के गढ़ वाले इलाके घोंडा, रोहतास नगर और तिमारपुर बचते हैं। चूंकि इस सीट पर मुस्लिम मतदाता कांग्रेस के पक्ष में एक नजर आते हैं तो हिंदू ध्रुवीकरण से भी इनकार नहीं किया जा सकता।
पूर्वी दिल्ली की सीट पर भी ओखला मुस्लिम बाहुल्य होने और कोंडली, कल्याणपुरी, त्रिलोकपुरी के रिजर्व क्षेत्र होने से आम आदमी पार्टी वहां आगे नजर आती है लेकिन उसके बाद तमाम विहारों के साथ-साथ गांधी नगर, कृष्ण नगर, विश्वास नगर, शाहदरा वगैरह ऐसे इलाके हैं जहां बीजेपी का गढ़ है। पूर्वी दिल्ली की दस सीटों में से तीन पर बीजेपी काबिज है। इसके अलावा अरविंदर सिंह लवली और उसके पक्षधर भी इसी इलाके से हैं जिसका नुकसान कांग्रेस यानी आम आदमी पार्टी को होगा।
अगर बात करें चांदनी चौक की तो निश्चित रूप से यहां कांग्रेस के जयप्रकाश अग्रवाल से बड़ा नाम कोई नहीं है। बीजेपी के प्रवीण खंडेलवाल के ताऊ सतीश खंडेलवाल को भी जेपी हरा चुके हैं। प्रवीण खंडेलवाल विधानसभा चुनाव भी नहीं जीत पाए थे। मगर, जेपी यहां से तब जीते थे जब चांदनी चौक सीट का स्वरूप बहुत छोटा था और यहां केवल चार विधानसभा क्षेत्र थे। अब यहां दस विधानसभा इलाके हैं और सीट का दारोमदार चांदनी चौक, मटिया महल और बल्लीमारान इलाकों पर ही नहीं है। निश्चित रूप से इन इलाकों के मुस्लिम मतदाता एकजुट होकर कांग्रेस के पीछे हैं लेकिन शालीमार बाग, वजीरपुर, अशोक विहार, शकूर बस्ती, त्रिनगर और रोहिणी तक फैली इस सीट का रूप-स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। ऐसे में जेपी को अपनी अपनी साख के अनुसार अपनी लोकप्रियता सभी जगह साबित करनी होगी।
जहां तक पश्चिमी दिल्ली का सवाल है तो यहां काफी हद तक सिख मतदाताओं के रुख पर निर्भर करता है। मनजिंदर सिंह सिरसा यहां बीजेपी की उम्मीदवार कमलजीत सहरावत के समर्थन में सिखों को लाने की कोशिश में जुटे हैं लेकिन इस संसदीय क्षेत्र की सभी दस विधानसभा सीटें आप के कब्जे में हैं। सिरसा की सिखों पर कितनी चल पाएगी, इसकी परीक्षा भी अभी होनी है क्योंकि यह पहला चुनाव है जब शिरोमणि अकाली दल दोनों में से किसी भी मोर्चे के साथ नहीं है।
पांच विधानसभा इलाके यानी राजौरी गार्डन से जनकपुरी तक सिख मतदाताओं का बाहुल्य है और बाकी पांच इलाके जो उत्तम नगर से द्वारका तक जाते हैं, मिश्रित आबादी है। आम आदमी पार्टी के महाबल मिश्रा 2009 में यहां से कांग्रेसी सांसद रह चुके हैं लेकिन वह उस दौरान जीते थे जब देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। मनमोहन सिंह ने तिलक नगर में एक जनसभा करके सिखों की इज्जत की दुहाई दी थी और तमाम सिख मतदाता उनके पीछे हो गए थे। इस बार ऐसा नहीं है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारका में रैली करके पासा पलटने की कोशिश कर रहे हैं।
इन सबके साथ मौसम एक जबरदस्त फैक्टर है। जिस तरह से पांच फेज में वोटिंग कम हो रही है और दिल्ली का मौसम लगातार तपाता जा रहा है, इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि कितने लोग वोट डालने के लिए आते हैं। स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां हो जाने के कारण लोग दिल्ली की इस गर्मी से दूर जा रहे हैं। तपते सूरज के तले कितने लोग खड़े होकर वोट डालने के लिए अपनी बारी का इंतजार करेंगे। हालांकि ऐसा माना जाता है कि बीजेपी का अपना 38 से 40 फीसदी तक काडर वोट है लेकिन 2022 के नगर निगम के चुनावों में यह काडर वोटर भी बाहर नहीं निकला था कुल 50 फीसदी मतदान ही हुआ था। अगर ऐसा कुछ हो गया और मतदान कम हुआ तो फिर सारे आंकड़े और समीकरण धरे रह सकते हैं।