अगर भारत के हीं नहीं दुनिया के सबसे अमीरों में शामिल अंबानी या अडानी आज भी पैसे के लिए तमाम “जुगत” करते हैं तो किसी गरीब को कुछ पैसे (तथाकथित रेवड़ी) या अनाज दे कर यह मान लेना कि वह निकम्मा हो जाएगा, प्रकृति के नियमों के विपरीत शोषणकारी सोच है. ये रेवड़ियां गरीब की केवल सांस चला सकती हैं उनकी अन्य मौलिक जरूरतें नहीं पूरी करत सकतीं.
लिहाज़ा सर्वोच्च न्यायालय के जज जस्टिस (अगले सीजेआई) बीआर गवई का एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील प्रशांत भूषण के तर्क को एक झटके में ख़ारिज करते हुए यह कहना कि “मैं गाँव का हूँ और मुझे मालूम है कि गरीब ने फ्रीबीज लेकर श्रम करना छोड़ दिया है”, अतार्किक अवधारणा है.
यह तर्क औसत दर्जे के ग्रामीण अभिजात्य वर्गीय समाज में जमींदारी की मानसिकता में आम तौर पर दिए जाने वाले उस तर्क की तरह है जिसमें कहा जाता है “छोटे लोगों को मुंह न लगाओ, ये सिर पर चढ़ने लगते हैं” या “गरीबों के हाथ में ज्यादा पैसा दोगे तो उनका दिमाग खराब हो जाता है और वे काम करना छोड़ देते हैं”.
फ्रीबीज से ऐतराज का असली कारणः एक मशहूर किस्सा है. जंगल में जब शेर शिकार करता है तो सियार उसके साथ दौड़ता है. लालच यह होता है कि शेर जब शिकार से पेट भर लेगा तो बचे-खुचे से सियार का भी पेट भर जाएगा. एक बार एक हिरन के पीछे शेर झपटा. पीछे-पीछे सियार था. लम्बी दौड़ के बावजूद हिरन शेर को छका कर निकल गया.
व्यंग कसते हुए सियार ने शेर से कहा “हुजूर, आप तो जंगल के सबसे ताकतवर राजा हैं. ये कमबख्त पिद्दी से हिरन ने आपको कैसे हरा दिया?”. शेर ने सियार को हिकारत से देखते हुए कहा “अरे मूर्ख, इतना भी नहीं जनता कि दोनों के “स्टेक्स” में अंतर था. अगर मैं जीत जाता तो उसकी तो जान जाती लेकिन वह जीतता तो उसे जिन्दगी मिलती”. इसी का रिवर्स पहलू है “मरता, क्या न करता”.
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शोषण की बुनियाद में ही है “स्टेक्स” में अंतर होना.
पूरी दुनिया में दरअसल श्रम का मूल्य तय करने में मालिक का वर्चस्व इसलिए होता है कि उसकी जरूरत पूंजी बढ़ाने की होती है जबकि मजदूर की पेट की आग बुझाने की. लिहाज़ा वह हर शोषण झेलता रहता है.
फ्रीबीज ने, खासकर पांच किलो मुफ्त अनाज या 17 रुपये रोज के किसान सम्मान निधि ने उस गरीब के पेट की आग बुझा दी जो शोषणकारी व्यवस्था नहीं चाहती थी. अब वह गरीब अपने श्रम के मूल्य के लिए कुछ बार्गेन करने की स्थिति में हैं. उसका पहला कदम है श्रम का मूल्य बढ़ाओ वरना हम चद्दर तान के सोते हैं. इस पर अभिजात्य वर्ग मचल रहा है, गुस्से से उबल रहा है और उसे निकम्मा बता रहा है.
ताज्जुब यह है कि देश के देश के सर्वोच्च न्याय संस्था की कुर्सी पर बैठे जज भी इस तर्क-दोष के ट्रेप में आ गए.
पिछले दो दशकों के रिकॉर्ड बताते हैं कि कृषि में टर्म्स ऑफ़ ट्रेड (लगत और आय में संबंध) नेगेटिव रहा है. यही स्थिति श्रम के मूल्य को लेकर रही है. जरा सोचें. अगर श्रम का मूल्य पिछले तमाम वर्षों में नकारात्मक रहा है जबकि निजी उद्यमियों और कॉर्पोरेट हाउसेज की कमाई बढ़ती गयी है तो मुफ्त रोटी मिलने पर गरीब श्रम के प्रति या तो उदासीन होगा या अपनी बारगेनिंग क्षमता बढ़ाएगा.
फिर हल क्या हैः ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था में भी किसान को उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिलेगा तो वह मजदूर को ज्यादा नहीं दे पायेगा. गेंहूं के मूल्य से महंगाई आती है लेकिन इसी से बने पिज्जा का रेट बढ़ना अभिजात्य वर्ग को नहीं सालता. लिहाज़ा यह सोचना फ्रीबीज न दे कर उन गरीबों को काम करने के लिए मजबूर कर समाज की “मुख्यधारा का हिस्सा” बनाना चाहिए और उन्हें “राष्ट्र के विकास में योगदान का मौका” देना चाहिए, दोषपूर्ण है.
अगर पिछले 35 वर्षों से हर 40 मिनट पर देश का एक किसान-मजदूर आत्महत्या कर रहा हो और रोज 1500 किसान-मजदूर खेती छोड़ शहरों में रिक्शा चलाने, खोमचा लगाने आ रहा हो, तो बीमारी की जड़ में जाएं. जाड़ा-गर्मी-बरसात में हाड़तोड़ मजदूरी भी अगर दो जून की रोटी से आगे न बढ़ा सकती हो, तो जीवन के प्रति किस उत्साह से वह ऐसा मेहनत करे? सरकारी कर्मचारी की तरह उसे मोटी पगार और समयबद्ध वेतन आयोग, मुफ्त इलाज, सवेतन छुट्टी, एलटीसी की सुविधा हो तो वह भी समाज की मुख्यधारा में स्वतः कूद पड़े.
सीजेआई भूल गए कि गलत आर्थिक नीतियों से लगातार बढती गरीब-अमीर की खाई में गरीब को “परजीवी” उसके आलस्य ने नहीं, उस सिस्टम ने बनाया है जिसमें, बकौल एम्स रिपोर्ट, 77 प्रतिशत नवजात (6-23 माह) को न्यूनतम अनुमन्य पोषक तत्व नहीं मिल पाते जिससे हर तीसरा बच्चा नाटा पैदा होता है.
मी लार्ड! उस गरीब को मुख्यधारा में लाने और राष्ट्र के विकास में भागीदार बनाने के लिए उसके बच्चों को वही शिक्षा दिलाएं जो आपको आपके पिता (एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री) ने और आपने अपने बच्चों को दी है.
डब्ल्यूएचओ का मानना है कि कुपोषित बच्चों की कोगनिटिव फैकल्टी आजन्म कमजोर रहती है लिहाज़ा वे दिमागी दौड़ में पीछे हो जाते हैं और केवल श्रम ही बेच सकते हैं.
दोष फ्रीबीज में मूलतः शोषणकारी है. लिहाज़ा फ्रीबीज का दानवीकरण करने की जगह गरीबों की स्थिति बेहतर करना होगा.
(लेखक ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) पूर्व महासचिव हैं)