दुनिया के सबसे खूबसूरत देश माने जाने वाले स्विट्जरलैंड के शहर ज्यूरिख से क़रीब 260 किलोमीटर दूर बर्फ से ढकी पहाड़ों में इस बार जब माइनस सात डिग्री के मौसम में जब पूरे विश्व से उद्योगपति और इकानामिस्ट जुटे तो सबके मन में यही चिंता थी अब आने वाले 25 साल में दुनिया कैसी होगी। दावोस के 21 से 24 जनवरी के प्रवास में मुझे समझ आ गया कि ये सम्मेलन केवल पर्यावण और सतत विकास के नारों के साथ होने वाले बाक़ी सम्मेलनों से कितना अलग है क्योंकि इस सम्मेलन में बात केवल पर्यावरण और विकास की नहीं हो रही थी बल्कि दुनिया भर में बदलते माहौल और चुनौतियों के दायरे में हर बात पर बात होती रही।
कोविड जैसी भयानक बीमारी के पाँच साल बाद हो रहे इस सम्मेलन में भी इस बात पर चर्चा होती रही कि कोविड में क्या सिखाया और आगे दुनिया कैसी होगी। ये बात सबने स्वीकार की कि कोविड ने दिखा दिया कि मानवीय ज़िंदगी ही सबसे पहली प्राथमिकता है और इसलिए हर विकास में उसको केंद्र मे रखना ज़रूरी है। इसके साथ ही दुनिया भर में ग्रोथ में आयी कमी। बचत में कमी। महंगाई में तेजी और अमीर-गरीब की खाई के मुद्दे पर भी बात हुई। सबने ये माना कि कोविड के बाद के पांच सालों में दुनिया बहुत बदल गयी है, खासतौर पर वसुधैव कुटुम्बकम या ग्लोबल विलेज के बजाय लोकल से ग्लोबल की बात होने लगी है और हर कोई खुद के नेशन फ़र्स्ट की बात कर रहा है।
चूक गया भारत…
दुनिया भर का सबसे बड़ा आर्थिक सम्मेलन होने के बावजूद भारत इस बार इसमें चूक गया। हालाँकि सबसे ज़्यादा लोग भारत से ही इसमें शामिल हुए और सबसे ज़्यादा भारतीय राज्यों के स्टॉल इसमें दिखे, लेकिन भारत की तरफ़ से विश्व, खासतौर पर गैर अमेरिकी देशों के साथ आर्थिक रिश्तों को बढ़ाने की मज़बूत पहल नहीं दिखी। अमेरिका में नये राष्ट्रपति ट्रंप के आगाज के कारण वो खुद तो इस सम्मेलन में नहीं आये लेकिन उनकी धमक हर जगह सुनायी दी। पूरे सम्मेलन में इस बात पर चर्चा होती रही कि ट्रंप के आने का दुनिया भर की इकॉनमी पर क्या असर होगा।
इधर, पूरे सम्मेलन में सबसे ज़्यादा भारतीयों ने हिस्सा लिया। कुछ लोग तो मजाक में कहते सुनाई दिये कि ऐसा लग रहा है कि प्रगति मैदान दिल्ली के किसी सम्मेलन में आ गये हैं। अगर भारतीय नहीं आते तो सम्मेलन फीका हो जाता… इसके बाद भी भारत का एक देश के तौर पर सम्मेलन में असर कम ही दिखा।
रेल मंत्री और आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव के साथ जूनियर मंत्री चिराग पासवान, रामा नायडू और जयंत चौधरी ज़रूर आये लेकिन सब किसी न किसी फेडरेशन के लंच या डिनर की औपचारिकता दिखाते नज़र आये। भारत के पास अवसर था कि ऐसा सम्मेलन जहां पर अमेरिका मौजूद न हो वहां वो यूरोप और बाक़ी दुनिया के साथ आर्थिक रिश्तों को नया आयाम देता लेकिन ऐसा हो न सका।
सम्मेलन में कुछ राज्यों के भी पैवेलियन थे लेकिन केवल महाराष्ट्र की छाप ही दिखी जो पंद्रह लाख करोड़ से ज़्यादा के निवेश के प्रस्तावों पर समझौता कर सका, वहीं आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों के सीएम बस औपचारिकता बस करते रहे।
इतना ही नहीं, बाक़ी कुछ राज्यों में तो सीएम ने आना तक गवारा नहीं समझा। भारतीय नीतिकारों को शायद समझना होगा कि भले ही ये एक गैर सरकारी आयोजन था लेकिन यहाँ पर जिस तरह से निवेशकों और उद्योगपतियों के साथ इकोनॉमिक जानकारों और एआई के पैरोकारों का जमावड़ा था वहां भारत बहुत कुछ कर सकता था।
यूरोप की चुनौतियाँ
सम्मेलन में यूरोपियन यूनियन के सेंट्रल बैंक की प्रमुख क्रिस्टीन लेगार्ड ने कहा कि दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है और ये समय है जब पूरी दुनिया में फिर से जाग जाने का समय आ गया है। एक तरफ़ खुद को बहुत ही मज़बूत और सबसे बड़ा बताने वाला अमेरिका अपनी दादागिरी चलाना चाहता है तो दूसरी तरफ़ चीन लगातार अपनी मज़बूत दावेदारी पेश कर रहा है। ऐसे में यूरोप और एशिया के बाक़ी देशों को अपने भविषय को लेकर कुछ सोचना होगा। दुनिया में अब समय आ गया है कि हम खुद के अपने देश और कल्चर पर गर्व ही न करें बल्कि उसको जोर शोर से बताकर अपनी मौजूदगी का अहसास भी करायें। अब दुनिया में निर्णायक लेकिन समावेशी और बदलावकारी लेकिन सृजनात्मक लीडरशिप की ज़रूरत है। कोई भी चूक कोविड से बड़ी तबाही ला सकती है।
यूरोप के देशों के सामने सबसे बड़ा संकट आर्थिक प्रगति और अपने उच्च जीवन स्तर को बनाये रखने का है। उनके सामने गैस का संकट है और उसी के चलते महंगाई दर बढ़ी है। जर्मनी जैसे समृद्ध देश में भी अब ग्रोथ निगेटिव में जा सकती है तो यूरोप के कई देश नई टेक्नोलॉजी के वार में पिछड़ते दिख रहे हैं।
एशियाई मार्केट में मांग और सप्लाई पर जोर
सम्मेलन में बताया गया कि एशियाई मार्केट डिमांड के हिसाब से अब सबसे बड़ा मार्केट है लेकिन ज़्यादातर एशियाई देश महंगाई और रोजगार के संकट से गुजर रहे हैं जिसका असर उनकी इकोनॉमी पर हो रहा है। तेजी से प्रगति के नाम पर अंधाधुंध विकास की भी अब सीमा हो गयी है। ऐसे में चीन एक बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर तो उभरा है लेकिन उसका फायदा एशिया के किसी और देश को नहीं मिल रहा है। चीन लगातार विकास दर बनाये हुये है लेकिन जापान और भारत जैसे देशों के सामने ग्रोथ की चुनौतियाँ हैं। वहीं पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंग्लादेश जैसे देश अस्थिता के दौर में हैं।
ऐसे में एशियाई मार्केट में अभी कुछ सालों तक चीन की बादशाहत बनी रहेगी। अगर अमेरिका पाबंदी लगाता है तो भी चीन के पास एशियाई देशों का एक बड़ा मार्केट बना रहेगा।
एआई और उसके असर
सम्मलेन में एक बड़ा मुद्दा एआई और उसके दुनिया पर असर पर बात होती रही। दुनियाभर की सारी बड़ी टेक कंपनियों ने एआई में निवेश और उसके फ़ायदों पर बात की। बात ये निकलकर आयी कि एआई से प्रगति की रफ्तार तो बढ़ सकती है लेकिन साथ ही बेसिक को मज़बूत करना भी उतना ही ज़रूरी है। एआई को ह्यूमन से रिप्लेस नहीं किया जा सकता है और एआई को बहुत बढ़ाकर बताना भी ख़तरे से खाली नहीं है। सम्मेलन के ख़त्म होने के साथ ही चीन ने नयी डीप सीक एआई का खुलासा करके दुनिया भर की कंपनियों और इकोनमी में तूफान ला दिया। चीन ने दिखा दिया कि एआई के युद्ध में वो पीछे नहीं रहेगा। भारत की इन मंचों पर मौजूदगी केवल नौकरी के अवसर देने तक ही सीमित रही लेकिन निवेश और सुपर चिप्स के बारे में बहुत कुछ कहा नहीं जा सका। बस यही कहा गया कि भारत एक बेहतर मैनपावर सप्लाई के लिए हब बन सकता है, जबकि सबने ये माना कि भारत इसका बहुत बड़ा बाज़ार है और भारत में लोगों ने इसको अपनाना शुरू कर दिया है।
एनर्जी पर बात
सम्मेलन में एनर्जी पर जमकर बात हुई। सबने ये माना कि एनर्जी के बिना ग्रोथ नहीं हो सकती। सोलर एनर्जी पर भारत के विकास की बात हुई लेकिन ये बताया कि इस पर चौबीस घंटे डिपेंडेंसी या औद्योगिक विकास संभव नहीं है इसलिए हाइड्रोजन और बाक़ी विकल्पों पर ध्यान देना होगा। सबसे ज़्यादा बात हुई बैटरी सेल और एनर्जी के स्टोरेज पर काम करना होगा। अकेले भारत में इस साल इस सेक्टर में तीस लाख करोड़ का निवेश होना है। दुनिया भर में भारत एनर्जी का सप्लायर बन सकता है लेकिन उस पर बहुत कुछ होना बाक़ी है। यूरोप में इस बार एनर्जी का संकट कुछ हद तक सुधरा है लेकिन अब भी उसका असर हो रहा है। खासतौर पर जुलाई के बाद के ठंड के मौसम के लिए यूरोप अभी से घबरा रहा है। ऐसे में दुनिया भर के देशों को इस बात पर सोचना होगा। भारत में अब भी 90 प्रतिशत बिजली कोयला यानी थरमल पावर से बनती है। भारत के पास अगले 400 सालों तक का कोयला भंडार है। ऐसे में भारत एनर्जी के पॉल्यूशन और ग्रीन एनर्जी पर कितना भरोसा कर सकता है। ऐसे कई सवाल सम्मेलन में उठ सकते थे लेकिन बात कम ही हो पायी।
कुल मिलाकर इस आर्थिक सम्मेलन से दो बातें उभरकर आयीं कि कोविड के बाद की अगर ग्रोथ की रफ्तार को कायम रखना है तो दुनिया के अमीर-गरीब दोनों देशों को मिलकर काम करना होगा। दूसरा विकास के साथ-साथ लोगों की ज़िंददगी आसान बनाने और पर्यावरण की चिंता करने पर भी उतना ही ध्यान देना होगा। एक देश या एकतरफ़ा ग्रोथ किसी देश का भला नहीं कर सकती। मगर मुश्किल ये है कि ऐसे दौर में जब सारे बड़े नेता मैं और मेरा देश की बात कर रहे हैं तो उनको साथ में लाना आसान नहीं होगा।
(दावोस से लौटकर वरिष्ठ पत्रकार संदीप सोनवलकर )