चीन के दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने से भारत को क्या नुक़सान?

04:01 pm Jan 05, 2025 | सत्य ब्यूरो

असम में ब्रह्मपुत्र नदी के नाम से जाने जानी वाली चीन की यारलुंग त्संगपो नदी में बीजिंग द्वारा दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाया जाना क्या आम घटना है? इस बांध को लेकर नदी के निचले हिस्से यानी भारतीय क्षेत्र में इसके असर को लेकर गंभीर चिंताएँ उभरने लगी हैं। तो क्या ये चिंताएँ मामूली हैं या फिर इसका असर काफ़ी व्यापक होगा? 

वैसे तो इसका अंदाज़ा भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा दी गई प्रतिक्रिया से भी लग सकता है, लेकिन इसके वास्तविक असर को समझने के लिए इस पूरी योजना और इस क्षेत्र को समझना होगा। इस योजना को जानने से पहले जानिए भारत ने चीन की इस परियोजना पर क्या प्रतिक्रिया दी है।

तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया के सबसे बड़े बांध के निर्माण को बीजिंग द्वारा मंजूरी दिए जाने के कुछ दिनों बाद भारत ने शुक्रवार को चिंताएँ जताईं। इसने कहा कि उसने इस मेगा हाइडल परियोजना पर अपनी चिंताओं से चीनी पक्ष को अवगत करा दिया है। भारत ने चीन से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया है कि ब्रह्मपुत्र के निचले इलाकों के राज्यों के हितों को ऊपरी इलाकों में गतिविधियों से नुकसान न पहुँचे।

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा, 'हमने चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में यारलुंग त्संगपो नदी पर एक जलविद्युत परियोजना के बारे में 25 दिसंबर 2024 को शिन्हुआ द्वारा जारी की गई जानकारी देखी है। ...हमने लगातार विशेषज्ञ-स्तर के साथ-साथ राजनयिक चैनलों के माध्यम से चीनी पक्ष को उनके क्षेत्र में नदियों पर मेगा परियोजनाओं पर अपने विचार और चिंताएँ व्यक्त की हैं। ताज़ा रिपोर्ट के बाद पारदर्शिता और निचले हिस्से के देशों के साथ परामर्श की ज़रूरत के साथ-साथ इन्हें दोहराया गया है।' उन्होंने कहा, 'चीनी पक्ष से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया है कि ब्रह्मपुत्र के निचले इलाक़ों के राज्यों के हितों को ऊपरी इलाकों में होने वाली गतिविधियों से नुक़सान न पहुंचे। हम अपने हितों की रक्षा के लिए निगरानी करते रहेंगे और ज़रूरी कदम उठाएंगे।'

क्या है चीन की परियोजना?

दरअसल, 25 दिसंबर को चीन ने तिब्बत में यारलुंग त्संगपो नदी पर दुनिया की सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना के निर्माण को मंजूरी दी। पूरा होने पर 60,000 मेगावाट की बिजली का उत्पादन हो सकेगा। यारलुंग त्संगपो तिब्बत से अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है, जहाँ इसे सियांग के नाम से जाना जाता है। असम में यह दिबांग और लोहित जैसी सहायक नदियों से जुड़ती है और इसे ब्रह्मपुत्र कहा जाता है। आख़िर में यह नदी बांग्लादेश में प्रवेश करती है और बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।

यारलुंग त्संगपो पर चीन जिस पैमाने की बुनियादी ढांचा परियोजना की योजना बना रहा है, वह इन क्षेत्रों में रहने वाले लाखों लोगों, उनकी आजीविका और पारिस्थितिकी को प्रभावित कर सकती है।

चीन यह परियोजना क्यों चाहता है?

चीन ने कहा है कि बांध उसे पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता कम करने और 2060 तक शुद्ध कार्बन तटस्थता हासिल करने में मदद करेगा। उसका दावा है कि उसकी इस परियोजना से निचले हिस्से में कुछ भी असर नहीं पड़ेगा। तो क्या सच में ऐसा है? क्या दुनिया में ऐसी कोई परियोजना है जिसका असर निचले हिस्से में न पड़ा हो? वह भी खासकर तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में।

भारत की चिंताएँ क्या हैं?

चीन में भारत के पूर्व राजदूत अशोक कांथा ने कहा है कि बांध चीन से भारत, निचले तटवर्ती राज्य में पानी के प्रवाह को प्रभावित कर सकता है। ब्रह्मपुत्र में अधिकांश पानी तिब्बत से आता है। द इंडियन एक्सप्रेस से कांथा ने कहा, 'अन्य बड़े बांधों के अनुभव के अनुसार, वे हमेशा अन्य नकारात्मक परिणाम छोड़ते हैं।' कृषि के लिए महत्वपूर्ण गाद का प्रवाह बाधित हो सकता है और नदी के प्रवाह में बदलाव स्थानीय जैव विविधता को प्रभावित कर सकता है।

यह क्षेत्र दुनिया के सबसे अधिक पारिस्थितिक रूप से नाजुक और भूकंप वाले क्षेत्रों में से एक है। रिपोर्ट के अनुसार कांथा ने कहा कि 2004 में एक भूस्खलन ने हिमाचल प्रदेश के पास तिब्बती हिमालय में ग्लेशियल पारेचु झील का निर्माण किया था। चीन द्वारा भारत को सचेत करने के बाद झील के स्तर की प्रतिदिन निगरानी की गई। जून 2005 में झील फट गई और सतलुज में बड़ी मात्रा में पानी बह गया, लेकिन समय पर समन्वय और योजना बनने के कारण नुकसान को कम किया जा सका।

कांथा ने कहा, 'भले ही इसमें कोई दुर्भावना न हो, लेकिन ऐसी घटनाएँ बहुत गंभीर हो जाती हैं। त्संगपो मामले में आप भूकंप वाले क्षेत्र में एक बड़े बांध के बारे में बात कर रहे हैं। चीनी विशेषज्ञों ने भी इन चिंताओं को व्यापक रूप से उठाया है।'

आपदाओं को रोकने के लिए देशों के बीच समन्वय और सूचनाओं का आदान-प्रदान ज़रूरी है। कांथा ने कहा, 'चीन को निचले तटवर्ती देशों के साथ अधिक निकटता से सहयोग करने की ज़रूरत महसूस नहीं होती है। मेकांग नदी बेसिन में चीन ने 12 बड़े बांध बनाए हैं, जिनका निचले इलाक़ों के देशों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।'

ब्रह्मपुत्र को लेकर क्या समझौता?

चीन के साथ सीमा पार नदियों पर सहयोग पर दोनों देशों के बीच समझौता है। ब्रह्मपुत्र और सतलुज पर दो अलग-अलग समझौते हैं। अंग्रेज़ी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार पूर्व राजनयिक कांथा कहते हैं कि ब्रह्मपुत्र समझौता ज्ञापन हर पाँच साल में नवीनीकृत होता है। ताज़ा समझौता ज्ञापन 2023 में ख़त्म हो गया है। जल शक्ति मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर कहा है कि नवीनीकरण प्रक्रिया राजनयिक चैनलों के माध्यम से चल रही है।

सहयोग के इन सीमित रास्तों में अंतरराष्ट्रीय जलमार्गों के गैर-नौवहन उपयोग के कानून पर 1997 का संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन एक भूमिका निभा सकता है। कांथा ने कहा, 'न तो भारत और न ही चीन इस पर हस्ताक्षरकर्ता हैं, लेकिन हम इसकी प्रमुख विशेषताओं का पालन करते हैं, जिसमें जल का न्यायसंगत और उचित उपयोग शामिल है।' कांथा कहते हैं, 'बड़ी समस्या यह है कि देशों के बीच समझ बहुत सीमित और संकीर्ण है। चीनी किसी भी ऐसे समझौते पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं हैं जिसमें उनकी ओर से बड़ी प्रतिबद्धताएँ शामिल हों।'

उन्होंने कहा कि जब भी भारत ने ऐसी परियोजनाओं के बारे में चिंता जताई है तो चीन का मानक जवाब यही रहा है कि ये मुख्य रूप से नदी के बहाव वाली परियोजनाएं हैं- जिसका अर्थ है कि इनमें पानी का कोई बड़ा अवरोधन शामिल नहीं है। 

पूर्व राजनयिक ने कहा कि भारत को चीनी बयानों को चुनौती देनी चाहिए। तो क्या भारत ने इसे उचित तरीक़े से उठाया है?

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने शुक्रवार को कहा, '...एक निचले तटवर्ती राज्य के रूप में, हमने लगातार चीनी पक्ष को उनके क्षेत्र में नदियों पर मेगा परियोजनाओं पर अपने विचार और चिंताएं व्यक्त की हैं। नयी रिपोर्ट के बाद पारदर्शिता और निचले देशों के साथ परामर्श की ज़रूरत के साथ-साथ इन्हें दोहराया गया है। चीनी पक्ष से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया है कि ब्रह्मपुत्र के निचले राज्यों के हितों को ऊपरी क्षेत्रों में गतिविधियों से नुकसान न पहुंचे।'