15 अगस्त 1947 यानी स्वतंत्रता दिवस! भारत के इतिहास का एक ख़ास दिन! लेकिन क्या ‘स्वतंत्रता’ केवल अंग्रेज़ों राज से मिली थी? नहीं, इस तारीख़ को उपनिवेशवाद के साथ-साथ ‘ग़ैर-बराबरी’ की ज़ंजीरों से भी मुक्ति मिली थी जो अंग्रेज़ों के समय और उनके आगमन पूर्व भारत की ख़ास पहचान थी। उपमहाद्वीप के पाँच हज़ार साल के इतिहास में पहली बार दलितों, आदिवासियों, कृषकों, श्रमिकों, शिल्पकारों, स्त्रियों समेत तमाम वंचित समूहों को वैधानिक रूप से ‘बराबर’ माना गया था। यानी ‘स्वतंत्रता-दिवस’ भारत की प्रथम ‘बहुजन क्रांति’ का दिन भी है।
यह ‘बहुजन क्रांति' आसमान से नहीं टपकी थी। इसके पीछे कांग्रेस और उसके नेताओं की विश्व-दृष्टि थी जिन्होंने आने वाले समय की आहट को सुना और ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व’ के नारे को बुलंद करते हुए एक आधुनिक ‘राष्ट्र-राज्य’ के रूप में भारत की बुनियाद डाली थी। उसी कांग्रेस को आज मोदी सरकार के पिट्ठू नेताओं और भाड़े के बुद्धिजीवियों की ओर से ‘बहुजन विरोधी’ बताने का अभियान चलाया जा रहा है। किसी पत्र या भाषण का हवाला देकर बताया जा रहा है कि फलाँ नेता ने फलाँ सन में आरक्षण का विरोध किया था। यह इतिहास की क्लर्क दृष्टि है जो संदर्भ से काटकर तथ्यों को चुनकर कहानी बुनती है।
कांग्रेस पर तेज़ हुए इस हमले की वजह है राहुल गाँधी का सामाजिक न्याय को लेकर शुरू किया गया वह अभियान जो देश में ‘दूसरी बहुजन क्रांति’ की लहर पैदा कर रहा है। जाति जनगणना और आरक्षण की सीमा बढ़ाने की राहुल गाँधी की माँग जैसे-जैसे राजनीति में केंद्रीय स्वरूप लेती जा रही है, आरएसएस का बनाये माया-महल की दीवारें हिलने लगी हैं। यह महल मनुवाद की जिस नींव पर खड़ा है, राहुल गाँधी का अभियान उसमें दरार डाल रहा है।
अहिंसक क्रांति के ज़रिए अंग्रेज़ी राज को उखाड़ फेंकने वाली कांग्रेस ने विश्व इतिहास में अनोखी भूमिका अदा की है। तीसरी दुनिया के तमाम देशों ने भारत की आज़ादी की लड़ाई से बहुत कुछ सीखा है। लेकिन कांग्रेस की सबसे बड़ी कमी यह रही कि उसने राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका को अलग से चिन्हित करते हुए प्रचार अभियान नहीं चलाया। न इसके किसी नेता ने ‘भगवान के अवतार’ जैसी भंगिमा अख़्तियार की जैसा कि आज मोदी जी कर रहे हैं। कांग्रेस ने देश के लिए जो किया उसे ‘फ़र्ज़’ समझकर किया जिसका प्रचार भी ‘पाप’ था। लेकिन इस सदाशयता का नतीजा है कि उस पर ‘असत्य’ और ‘अर्धसत्यों’ की गोलाबारी की जा रही है। हद तो ये है कि केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर ने 26 अगस्त को कुरुक्षेत्र में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए यहाँ तक कह दिया कि “डा.आंबेडकर ने सभी को बराबरी का दर्जा न दिया होता तो कांग्रेस आज तक दलितों के साथ भेदभाव जारी रखती। कांग्रेस ने तो बाबा साहेब को संविधान ड्राफ्ट समिति में भी शामिल नहीं होने दिया था!"
कोई और वक़्त होता तो मीडिया खट्टर जी के इस ज्ञान की बधिया उधेड़ देता। हक़ीक़त ये है कि कांग्रेस ने डॉ.आंबेडकर को संविधान सभा का सदस्य बनाने के लिए बाम्बे प्रांत के अपने सदस्य का इस्तीफ़ा दिलवाया था। कांग्रेस ने ही डॉ.आंबेडकर को संविधान-सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी का चेयरमैन बनाया था। ‘कांग्रेस के बहुमत’ वाली संविधान सभा ने बहुजनों के तमाम अधिकारों को वैधानिक स्वरूप देने के लिए जो मेहनत की उसकी प्रशंसा डा.आंबेडकर ने भी की है। संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में डा.आंबेडकर ने कांग्रेस को पूरा श्रेय दिया था कि ‘उसके अनुशासन की वजह से संविधान सुगमता से पारित हो सका।’
कांग्रेस पर आरक्षण और 'बहुजन विरोधी’ होने के ताज़ा अभियान को देखते हुए हक़ीक़त को रेखांकित करना ज़रूरी है। ख़ासतौर पर जब कांग्रेस के भी कई नेता और कार्यकर्ता अपने शानदार इतिहास से अनभिज्ञ नज़र आते हैं। इस सिलसिले में निम्न बिंदुओं पर विचार करना चाहिए जिन्होंने बहुजन समाज की ज़िंदगी में बड़ा परिवर्तन किया-
- 1. दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू करने का सिद्धांत आज़ादी के पहले ही स्वीकार कर लिया गया था। संविधान में दलितों को 15 और आदिवासियों के लिए 7.5 फ़ीसदी आरक्षण देने की मंज़ूरी दी गयी।
2. जब समानता के सिद्धांत का हवाला देकर कुछ अदालतों ने आरक्षण को ग़लत ठहराया तो पं. नेहरू की सरकार ने 1951 में संविधान में पहला संशोधन करके इसे नौवीं अनुसूची में डाल दिया। इस सूची की न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती।
- 3. नेहरू सरकार ने ज़मींदारी उन्मूलन के ज़रिए देश में बड़े पैमाने पर भूमि का वितरण किया। इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा दलितों और ओबीसी जाति के किसानों को मिला। इसी के साथ सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े-बड़े उपक्रमों की स्थापना की गयी जिन्होंने आगे चलकर आरक्षण के ज़रिए वंचित समाज का एक बड़ा मध्यवर्ग तैयार किया।
- 4. अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग बना। आयोग में पिछड़े वर्ग के सदस्य बतौर स्वतंत्रता सेनानी बैरिस्टर शिवदयाल चौरसिया शामिल थे, जिन्होंने आयोग के अन्य सदस्यों के आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के विचार का पुरज़ोर विरोध करते हुए 84 पेज का असहमति पत्र दिया। चौरसिया जी की असहमति को देखते हुए 1961 में पिछड़े वर्ग की पहचान का ज़िम्मा राज्यों पर छोड़ दिया गया।
5. पिछड़े वर्ग के आरक्षण के लिए जनता पार्टी की सरकार के दौरान गठित 'मंडल कमीशन’ का कार्यकाल इंदिरा गाँधी की सरकार ने दो बार बढ़ाया। इंदिरा गाँधी की राष्ट्रीयकरण की नीतियों का सबसे ज़्यादा लाभ भी बहुजन समाज को मिला।
- 6. राजीव गाँधी के कार्यकाल में पंचायती राज लागू हुआ जिसमें महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया। यही नहीं, एस.सी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम भी राजीव गाँधी के कार्यकाल में लागू हुआ।
- 7. मंडल कमीशन को वी.पी.सिंह की सरकार ने सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया था लेकिन इसे लागू करने का श्रेय पी.वी.नरसिम्हाराव के नेतृत्व में बनी कांग्रेस की सरकार को जाता है। मंडल कमीशन को लेकर हुई अदालती लड़ाई में कांग्रेस सरकार ने ढंग से पैरवी की और जीत हासिल की। मंडल कमीशन के तहत 20 फ़रवरी 1994 को वी.राजशेखर को तत्कालीन केंद्रीय समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी ने पहला नियुक्ति पत्र दिया।
8. कांग्रेस सरकार ने ही केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू की। कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार ने तमाम अदालती बाधाओं को पार करते हुए 21 अगस्त 2007 को ओबीसी आरक्षण शिक्षण संस्थाओं में लागू किया। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में भी यह लागू हुआ। याद रहे कि इससे पहले बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार ने शिक्षण संस्थानों में आरक्षण लागू नहीं होने दिया था।
बहुजन समाज के लिए कांग्रेस ने जो किया, उसका सकारात्मक परिणाम सामने है। राजनीति समेत समाज के हर क्षेत्र में बहुजनों की धमक बढ़ी है। इसमें शक़ नहीं कि इस यात्रा में कई बार सुस्ती के भी दौर आये और कांग्रेस के अंदर ‘सवर्ण वर्चस्व’ बनाये रखने की कामना से भरे एक वर्ग ने सामाजिक न्याय के पथ पर तेज़ चलने की राह में रोड़े भी अटकाये, लेकिन राहुल गाँधी ने ऐसे तमाम रोड़ों को कांग्रेस पार्टी की राह से हटा दिया है। कांग्रेस के रायपुर अधिवेशन में सामाजिक न्याय को लेकर जो संकल्प लिया गया है वह ‘दूसरी बहुजन क्रांति’ का आह्वान है।
आरएसएस/बीजेपी और उनका पूरा ईको-सिस्टम राहुल गाँधी को रोकने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रहा है लेकिन कहते हैं कि जिस ‘विचार ‘का समय आ जाता है, उसे रोकना नामुमकिन हो जाता है। इसलिए राहुल गाँधी को भी रोकना अब नामुमकिन है जो समय के रथ पर सवार हैं। वैसे भी राजनीति वर्तमान में हस्तक्षेप की कला है। अतीत से तो केवल सबक़ लिया जाता है। ‘जाति जनगणना’ या हर स्तर पर बहुजन समाज की भागीदारी की राहुल गाँधी की माँग ‘वर्तमान में हस्तक्षेप’ है जिसका जवाब मोदी और उनकी सेना को देना ही होगा। अतीत के बिल में छिपकर वर्तमान के सवालों से बचने की कोशिश भविष्य बिगाड़ सकती है।
(लेखक पंकज श्रीवास्तव राजनीतिक विश्लेषक होने के साथ-साथ कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)