कांग्रेस ने खड़गे को आगे करके भाजपा के आदिवासी कार्ड का माकूल जवाब दिया है। एक तरह से इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस अंदाज में राष्ट्रपति पद के लिए द्रौपदी मुर्मू को आगे लाकर देश के करीब दस फीसदी आदिवासियों को यह संदेश दिया था कि राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर एक आदिवासी महिला को बिठाने का काम पहली बार उनकी अगुआई में भाजपा ने किया है, कुछ उसी तरह राहुल गांधी ने कांग्रेस के शीर्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे को आगे करके देश के 22 फीसदी दलितों को कांग्रेस के साथ जोड़ने की कोशिश की है।
कांग्रेस हाईकमान के करीबी सूत्रों का यहाँ तक कहना है कि अगर 2024 में लोकसभा चुनावों के बाद 2004 की तरह गैर भाजपा दलों की कोई सियासी खिचड़ी पकती है और कांग्रेस इतनी सीटें जीत लेती है कि तमाम गैर भाजपा दल उसका नेतृत्व मानने को विवश हो जाएं तो कोई ताज्जुब नहीं होगा कि जैसे 2004 में सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को देश की चाबी सौंप कर आजाद भारत को पहला सिख (अल्पसंख्यक) प्रधानमंत्री देने का श्रेय लिया था, कुछ उसी अंदाज में राहुल गांधी भी खड़गे की ताजपोशी करवाकर देश को पहला दलित प्रधानमंत्री देने का श्रेय अपने और कांग्रेस के लिए ले सकते हैं। और पहले दलित प्रधानमंत्री के रास्ते की रुकावट बनने का कलंक कोई दल शायद ही ले। सबकुछ ठीक रहा तो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस इस संदेश के साथ भी जा सकती है।
कुछ लोग इसे बहुत दूर की कौड़ी या हवा में पतंगबाजी की संज्ञा दे सकते हैं, लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम जिस नाटकीय अंदाज में कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए लाया गया है, इससे साफ़ है कि खड़गे सिर्फ अशोक गहलोत के मैदान से हटने के बाद स्टैंडबाई उम्मीदवार ही नहीं है, बल्कि उन्हें खासे सोच विचार के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें आगे किया है। जहां तक खड़गे की दस जनपथ या सोनिया गांधी परिवार के प्रति वफादारी का सवाल है तो वह असंदिग्ध है लेकिन खड़गे अकेले ऐसे नेता नहीं हैं। कांग्रेस में सोनिया गांधी परिवार के प्रति 24 कैरेट की निष्ठा वाले कई नेता हैं जो समयानुकूल परिस्थितियों में राहुल गांधी के लिए जगह खाली करने में कोई देर नहीं लगाएंगे। इसलिए खड़गे को आगे लाने के पीछे सिर्फ वफादारी ही सबसे बड़ा या अकेला कारण नहीं है, वह सिर्फ एक कारण है। खड़गे के नामांकन के समय जिस तरह पार्टी के लगभग सारे वरिष्ठ नेता, जिनमें जी-23 के नाम से मशहूर नेता भी शामिल हुए, उससे एक बड़ा फायदा ये हुआ कि लंबे समय के बाद कांग्रेस एकजुट दिखाई दी।
यह सही है कि पहले अशोक गहलोत के लिए सोनिया परिवार ने पूरा मन बना लिया था। इसके पीछे प्रमुख वजह गहलोत की परिवार और पार्टी के प्रति असंदिग्ध निष्ठा, 2020 में उनका उनका सियासी संकट प्रबंधन करके राजस्थान में ऑपरेशन लोटस को विफल करना, उनका पिछड़े वर्ग से होना और लंबा राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव होने के साथ उनकी पार्टी में स्वीकार्यता थी।
गहलोत के जरिए कांग्रेस का प्रथम परिवार भाजपा के नरेंद्र मोदी के पिछड़े कार्ड का जवाब देने के साथ साथ राजस्थान में सचिन पायलट को सत्ता सौंपने का अपना वादा भी पूरा करना चाहता था जो उसने 2020 में सचिन को वापस लाते वक्त किया था। योजना थी कि एक तीर से कई निशाने सध जाएंगे।
पहला अशोक गहलोत ससम्मान राजस्थान से बाहर निकल कर केंद्रीय राजनीति में आ जाएंगे और राज्य में उनकी सरकार के खिलाफ जो भी सत्ता विरोधी रुझान है सचिन पायलट का नया और युवा चेहरा उसे काफी हद तक कम कर देगा। फिर 2023 का विधानसभा चुनाव जिताने की जिम्मेदारी बतौर मुख्यमंत्री सचिन की और बतौर पार्टी अध्यक्ष अशोक गहलोत दोनों की होगी, जिससे कांग्रेस भाजपा का मुकाबला कर सकेगी।
लेकिन राजस्थान में गहलोत और पायलट के शक्ति परीक्षण के दौरान जो हुआ उसने हाईकमान की सारी योजना पर सवाल खड़े कर दिए। गहलोत की हाईकमान के प्रति निष्ठा और सचिन की विधायकों में स्वीकार्यता और संगठन क्षमता दोनों पर ग्रहण लग गया। इसके बाद ही तय हो गया कि गहलोत को पार्टी की कमान सौंपना ख़तरे से खाली नहीं होगा। इसके साथ ही नई योजना, जिसे सियासत में प्लान बी कहा जाता है, उस पर काम शुरू हो गया। एक योजना के तहत केरल में राहुल गांधी के साथ भारत जोड़ो यात्रा के संयोजक दिग्विजय सिंह को आनन फानन में दिल्ली इस संदेश के साथ भेजा गया कि अब अध्यक्ष पद के लिए वह एक मज़बूत दावेदार होंगे। दिग्विजय जिस तरह 28 सितंबर की रात केसी वेणुगोपाल के साथ विमान से दिल्ली आए और अगले दिन उन्होंने नामांकन पत्र लिया इससे पार्टी के भीतर यह अघोषित संदेश गया कि वह सोनिया परिवार और खासकर राहुल गांधी के इशारे पर मैदान में उतरे हैं। माना जाने लगा कि अशोक गहलोत के मैदान से हटने के बाद दिग्विजय और शशि थरूर का औपचारिक चुनावी मुकाबला होगा और दिग्विजय सिंह भारी बहुमत से चुनाव जीतकर अध्यक्ष बनेंगे।
दरअसल, यह हाईकमान की एक ऐसी चाल थी जिसमें दिग्विजय सिंह की उम्मीदवारी एक कवर फायर के रूप में थी ताकि अशोक गहलोत के हटते कोई और बड़ा नेता नामांकन करके मैदान में आकर चुनाव को जटिल न बना दे। दिग्विजय भारी भरकम नेता हैं इसलिए उनके सामने आते ही यह आशंका पूरी तरह ख़त्म हो गई। इस बीच कांग्रेस नेतृत्व में भावी रणनीति पर मंथन जारी रहा। कई वरिष्ठ नेता और रणनीतिकार सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी के संपर्क में रहे और तय हुआ कि किसी दलित नेता को मैदान में उतारा जाना चाहिए। दलित अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस देश भर के दलितों को संदेश देगी कि आजादी के बाद जगजीवन राम के बाद इतने लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस के शीर्ष पद पर कोई दलित नेता बैठा है। इसका फायदा कांग्रेस को सबसे पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में मिलेगा।
दूसरा फायदा यह होगा कि जिन राज्यों में भी कांग्रेस मजबूत है और दलित उसके साथ हैं, पार्टी का दलित जनाधार और मजबूत हो जाएगा।
तीसरा फायदा होगा कि राष्ट्रीय स्तर पर इस समय कोई बड़ा दलित चेहरा राजनीति में नहीं है और रामविलास पासवान के निधन और मायावती के कमजोर होने से उत्तर भारत में दलितों के बीच नए नेता और नए सियासी ठिकाने की तलाश है। एक दलित राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ कांग्रेस उत्तर भारत के दलित समुदायों के बीच समर्थन पाने की कोशिश कर सकती है और उन्हें एक विकल्प दे सकती है। साथ ही राहुल गांधी की यात्रा में जिस तरह दक्षिण भारत में जन समर्थन उमड़ा है, उसे आगे बरकरार रखने के लिए पार्टी को उन राज्यों में, जहां भाजपा का शासन है और प्रभाव है, अपना सामाजिक आधार मजबूत करने और बढ़ाने की जरूरत है जो दलित अध्यक्ष के जरिए किया जा सकता है।
अगर इस पूरी कवायद में कांग्रेस सफल रहती है तो 2024 के लोकसभा चुनावों में वह न सिर्फ भाजपा के सामने मजबूती से उतरेगी बल्कि विपक्षी दलों के साथ सियासी समझौते और सौदेबाजी भी मजबूती से कर सकेगी।
नेतृत्व के विचार मंथन से जुड़े एक कांग्रेस नेता के मुताबिक दलित अध्यक्ष पर सहमति बनने के बाद प्रमुख रूप से पार्टी के चार दलित नेताओं सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार, मुकुल वासनिक और मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर विचार हुआ। शिंदे की वरिष्ठता और निष्ठा संदेह से परे है लेकिन उनकी शरद पवार से नजदीकी आड़े आ गई। जबकि मीरा कुमार की कार्यकर्ताओं से दूरी और उनके पिता जगजीवन राम का इंदिरा गांधी के साथ हुआ झगड़ा हाईकमान को याद दिलाया गया। जबकि अपेक्षाकृत युवा मुकुल वासनिक के रास्ते में उनका जी-23 के साथ शामिल होना एक बड़ी बाधा बन गया। इस लिहाज से सबसे मुफीद नाम मल्लिकार्जुन खड़गे का ही लगा क्योंकि वह दक्षिण भारत के बड़े दलित नेता हैं, जहां अभी भी कांग्रेस उत्तर की अपेक्षा खुद को ज्यादा सहज पाती है। खड़गे उस कर्नाटक से आते हैं जहां 1977 की हार के बाद इंदिरा गांधी ने चिकमंगलूर से लोकसभा का उपचुनाव लड़कर संसद में अपनी वापसी की थी और 1999 में सोनिया गांधी ने भी अपना पहला लोकसभा का चुनाव अमेठी और कर्नाटक के बेल्लारी से लड़ा और जीता था। मई 2023 में कर्नाटक में चुनाव हैं और खड़गे को अध्यक्ष बनाने से पार्टी को वहां खासा फायदा होने की उम्मीद है।
कांग्रेस के एक बड़े रणनीतिकार के मुताबिक 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान मल्लिकार्जुन खड़गे ही कांग्रेस अध्यक्ष रहेंगे। इसलिए उनकी भूमिका खासी अहम रहेगी। वह न सिर्फ राहुल गांधी, प्रियंका गांधी के साथ कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करेंगे बल्कि विपक्षी दलों के नेताओं के साथ भी संवाद और समन्वय स्थापित करेंगे। वह बेहद सुलझे हुए राजनेता हैं और संगठन से लेकर सरकार तक कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं।
लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस के नेता रहते हुए उनके सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ अच्छे रिश्ते हैं।
इसलिए अगर 2024 के चुनाव नतीजे विपक्ष के हक में आए और कांग्रेस ने प्रधानमंत्री के लिए खड़गे का नाम आगे बढ़ा दिया तो दूसरे दलों के लिए देश में पहली बार किसी दलित को प्रधानमंत्री बनने से रोकने का जोखिम लेना मुश्किल होगा। भाजपा भी खड़गे पर हमला करने से पहले कई बार सोचेगी।
इस कांग्रेसी रणनीतिकार से जब सवाल किया गया कि पंजाब में भी कांग्रेस ने चरणजीत चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर दलित कार्ड खेला था, लेकिन वहां तो पार्टी साफ हो गई। इस नेता का जवाब है कि पंजाब में अमरिंदर सिंह को हटाने का फैसला काफी देर से लिया गया और चन्नी को काम करने का समय बहुत कम मिला। जबकि अभी लोकसभा चुनावों में करीब डेढ़ साल हैं। दूसरे वहां अमरिंदर, सिद्धू, चन्नी और सुनील जाखड़ के झगड़े ने पार्टी का बेड़ा गर्क किया जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोई बात नहीं है। इसलिए खड़गे के बनाए जाने का असर पड़ेगा। कुल मिलाकर कांग्रेस आगे कैसे अपने दांव चलती है, इस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा।