मोहम्मद ज़ुबैर का 24 दिन का जेल वाला संघर्ष याद रखा जाएगा। इस संघर्ष से (व्यक्ति नहीं) खुद न्यायपालिका ने सबक लिया है। सुप्रीम अदालत ने महसूस किया कि एक ही मामले में अलग-अलग मामले दर्ज कराकर किसी व्यक्ति को जेल से नहीं निकलने देने के लिए बुने जाने वाले जाल को समझना होगा। यही वजह है कि न सिर्फ यूपी में दर्ज सभी छह मामलों की जांच दिल्ली पुलिस को इकट्ठे सौंपी गयी है बल्कि अगर इसी आधार पर मो. ज़ुबैर के खिलाफ कोई और केस दर्ज होगा तो उसकी भी जांच इकट्ठे होगी।
मतलब साफ है कि एक ही मामले में अलग-अलग मुकदमों के आधार पर मोहम्मद ज़ुबैर या किसी अन्य व्यक्ति को जेल में नहीं रखा जा सकेगा।
आज़म खां का मामला
सुप्रीम कोर्ट ने एक सबक यूपी में पूर्व मंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खां के मामले में भी लिया था। सर्वोच्च अदालत ने पाया था कि आज़म खां को जेल से बाहर निकलने नहीं दिया जाए, इसके लिए एक मुकदमे में जमानत मिलते ही कोई और मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है। आज़म खां पर 89 मामले दर्ज कर दिए गये। उनमें से एक भी मामला ऐसा नहीं था जिसमें दोषी पाए जाने पर 7 साल की सज़ा हो।
7 साल की कम सज़ा वाले मामलों में ज़मानत देने की प्रैक्टिस अदालत ने बना रखी है। हालांकि इसका भी उल्लंघन होता रहता है।
मोहम्मद ज़ुबैर या आज़म खां का मामला इस मायने में अलग-अलग है कि ज़ुबैर के मामले में एक ही ट्वीट को आपत्तिजनक और सांप्रदायिक बताकर कई मुकदमे दर्ज किए गये थे, जबकि आज़म खां के मामले में अलग-अलग मुकदमों की गिनती लगातार बढ़ायी जाती रही थी ताकि हर मामले में उन्हें जमानत लेने की नौबत आए और न्यायालय में होने वाली देरी के कारण उन्हें जेल में ही रहना पड़े।
सवाल यह है कि मोहम्मद ज़ुबैर या आज़म खां को जेल में रखने की ख्वाहिश किसकी रही है? यह ख्वाहिश पूरी होने कैसे दी जा रही है? क्या पुलिस का बेजा इस्तेमाल नहीं हो रहा है? क्या खुद अदालतों का दुरुपयोग नहीं हो रहा है? बगैर पुलिस और अदालतों के दुरुपयोग के किसी की यह ख्वाहिश कैसे पूरी हो सकती है कि कुछ लोगों को जेल से बाहर आने ही नहीं दिया जाए? अगर ऐसा है तो सुप्रीम अदालत पुलिस और निचली अदालतों को क्यों बख्श दे रही है?
क्यों खुद सुप्रीम कोर्ट भी अपनी गलतियों को मानने का खुला एलान नहीं करती? निश्चित रूप से इससे सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा ही बढ़ेगी।
ज़ुबैर जेल में रहे तो नूपुर बाहर क्यों रही?
यह बात लोगों को चौंकाती है कि जिस नूपुर शर्मा के लिए सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ‘देश में आग लगाने वाली’ या ‘सारी फसाद की जड़’ के तौर पर रही और उनकी उस अपील को विचार के लायक नहीं समझा गया कि उनके खिलाफ देश के अलग-अलग हिस्सों में दर्ज मुकदमों को एक साथ सुना जाए और उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगायी जाए, उन्हीं नूपुर शर्मा की अपील को 19 दिन बाद अदालत मान लेती है। क्या इसकी वजह सिर्फ यही है कि इस दौरान नूपुर शर्मा की जान पर ख़तरे की आशंका वाली घटनाएं बढ़ गयीं?
सुप्रीम कोर्ट 1 जुलाई को इस बात से क्यों नहीं विश्वस्त हुआ कि जिस पूर्व बीजेपी प्रवक्ता नूपुर शर्मा के खिलाफ 8 राज्यों में मुकदमे दर्ज हैं, जिनके बयान को सोशल मीडिया पर फैलाने के कारण हत्या की कई घटनाएं हो चुकी हैं- खुद उनकी भी जान को ख़तरा हो सकता है? 19 जुलाई को नूपुर शर्मा को जो राहत सुप्रीम कोर्ट ने दी है वह कई कसौटियों पर वाजिब है। एक महिला के खिलाफ एक ही मामले में कई राज्यों में मुकदमे हों तो उन्हें एक स्थान पर क्यों नहीं सुना जाना चाहिए? उसकी जान पर ख़तरे की आशंका को भी सुप्रीम कोर्ट को समझना ही होगा, भले ही भविष्य में नूपुर शर्मा अपने विवादित बयानों के लिए दोषी ही क्यों न ठहरा दी जाएं।
19 जुलाई को नूपुर शर्मा और फिर अगले दिन 20 जुलाई को मोहम्मद ज़ुबैर को राहत मिली। एक गिरफ्तार नहीं होंगी 10 अगस्त तक और दूसरे को इसी मामले में भविष्य में दोष साबित होने से पहले गिरफ्तार नहीं किया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के ये दोनों फैसले बहुचर्चित मामले में राजनीतिक, धार्मिक या सामाजिक विद्वेष के कारण न्यायालयी प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने वाले हैं। इसकी तारीफ होनी चाहिए।
एक बहुचर्चित सवाल है कि नूपुर शर्मा पैगंबर मोहम्मद के बारे में बयान देती हैं और उस बयान के बाद उसकी प्रतिक्रिया में देशभर में हिंसा से लेकर हत्या के रूप में जवाबी प्रतिक्रियाएं भी सामने आती हैं लेकिन नूपुर शर्मा गिरफ्तार नहीं होतीं। यह सवाल एक और पूरक सवाल से महत्वपूर्ण हो जाता है कि मोहम्मद ज़ुबैर के 2018 वाले ट्वीट के कारण कोई हिंसा की वारदात या ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई और न होने की आशंका ही दिखी, इसके बावजूद मोहम्मद ज़ुबैर को 24 दिन जेल जाना पड़ता है तो क्यों?
अदालत ने खुद को सवालों के कठघरे में खड़ा किया
उपरोक्त दोनों सवाल ही न्यायालय से ज्यादा शासन-प्रशासन से पूछे जाने योग्य हैं। न्यायालय जरूर इस मामले में शासन-प्रशासन को जवाबदेह बना सकता है। संयोग से दोनों ही मामलों में दिल्ली पुलिस है। लिहाजा दिल्ली पुलिस से पूछा जाना चाहिए कि नूपुर शर्मा को उसने गिरफ्तार करने की पहल क्यों नहीं की? इसी तरह, मोहम्मद ज़ुबैर को गिरफ्तार करना क्या सही था? जब ये सवाल अदालत की ओर से प्रशासन से नहीं पूछे जाएंगे, ऐसी घटनाएं आगे भी होती रहेंगी। इन सवालों के जवाब राजनीतिक लोग नहीं दे सकते।
लिखने से नहीं रोक सकते?
सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद ज़ुबैर को राहत देते हुए अभियोजन पक्ष के वकील के इस सुझाव को खारिज कर दिया कि ज़ुबैर को भविष्य में ट्वीट नहीं करने देने की शर्त लगायी जानी चाहिए। महत्वपूर्ण शर्त खारिज करना नहीं है, महत्वपूर्ण है ऐसा करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो बात कही। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक पत्रकार को लिखने से कैसे रोका जा सकता है? अपनी बात के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि क्या किसी वकील को बहस करने से रोका जा सकता है?
अभिव्यक्ति की आजादी
सुप्रीम कोर्ट ने जिस अभिव्यक्ति की आजादी का परचम लहराया है उसका फायदा उन पत्रकारों को क्यों नहीं मिलना चाहिए जो पत्रकारिता करने के कारण यूएपीए और ऐसी ही धाराओं में बंद हैं और सुनवाई में देरी के कारण जमानत तक के लिए मोहताज हैं? जब सुप्रीम कोर्ट ने यह अहसास कर लिया है कि अदालती कार्यवाहियों का इस्तेमाल किसी को जेल में डालने या इस वास्ते फंसाने के लिए हो रहा है तो बिना सुनवाई के जो सोशल एक्टिविस्ट जेलों में बंद हैं, जो पत्रकार कैद हैं उनके बारे में राहत के लिए क्यों नहीं सोचा जाना चाहिए?