तेजस्वी यादव का ऑपरेशन एमआईएम सफल, क्या मिलेंगे आरजेडी-जदयू?
पिछले कई दिनों से बिहार में जो कयास लगाया जा रहा था, वह बुधवार को सही साबित हुआ और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के चार विधायक आरजेडी में शामिल हो गये। इस घटनाक्रम के बीच अब दूसरा सबसे अहम सवाल यह है कि क्या इसे आरजेडी-जदयू के मिलन की बेला के तौर पर लिया जा सकता है?
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बारे में राष्ट्रपति बनने की अफवाहों पर पूर्ण विराम लग चुका है। लेकिन बीजेपी की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को जदयू का समर्थन मिलने के बाद भी यह बात अपनी जगह कायम है कि बीजेपी और जदयू में बात जो बिगड़ी है, वह बन नहीं पा रही है। मंगलवार को जिस तरह ’अग्निपथ’ के मुद्दे पर विपक्ष के वाकआउट के साथ जदयू के विधायक भी विधानसभा से ग़ायब रहे उसे जदयू के नेता तो महज इत्तेफाक बता रहे लेकिन ऐसा इत्तेफाक किसी और समीकरण का संकेत भी हो सकता है। इसके साथ बुधवार को बीजेपी के विधायक और विधानसभा अध्यक्ष ने शेरो-शायरी में नजदीकी और दूरी की बात की उससे भी रिश्ते में आती जा रही अजनबियन का अंदाजा लगता है।
जाहिर तौर पर यह तेजस्वी यादव की चाल लग सकती है लेकिन आरजेडी में एआईएमआईएम के चार विधायकों के शामिल होने की बात को आसानी से लालू प्रसाद की जमानत पर छूटने से जोड़कर भी देखा जा सकता है। उनके आज़ाद होने के बाद से ही यह चर्चा शुरू हुई थी और अक्सर लोग मानते हैं कि इस चाल के पीछे उनका ही दिमाग काम कर रहा है। इससे पहले लालू प्रसाद ने बीजेपी, माले और बसपा के विधायकों को भी तोड़ा है। लेकिन वह बात बहुत पुरानी हो गयी।
खुद अख्तरुल ईमान का आरजेडी और जदयू से पुराना नाता रहा है। आरजेडी में शामिल होने वाले शाहनवाज आलम, सैयद रुकनुद्दीन, मोहम्मद इजहार और अजहर नईमी भी एआईएमआईएम के बहुत वफादार सदस्य तो थे नहीं बल्कि उस समय की परिस्थिति के हिसाब से वहां टिकट मिलने की शर्त पर गये थे।
आरजेडी को इन विधायकों की ज़रूरत इसलिए पड़ी कि उसे यह अहसास है कि जिस दिन नीतीश कुमार और बीजेपी में टूट होगी, नयी सरकार बनाने के लिए विधायकों की संख्या के आधार पर राज्यपाल फागू चैहान किसे बुलाएंगे। यह चर्चा तब से जोर पकड़ने लगी जब बीजेपी ने मुकेश सहनी की ’वीआईपी’ यानी विकासशील इंसान पार्टी के तीन विधायकों का अपनी पार्टी में विलय कराया और
विधानसभा में 77 विधायकों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन गयी। पहले वह 74 विधायकों के साथ दूसरे नंबर पर थी।
आरजेडी के सूत्र बताते हैं कि उसका शीर्ष नेतृत्व यह मानकर चल रहा है कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच चल रही अनबन अंतिम रूप ले लेगी और दोनों अलग हो जाएँगे। ऐसे में आरजेडी को 76 विधायकों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी होने का
अहसास था जिससे उसे सरकार बनाने की दावत नहीं मिलती। अब 80 विधायकों के साथ आरजेडी ने रणनीतिक तौर पर बीजेपी को पीछे धकेल दिया है।
एआईएमआईएम के बिहार प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ने कुछ दिन पहले यह कहा था कि अगर जलजला ही आ जाए तो क्या कहा जा सकता है। मतलब वे भी मान रहे थे कि आरजेडी उनके बाकी चार विधायकों को अपनी पार्टी में शामिल करने का प्रयास कर रहा है और ये विधायक उधर चले भी जाएंगे। अख्तरुल ईमान ने यह भी कहा था कि उनकी पार्टी ने तो पर्याप्त संख्या बल होने पर आरजेडी को समर्थन देने की बात कही थी।
लगभग दो साल पहले बिहार विधानसभा चुनाव के समय भी यह बात कही गयी थी कि अगर ओवैसी की पार्टी चुनाव में नहीं होती तो महागठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में होती लेकिन तब आरजेडी ने ही इस बात पर खामोशी अपना ली थी। इसकी वजह यह थी कि उसे लग रहा था कि जीतनराम मांझी और मुकेश सहनी के विधायकों का समर्थन मिल जाए तो ओवैसी की पार्टी के विधायकों की ज़रूरत पड़ेगी।
एआईएमआईएम के चार विधायकों के आरजेडी में शामिल होने के बाद भाजपा की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है कि उसे फिलहाल लालू प्रसाद की इस चाल से झटका लगा है। इसीलिए उसके प्रवक्ता ओवैसी के साथ-साथ आरजेडी को भी कोस रहे हैं। इसके एक प्रवक्ता निखिल प्रधान ने बयान जारी कर कहा है कि आरजेडी मतलब ’धर्मांधता और तुष्टिकरण की दुकान’। उन्होंने इसे भाजपा और नरेन्द्र मोदी के विरोध में एकजुट होने से जोड़ने की भी कोशिश की है। उन्होंने यह आरोप लगाया कि ’’ओवैसी की हरकतों को देखकर कई बार ऐसा लगता है कि कहीं आरजेडी से पैसे लेकर अपने विधायकों को बेच तो नहीं दिया।’’
दूसरी ओर यह सवाल भी सामने है कि अगर आरजेडी को सरकार बनाने की दावत मिलती है तो उसके पास ज़रूरी विधायक होंगे? महागठबंधन के लिहाज से उसके पास पहले 110 विधायक थे, अब 114 हो गये। सरकार बनाने के लिए 122 विधायक चाहिए। ऐसे में उसे आठ विधायक जुटाने की चुनौती होगी। इसके साथ ही यह भी देखना होगा कि क्या नीतीश कुमार आरजेडी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने के लिए समझौता कर सकते हैं। दूसरी ओर, बीजेपी भी जदयू या कांग्रेस को तोड़कर अपनी संख्या बढ़ाने की रणनीति पर काम कर सकती है। कुल मिलाकर बिहार की राजनीति में अगले कुछ सप्ताह रोचक हो सकते हैं।