अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में जब नई सरकार के गठन का एलान होगा तो उसमें एक बहुत ही अहम नाम होगा सिराजुद्दीन हक्क़ानी का। ये सिराजुद्दीन हक्क़ानी वही व्यक्ति हैं, जो हक्क़ानी नेटवर्क के प्रमुख हैं और जिन पर 2008 में काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमले का आरोप लगा था।
काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर 7 जुलाई, 2008 को स्थानीय समयानुसार सुबह आठ बजे हुए ज़बरदस्त बम धमाके में 58 लोग मारे गए थे और 114 दूसरे लोग घायल हो गए थे।
मारे जाने वालों में चार भारतीय थे- डिफेंस अताशे ब्रिगेडियर रवि दत्त मेहता, भारतीय विदेश सेवा के वी. वेंकटेश्वर राव और आइटीबीपी के दो जवान- अजय पठानिया और रूप सिंह।
हक्क़ानी नेटवर्क
अमेरिका ने इसके लिए हक्क़ानी नेटवर्क को ज़िम्मेदार ठहराया था। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसुफ़ रज़ा गिलानी से बात की थी और पाकिस्तान ने इसकी जाँच कराने का आश्वासन दिया था।
भारतीय ख़ुफ़िया एजेन्सियों का कहना था कि पाकिस्तानी खुफ़िया एजेन्सी आईएसआई ने इसकी योजना बनाई थी और इसे हक्क़ानी नेटवर्क ने अंजाम दिया था।
आईएसआई
पाकिस्तान के गुजरांवाला ज़िले का रहने वाला हमजा शकूर ही वह आत्मघाती हमलावर था, जो विस्फोटकों से लदी गाड़ी लेकर दूतावास तक गया था।
इसके बाद 8 अक्टूबर 2009 को भी काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर आत्मघाती हमला हुआ था, जिसमें 17 लोग मारे गए थे और 63 घायल हुए थे।
इसके अलावा 26 फरवरी 2010 को काबुल स्थित एक गेस्ट हाउस पर पहले एक आत्मघाती बम विस्फोट और उसके तुरन्त बाद गोलीबारी हुई। इसमें 18 लोग मारे गए थे। यह गेस्ट हाउस भारतीय डॉक्टरों में लोकप्रिय था। मरने वालों में छह भारतीय थे।
इन सभी हमलों के बारे में यही कहा गया था कि आईएसआई ने योजना बनाई, तैयारी की और हक्क़ानी नेटवर्क ने इन्हें अंजाम दिया था।
सिराजुद्दीन हक्क़ानी
सिराजुद्दीन हक्क़ानी के भाई अनस हक्क़ानी के भी तालिबान सरकार में शामिल होने की पूरी संभावना है। अभी तक की जानकारी के अनुसार, इस सरकार में सबसे ऊपर हिबतुल्लाह अखुंदज़ादा होंगे। उनके ठीक नीचे तीन लोग होंगे, मुल्ला ग़नी बरादर, सिराजुद्दीन हक्क़ानी और मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला याकूब।
सिराजुद्दीन हक्क़ानीFBI
इसके ठीक नीचे अनस हक्क़ानी होंगे। मतलब यह हुआ कि हक्क़ानी नेटवर्क के दो लोग इस पावर स्ट्रक्चर में सबसे ऊपर के लोगों में होंगे।
अनस हक्क़ानी (फ़ाइल तसवीर)afghanistan national directorate of security
सिराजुद्दीन व अनस के चाचा हैं ख़लील हक्क़ानी। वे काबुल की सुरक्षा के प्रमुख हैं। उन्हें आंतरिक सुरक्षा में कोई बेहद अहम पद दिया जाएगा।
खलील हक्क़ानी
वे अमेरिका व संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के आतंकवादियों की सूची में हैं। अमेरिका ने उन पर 50 लाख डॉलर का ईनाम घोषित कर रखा था।
यह पूरा हक्क़ानी नेटवर्क पाक खुफ़िया एजेन्सी आईएसआई का खड़ा किया हुआ है। हक्क़ानी नाम पख्तूनख़्वाह स्थित उस मदरसे दारुल उलूम हक्क़ानिया से लिया गया है, जहां हक्क़ानी नेटवर्क के लोगों और दूसरों को इसलाम की शिक्षा दी गई थी।
हक्क़ानी-जैश-लश्कर
खुफ़िया एजेन्सियों का मानना है कि हक्क़ानी नेटवर्क और लश्कर-ए-तैयबा के बीच समन्वय है। इसी तरह जैश-ए-मुहम्मद के साथ भी उसका रिश्ता है।
जैश-ए-मुहम्मद के रोज़मर्रा का काम देखने वाले और अज़हर मसूद के रिश्तेदार मुफ़्ती रऊफ़ अज़हर के भी तार हक्क़ानी नेटवर्क से जुड़े हुए हैं। मुफ़्ती रऊफ़ पाकिस्तान में रहते हैं, पर अफ़ग़ानिस्तान जाते रहते हैं और वहां वे हक्क़ानी नेटवर्क के साथ समन्वय करते हैं।
अनस व सिराजुद्दीन हक्क़ानी के पिता जलालुद्दीन हक्क़ानी 1980 के दशक में सोवियत सेना के ख़िलाफ़ लड़ाई के मैदान में थे, सीआईए ने उनकी मदद की थी और उन्हें मजबूत मुजाहिदीन नेता के रूप में स्थापित किया था।
तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रोनल्ड रेगन के साथ जलालुद्दीन हक्क़ानीwhite house
पाक रणनीति
जब 2001 में तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर भागना पड़ा तो वे पाकिस्तान आए। आईएसआई ने उसी समय उन्हें उत्तरी वज़ीरिस्तान में जगह दी, प्रशिक्षण दिया, हथियार दिए और पैसे दिए।
यह इलाक़ा 'फाटा' यानी फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरिया के तहत है। वहीं मदरसा भी खोला गया। बाद में पास के ही सराय दरपा खेल और डान्डे दरपा खेल में उनका विस्तार किया गया।
हक्क़ानी नेटवर्क ने 2007 से 2017 तक अफ़ग़ानिस्तान के बड़े हिस्से पर आतंक मचाए रखा।
आईएसआई की रणनीति यह थी कि तालिबान के साथ ही एक ऐसा गुट विकसित किया जाए जो उसकी रणनीतिक जायदाद की तरह हो, जिसे वह अपनी रणनीतिक ज़रूरतों के मुताबिक़ इस्तेमाल कर सके।
ऐसा होने से पड़ोसी देश अफ़ग़ानिस्तान पर उसकी पकड़ बने और वहाँ उसकी सरकार हो।
पाकिस्तान की रणनीति कामयाब रही। उसने जिस नेटवर्क को 20 साल तक पाला पोसा, पैसे दिए, शरण दिया, प्रशिक्षण दिया, वह आज अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में है।
साफ है, अफ़ग़ानिस्तान भले ही पाकिस्तान की कठपुतली सरकार न हो, उसके दबाव व नियंत्रण में तो रहेगी।