उत्तर प्रदेश से जुड़ा परिदृश्य देखें तो मई के आख़िरी सप्ताह में 5 घटनाएँ एक साथ घटित होती दिखती हैं। पहला, 'अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन' (आईएलओ) का प्रधानमंत्री को सख़्त चिट्ठी भेजकर यूपी सहित 6 राज्यों द्वारा किये गए श्रम क़ानूनों के निलंबन पर गहरी नाराज़गी जताना। दूसरा, केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा इन राज्यों को 'नोटिस' भेजकर श्रम क़ानूनों के निलंबन पर 'रोष' जताते हुए यह कहना कि श्रमिक सुधार के नाम पर ऐसे कोई क़ानून नहीं बनाए जा सकते हैं जो आईएलओ की उन 'कन्वेंशन' के विरुद्ध हो, भारतीय संसद जिस पर पहले ही मुहर लगा चुकी है। तीसरा, विभिन्न राज्यों से आने वाले 25 लाख से अधिक प्रवासी श्रमिकों का अपनी जन्मभूमि उप्र में आ धमकना। चौथा, यूपी के मुख्यमंत्री द्वारा प्रवासी मज़दूरों को रोज़गार मुहैया करने के लिए हड़बड़ी में एक 'प्रवासी श्रमिक आयोग' के गठन किए जाने का एलान करना। और पाँचवाँ, उप्र के ही श्रम आयुक्त सुधीर महादेव बोबडे के एक वीडियो का वायरल हो जाना जिसमें वह अपने मातहतों को यह फटकार लगाते दिख रहे हैं कि किसी भी फ़ैक्ट्री या कंपनी में, वेतन भुगतान सम्बन्धी अनियमितता की शिकायत पर, कोई भी सहायक या उप श्रमायुक्त न एफ़आईआर दर्ज करवाएगा न कोई और क़ानूनी कार्रवाई करेगा, जब तक कि वे उनसे न पूछ लें।
ये घटनाएँ न सिर्फ़ उप्र के गहरे श्रमिक संकट के अंतर्विरोध की ओर लगातार बढ़ते जाने का संकेत देती हैं बल्कि उस प्रदेश के विकास की जड़ों में मट्ठा डालती दिखती हैं जहाँ 2 साल बाद विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसा प्रदेश, जो न सिर्फ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिता कर प्रधानमंत्री की सबसे ऊँचे पद की ताजपोशी कराता है, बल्कि बीजेपी की झोली में 64 लोकसभा सीटें डाल कर दिल्ली दरबार तक पहुँचने की राह को आसान बना देता है।
बीती 14 फ़रवरी को प्रदेश के श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने एक लिखित जवाब में विधानसभा को बताया कि 7 फ़रवरी 2020 तक प्रदेश के ऑनलाइन पोर्टल में दर्ज़ कुल बेरोज़गारों की संख्या 33.93 लाख है। उन्होंने यह भी कहा कि गुज़रे डेढ़ वर्ष में इसमें 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। दूसरी ओर 'सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी’ का अध्ययन इसे गुज़रे 2 साल की सबसे चरम (दोगुनी) वृद्धि बताता है।
जिस हिसाब से प्रवासी श्रमिक अपने घर वापस आ रहे हैं, उसे देखते हुए यह माना जा रहा है कि प्रदेश में मध्य जून तक उनकी कुल संख्या 60 लाख को पार कर जायेगी। तब यदि पुराने बेरोज़गारों की संख्या को भी जोड़ लें तो यह तादाद 1 करोड़ का आँकड़ा छू लेती है और यह एक भयावह तसवीर होगी। यदि 2 साल बाद आने वाले विधानसभा चुनाव का आकलन करें तो यह समझना मुश्किल हो जाता है कि कैसे योगी जी अपने कन्धों पर डेढ़ करोड़ बेरोज़गारों का बोझ लेकर चुनाव की वैतरणी पार कर सकेंगे।
बीजेपी समर्थक कहते हैं कि ‘योगी जी योग के सिद्धहस्त हैं। वह जानते हैं कि योग में चरम विद्या कुण्डलिनी जागृत करने की कला होती है।’ तो क्या 'प्रवासी श्रमिक आयोग' उनके संसदीय योगाभ्यास की कुण्डलिनी है समय ही बताएगा कि वह कुण्डलिनी जगा पाने में सक्षम हुए कि नहीं।
चारों ओर हो रहे अध्ययनों से योगी जी के 'रामराज्य' में 'पढ़ोगे लिखोगे होगे ख़राब, खेलोगे कूदोगे बनोगे नवाब' की कहावत चरितार्थ होती दिखती है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय और उप्र सरकार के संयुक्त कमांड से सम्बद्ध 'गिरी इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़', लखनऊ की गत वर्ष की रिपोर्ट बताती है कि बेरोज़गारी वृद्धि के राष्ट्रीय ग्राफ़ की तुलना में उप्र में अशिक्षित बेरोज़गार वृद्धि 1.9 % है जबकि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त 5.3%, मिडल पास 5.8%, सेकेंड्री 9.6%, हायर सेकेंड्री 14.5% है। दूसरी ओर टेक्निकल डिप्लोमा/ सर्टिफिकेट 10.9% है। उक्त अध्ययन कमिटी के संयोजक और 'संस्थान' के पूर्व निदेशक डॉ. अजित कुमार सिंह ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है ‘प्रदेश में एक ओर ख़राब गुणवत्ता वाली शिक्षा और दूसरी ओर रोज़गार की अनुपलब्धता। पर्याप्त स्तर पर आर्थिक विकास न हो पाने के चलते ज़्यादा रोज़गार उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं जिसमें श्रमिकों को खपाया जा सके। उधर शिक्षित युवा के पास आवश्यक हुनर नहीं। ऐसे संस्थानों का अभाव है जो युवाओं के लिए वैसे प्रशिक्षण तैयार कर सकें जिनकी उद्योगों को ज़रूरत है।’
एनएसओ (नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस) ने उप्र को देश के बेरोज़गार राज्यों की सूची में अव्वल गिना था। 'नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ रूरल डवलपमेंट स्टडीज़', हैदराबाद के किशोर गोस्वामी और बानी चटर्जी ने अपने अध्ययन में स्वीकार किया है कि देश के 18.9% ग़रीबों का ठिकाना उप्र है। यह सारे अध्ययन लॉकडाउन शुरू होने से पहले के हैं। अंदाज़ लगाया जा सकता है कि ताज़ा हालात किस क़दर बेकाबू कर देने वाले हो रहे होंगे।
सीएमआईई की बेरोज़गारी की रिपोर्ट
सीएमआईई की 15 मई को जारी रिपोर्ट बताती है कि अप्रैल माह में देश में 20 से 30 वर्ष की आयु वाले 2.7 करोड़ बेरोज़गार हुए हैं जबकि 25 से 29 वर्ष आयु वालों की संख्या 1.4 करोड़ है। इसी तरह इस दौर में 30 वर्ष से ऊपर वालों की तादाद 3.3 करोड़ है। उसका यह भी कहना है कि मई के पहले सप्ताह में ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गारों की उपलब्धता बढ़ने और इस अवधि में कृषिगत व्यवसायों के कुछ हद तक चालू हो पाने से ग्रामीण रोज़गारों की संख्या में तो हल्का-फुल्का सुधार हुआ है लेकिन शहरी क्षेत्रों का संकट यथावत जारी है। सन 2011 की जनसंख्या को आधार मानें तो देश की 16% आबादी उप्र में निवास करती है। ज़ाहिर है कि जून अंत और जुलाई के मध्य तक आते-आते इसमें बेतहाशा वृद्धि होनी है। वह कहते हैं कि पिछले 4 महीनों की कुल रोज़गार क्षति 12 करोड़ की है जो सुनने वाले को भीतर तक कंपा डालती है। यह भूलकर कि प्रदेश की स्थिति अभी भी सबसे निचले स्तर पर है, इस आधार पर यदि आकलन करें तो यह संख्या अभी ही 1.9 करोड़ का ख़ौफ़नाक आँकड़ा दर्शाती है।
प्रदेश सरकार को भली भाँति पता है कि निरंतर गिरती आर्थिक दशा और बेरोज़गारी का चढ़ता ग्राफ़ आने वाले समय में सूबे को ऐसे भूचाल में ले जाकर छोड़ेगा, जिसका सामना सिर्फ़ दमन से ही किया जा सकता है।
यही वजह है कि सबसे पहला हमला 'श्रमिक सुधार' के नाम पर श्रमिकों के ट्रेड यूनियन अधिकारों को निलंबित किया गया। गोल-मोल सफ़ाई यद्यपि यह कह कर दी गयी कि ‘इन श्रमिक सुधारों’ से उन श्रमिकों के लिए रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे जो प्रवासी हैं और हाल ही में प्रदेश में लौटे हैं। संभवतः योगी जी की 'किचन कैबिनेट' और इर्द-गिर्द के नौकरशाहों में बुनियादी उसूलों को न समझ सकने वाले ऐसे लोगों का जमावड़ा है जो यह भी नहीं सोच पाते कि आईएलओ की 'कंनवेंशन' अंतरराष्ट्रीय धरातल पर 'प्राथमिक' मान्यताओं वाली हैं और जिन पर अरसे से भारतीय संसद भी स्वीकृति की मुहर लगा चुकी है। नतीजा यह हुआ कि आईएलओ ने पलट कर ज़बरदस्त प्रतिक्रिया दी और तब भारत सरकार को दौड़ते-भागते हस्तक्षेप करना पड़ा। यद्यपि अभी सिर्फ़ 8 घंटे के काम के अधिकार की ही बहाली हुई है लेकिन देर सवेर प्रदेश सरकार को बाक़ी फ़ैसले भी वापस लेने ही होंगे।
भविष्य के श्रमिक संकट के विकराल स्वरूप को आँकते हुए योगी सरकार ने जो नया शिगूफा छोड़ा वह है 'प्रवासी श्रमिक आयोग।' उनका दावा है कि वह आने वाले समय में इन प्रवासियों के लिए रोज़गार के ‘लाखों’ अवसर सृजित करेगी। सरकार विदेशी कंपनियों के उत्तर प्रदेश में आकर स्थापित होने के मुंगेरी सपने ख़ुद भी देख रही है और प्रदेश की जनता को भी दिखाना चाहती है, यह बात दीगर है कि ऐसी एक भी कंपनी के आने और स्थापित होने का ब्ल्यू प्रिंट वह पेश नहीं कर सकी है।
'सेल्फ़ एम्प्लॉयड वर्कर्स एंड वेंडर्स एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष अभिनय प्रसाद कहते हैं कि “सरकार प्रवासी आयोग बनाने की बात छोड़, यदि सन 1979 से स्थापित 'दि इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमेन (रेगुलेशन ऑफ़ एम्प्लॉयमेंट एंड कंडीशन ऑफ़ सर्विस) एक्ट और सन 2008 में बने 'दि अनऑर्गनाइज़्ड वर्कर्स सोशल सिक्योरिटी एक्ट' को ही गंभीरता से लागू करने की नीयत बना ले तो उसे किसी आयोग-वायोग का तमाशा खड़ा करने की ज़रूरत न पड़ेगी।" वह कहते हैं कि बिना किसी समुचित प्रबंधन के इन प्रवासी मज़दूरों का प्रवेश एक ओर जहाँ कृषि क्षेत्रों में 'मनरेगा' जैसे संसाधनों में वेतन दरों को गिरा रहा है, वहीं दूसरी ओर किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की गारंटी न होने के चलते यह शहरी क्षेत्रों में स्ट्रीट वेंडरों के लिए नया संकट खड़ा कर रहा है। इसके साथ ही ‘महानगरों में, जहाँ से विस्थापन हुआ है, श्रमिक संकट के चलते बढ़ा वेतन असंगठित क्षेत्र में भुगतान करने वाले 'मध्य वर्ग' के ऊपर आर्थिक वज़न बढ़ा देगा।’