फ़्रांस : सभ्यताओं का संघर्ष या राजनीति?

11:47 am Nov 02, 2020 | प्रमोद मल्लिक - सत्य हिन्दी

कई मुसलिम-बहुल राष्ट्रों के तीखे विरोध और निजी हमले के बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर फ़्रांसीसी राष्ट्रपति के अड़े रहने से कई सवाल खड़े होते हैं। क्या यह वाकई यूरोपीय और इसलामी सभ्यताओं का संघर्ष है अति उदार और धर्मनिरपेक्ष फ्रांसीसी जीवन मूल्यों के समानान्तर उत्तरी अफ़्रीका से गए मुसलमानों के मूल्यों का टकराव है 

दक्षिणपंथी ताक़तों को रोकने की कोशिश है या फ्रांस में 2022 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में उग्र राष्ट्रवादी शक्तियों को रोकने की चतुर रणनीति है पैगंबर मुहम्मद कार्टून विवाद ने यूरोप को 2005 और 2015 में भी झकझोरा था, लेकिन 2020 में आर-पार की लड़ाई है और उसके साथ ही राजनीतिक समीकरण भी है, जो पूरे मामले को दिलचस्प बनाता है। 

अश्वेत सब ऑल्टर्न बनाम फ़्रांसीसी

फ्रांस वह यूरोपीय देश है, जहाँ सबसे अधिक मुसलिम आबादी है। फ्रांस के लगभग 57 लाख मुसलमान नागरिकों में लगभग सभी उत्तरी अफ़्रीका के अलग-अलग देशों से अलग-अलग समय आए हुए हैं। ये वे देश हैं जो किसी ज़माने में फ्रांस के उपनिवेश थे।

ग़रीब, शोषित, उपेक्षित सब ऑल्टर्न और बिल्कुल अलग मूल्यों वाले मुसलमान उन फ्रांसीसी ईसाइयों के बीच रहते हैं जिनकी जीवन शैली और जिनके मूल्य बिल्कुल अलग हैं।

यही वजह है कि गीत-संगीत के प्रेमी, रेस्तरां-बार में झूमने नाचे गाने वाले ईसाई युवक-यवतियों से हिजाब वाली मुसलिम महिलाएं नफ़रत करती हैं और उनकी गोद में पलने वाली नस्लें भी आगे चल कर वैसा ही कर सकती हैं।

मुसलमानों का अलग समाज

फ्रांसीसी एजेन्सी नैशनल इंस्टीच्यूट ऑफ़ स्टैटिस्टिक्स एंड इकोनॉमिक स्टडीज़ का मानना है कि 2019 में फ्रांस में जन्मे लगभग 21.53 प्रतिशत बच्चों के नाम अरबी-मुसलिम थे, यानी वे मुसलमान थे। प्यू रिसर्च के मुताबिक़ 2050 तक फ्रांस में मुसलमानों की तादाद 1.26 करोड़ से ज़्यादा हो जाएगी। 

फ्रांस के दक्षिणपंथी तत्वों का कहना है कि मुसलमान एक बिल्कुल ही अलग समाज है, जो धर्मनिरपेक्षता, समानता, उदारता और सहिष्णुता में यकीन नहीं करता है, इसलिए वह ‘सेपरेट’ है और इस समाज का बढ़ना एक तरह का अलगाववाद यानी ‘सेपरेटिज़म’ है। यह सेपरेटिज़म तेज़ी से बढ़ रहा है क्योंकि मुसलमानों की संख्या 2050 तक 1.20 करोड़ पार कर जाएगी, यानी मौजूदा जनसंख्या से दूनी हो जाएगी। 

इसे रॉयल युनाइटेड सर्विसेज इंस्टीच्यूट के सीनियर एसोसिएट फ़ेलो एच. ए. हेलियर की किताब 'मुसलिम्स ऑफ़ यूरोप : द अदर यूरोपियन्स' से समझा जा सकता है। हेलियर ने इसमें यह प्रस्तावना दी है कि, 

'मुसलमान यूरोप में एक तरह का सांस्कृतिक युद्ध लड़ रहे हैं, वे यूरोपीय मूल्यों को उलट देना चाहते हैं और श्वेत ईसाइयों को अपनी सभ्यता बचाने के लिए संघर्ष करना होगा।'


एच. ए. हेलियर, सीनियर एसोसिएट फ़ेलो, रॉयल युनाइटेड सर्विसेज इंस्टीच्यूट

'सेपरेट सोसाइटी'

पेरिस के उपनगर में धर्म के शिक्षक सैमुएल पैटी की गला काट कर हत्या किए जाने के बाद राष्ट्रपति मैक्रों ने भी इस ‘काउंटर सोसाइटी’ या ‘पैरेलल सोसाइटी’ की बात कही थी। वे उस ‘सेपरेट सोसाइटी’ की ही बात कह रहे हैं, जिसे दक्षिणपंथी ताक़तें कहती रही हैं और प्रचारित करती रही हैं। 

मैक्रों ने 2016 में जिस राजनीतिक दल ‘ल रिपब्लिकन एन मार्च’ की स्थापना की, वह पैटी की हत्या के पहले भी इस ‘काउटंर सोसाइटी’ की बात करती रही है। उनकी पार्टी की नेता एन क्रिस्टीन लांग ने एक महिला सांसद के हिजाब में नैशनल असेंबली पहुँचने पर खुले आम कहा था, ‘मैं यह सोच भी नहीं सकती की कोई महिला हिजाब पहन कर नैशनल असेंबली में आए।’ 

सेंट्रिस्ट पार्टी 

मैक्रों की पार्टी खुद को सेंट्रिस्ट यानी केंद्रवादी पार्टी कहती है, पर उसके ये विचार दक्षिणपंथी ताक़तों से मेल खाते हैं। दरअसल मैक्रों खुद अपनी सेंट्रिस्ट पार्टी को दक्षिणपंथी पार्टी में तब्दील करना चाहते हैं। इसकी वजह यह है कि दक्षिणपंथी ताक़तों को रोकने में वह पूरी तरह नाकाम हैं। 

पिछले राष्ट्रपति चुनाव में यह साफ हो गया कि कोई सेंट्रिस्ट दल दक्षिणपंथी दल नैशनल रैली और उसकी नेता मरीन ल पां को नहीं रोक सकता। उस चुनाव के पहले राउंड में मरीन ल पां को 21.3 प्रतिशत और इमैनुएल मैक्रों को 24 प्रतिशत वोट मिले थे, यानी मैक्रों को बहुत ही मामूली बढ़त ही मिली थी। लेकिन, उसके बाद के दूसरे राउंड में उन्हें 66.1 प्रतिशत और मरीन ल पां को 33.9 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। 

मरीन बनाम मैक्रों

लेकिन उसके बाद मरीन ल पां की लोकप्रियता तेज़ी से बढ़ी है। बाद के सर्वेक्षणों में वह मैक्रों के बिल्कुल बराबर के स्तर पर पहुँच चुकी हैं, दोनों में कांटे की टक्कर है। 

मनीन ल पां, अध्यक्ष नैशनल रैली

‘ल जर्नल डू डिमांच’ और सड रेडियो ने 6 अक्टूबर, 2020 को कराए सर्वे में पाया कि यदि उसी दिन मतदान होता तो मरीन ल पां को 24 से 27 प्रतिशत के बीच वोट मिले होते। दूसरी ओर इमैनुएल मैक्रों को 23 से 26 प्रतिशत मत हासिल हुआ होता। यानी इस कांटे की टक्कर में मरीन ल पां को बहुत ही मामूली सी बढ़त ही मिलती। 

दक्षिणपंथ का उभार

दूसरे दक्षिणपंथी नेताओ में जेवियर बर्ट्रांन्ड को 16 प्रतिशत, फ्रास्वां बोरिन 14 प्रतिशत, वलेरी प्रेस्रे 11 प्रतिशत, ब्रूनो रतीलो 8 और रिशिदा दाती को भी 8 प्रतिशत वोट उस दिन के मतदान में मिलता। 

इस सर्वे के मुताबिक़, वामपंथी और समाजवादी दलों की दुर्गति तो तय है। इन समाजवादी नेताओं में एन हिन्दालगो 9 प्रतिशत, पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद 7 प्रतिशत, सेगोलिन रोयाल 5 प्रतिशत वोट हासिल कर पाते। ग्रीन पार्टी और दूसरी वामपंथी पार्टियों को तो और कम वोट मिलते। 

प्रवासियों, मुसलमानों के ख़िलाफ़

मरीन ल पां की नैशनल रैली और दूसरी दक्षिणपंथी पार्टियां खुल्लमखुल्ला प्रवासियों के ख़िलाफ़ हैं। उनका साफ मानना है कि बाहर के लोग फ्रांस जाकर उनके संसाधनों में हिस्सा मांगते हैं, उनके मूल्यों को प्रभावित करते हैं, उनकी सभ्यता संस्कृति और मूल्यों को चुनौती देते हैं।

अश्वेत मुसलमानों के बारे में उनकी राय बहुत ही साफ है कि वे फ्रांसीसी मूल्यों के ख़िलाफ़ हैं। एक तरह से ये दक्षिणपंथी ताक़तें सभ्यता के संघर्ष के सिद्धान्त को ही आगे बढ़ाती हैं।

मैक्रों की रणनीति

समाजवादी राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद की सरकार में काम कर चुके इमैनुएल मैक्रों ने 2016 आते-आते यह समझ लिया कि वह दक्षिणपंथी ताक़तों को नहीं रोक सकते। उन्होंने अपनी पुरानी पार्टी छोड़ी और एन मार्च नामक सेंट्रिस्ट पार्ट बनाई, जिसकी नीतियाँ न वामपंथी होंगी न ही दक्षिणपंथी। 

पिछले चुनाव में मरीन ल पां से किसी तरह चुनाव जीतने के बाद मैक्रों की समझ में आ गया कि उन्हें अपनी पार्टी को केंद्र से खिसका कर दक्षिण की ओर ले जाना होगा। वह ऐसी पार्टी हो जो ‘राइट’ नहीं तो कम से कम ‘सेंटर टू राइट’ हों।

और इस तरह उनकी सेंट्रिस्ट पार्ट सिर्फ नाम की सेंट्रिस्ट हैं।

मीरन ल पां को टक्कर देने के लिए यह रणनीतिक बदलाव हुआ। तो क्या शिक्षक  सैमुएल पैट की हत्या को मैक्रों भुनाना चाहते हैं, सवाल यह है। 

राज्य-चर्च अलग

यह तो सच है कि जिस देश में क़ानून बना कर राज्य (स्टेट) और धर्म (चर्च) को बिल्कुल अलग-अलग कर दिया गया हो, जहां ईश निंदा अपराध न हो, वहां पैगंबर के कार्टून दिखाने पर किसी की हत्या को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। वहां इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ कर देखा जाना स्वाभाविक है। 

इस परिप्रेक्ष्य में हम ‘दा विंची’ कोड नामक पुस्तक और उस पर बनी फिल्म को समझ सकते हैं। इस पुस्तक में मैरी मैग्डलीन से ईसा मसीह की बेटी होने की कल्पना की गई है। इसका भी हल्का विरोध ही हुआ, इस पर कोई बहुत बड़ा विवाद खड़ा नहीं हुआ था, कोई बवाल नहीं मचा था। 

पैगंबर मुहम्मद कार्टून विवाद समझने के लिए देखें वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष का यह वीडियो। 

विवाद क्यों बढ़ा रहे हैं मैक्रों

लेकिन जिस तरह फ्रांस के राष्ट्रपति ईरान, सऊदी अरब, तुर्की जैसे इसलामी देशों के विरोध की परवाह नहीं कर रहे हैं, उससे यह सवाल उठता है कि क्या वे जानबूझ कर यह विवाद बढ़ाना चाहते हैं। ज़्यादातर इसलामी देशों के साथ फ्रांस के व्यापारिक रिश्ते हैं और वे मोटे तौर पर फ्रांसीसी उत्पादों का आयात करते हैं। 

ऐसे में फ्रांसीसी उत्पादों के बहिष्कार की अपील का मैक्रों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है, जिससे यह लगता है कि वे स्वयं चाहते हैं कि मामला और बढ़े। यदि ऐसा होता है तो उनकी छवि मरीन ल पां को चुनौती देने वाली बन सकती है। नैशनल रैली की नीतियाँ भले ही मैक्रों की एन मार्च से अलग हों, लेकिन मरीन ल पां को इस विवाद पर मैक्रों का समर्थन ही करना होगा। आख़िर मैक्रों उनकी नीतियों को ही तो आगे बढ़ा रहे हैं।

बीजेपी की तरह

इसे हम भारतीय संदर्भ में समझ सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दुत्व का ऐसा राष्ट्रव्यापी नैरेटिव खड़ा कर दिया है कि कांग्रेस भी उसका विरोध नहीं कर पा रही है। उसने न तो राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का विरोध किया, न ही वह कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करने का विरोध कर पाई। नरेंद्र मोदी हिन्दू मंदिरों का दर्शन करते हैं तो राहुल गांधी भी करते हैं और वह भी जनेऊ धारण करते हैं, खुद को कश्मीरी ब्राह्मण कहते हैं। 

यही हाल फ्रांस का है। मरीन ल पां को चुनौती देने के लिए मैक्रों उनकी नीतियों को आगे बढा रहे हैं, तमाम समाजवादी और वामपंथी पार्टियां हाशिए पर पहुँच चुकी हैं और सेट्रिस्ट पार्टी भी दक्षिणपंथी नीतियों का अनुशरण कर रही हैं।

फ्रांसीसी मूल्यों के बहाने वोट की जुगत

इसलिए फ्रांसीसी मूल्यों की रक्षा करना तो स्वाभाविक है, अभिव्यक्ति की आज़ादी की लड़ाई भी ठीक है, मुसलमानों की आहत धार्मिक भावनाओं को नहीं समझने की बात भी समझी जा सकती है, पर मामले को तूल देने और बार -बार शार्ली एब्दो में छपे पैगंबर मुहम्मद के कार्टून को उचित ठहराने की बात से राजनीति की बू भी आती है। 

डेनमार्क की पत्रिका ने जब 2005 में पैगंबर का कार्टून पहली बार छापा था तो विरोध हुआ था, लेकिन फ्रांस ने उसे अभिव्यक्ति का बहुत बड़ा मुद्दा नहीं बनाया था।

लेकिन 2005 और 2020 में बहुत फर्क आया है, सीन नदी में काफी पानी बह चुका है, दक्षिणपंथी ताक़तें बहुत मजबूत हो चुकी हैं और वह देश की राजनीति तय कर रही हैं। मैंक्रों की राजनीति की यह विवशता हो या चतुराई, पर यह साफ है कि उन्होंने आपदा में अवसर तलाश लिया है।