आज हम आर्थिक तबाही के दौर में जी रहे हैं। कोरोना वायरस के कारण लगभग सभी देशों की अर्थव्यवस्था डवाँडोल हो रही है। जानकार बताते हैं कि यूरोप के देशों को भारी नुक़सान हो चुका है। जितना आर्थिक नुक़सान दूसरे विश्वयुद्ध के 5 वर्षों में हुआ था, उतना तो अभी तक कोरोना के कारण हो चुका है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संसार में भारी बदलाव हुए थे। जो देश जीत गए थे उन्होंने प्रभाव क्षेत्र को माले-ग़नीमत समझ कर बँटवारा कर लिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म भी दूसरे विश्वयुद्ध की कोख से ही हुआ था। आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि उसका मुख्य काम विजयी राष्ट्रों की ताक़त को और पुख़्ता करना था।
संयुक्त राष्ट्र का पराभव
कोरोना से हुए नुकसान के आकलन का काम अभी शुरू भी नहीं हुआ है। यह तबाही अभी और कितनी होगी उसका अंदाजा लगाना भी असंभव है। लेकिन एक बात भरोसे के साथ कही जा सकती है कि अब दुनिया में राजकाज के तरीके में निश्चित बदलाव आयेगा। लोकतंत्र का स्वरूप क्या होगा, कोई नहीं बता सकता। कई राजनीतिक वैज्ञानिकों से बात करने से पता चलता है कि किसी को कुछ पता नहीं है, सब अँधेरे में हाथ मार रहे हैं।इस सारी अनिश्चितता के माहौल में एक भविष्यवाणी पूरे भरोसे के साथ की जा सकती है कि उत्तर कोरोना युग में संयुक्त राष्ट्र की सत्ता तो समाप्त हो ही जायेगी।
संयुक्त राष्ट्र की आम सभा तो अब केवल राष्ट्राध्यक्षों के बयान पढने का मंच बन कर रह गयी है। सुरक्षा परिषद भी अब बिलकुल प्रभावहीन हो गया है। ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र से संबंद्ध बहुत सारी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है।
वीटो पावर
संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में सबसे ताक़तवर संस्था सुरक्षा परिषद थी। वीटो पावर वाली उसकी स्थाई सदस्यता दूसरे विश्वयुद्ध के विजेता राष्ट्रों के लिए रिज़र्व थी। स्थापना के समय अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, सोवियत रूस और चीन को सदस्यता दी गयी थी।इसमें दिलचस्प बात यह थी कि जिस चीन को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दी गयी थी वह जनरल च्यांग कई शेक वाला चीन था। बाद में १९४९ में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में क्रान्ति के ज़रिये सत्ता बदली और चीन पर माओ त्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने क़ब्ज़ा कर लिया। च्यांग कई शेक देश छोड़कर भाग खड़े हुए और चीन के एक प्रांत ताइवान में अपना ठिकाना बनाया।
अमेरिकी रणनीति
अमेरिका ने चीन के उस इलाके को ही रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का नाम दे दिया और 1971 तक उसको ही सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाए रखा। बाद में जब निक्सन राष्ट्रपति बने तो उनके विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने मुख्य चीन को पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के नाम से उस सीट पर स्थापित किया।यह खेल कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण वाले सोवियत यूनियन को कमज़ोर करने के लिए किया गया था क्योंकि तब तक चीन और सोवियत यूनियन के स्टालिन के समय वाली दोस्ती समाप्त हो चुकी थी और चीन सोवियत यूनियन का विरोधी हो चुका था। किसिंजर को उम्मीद थी कि शीत युद्ध में चीन का इस्तेमाल सोवियत संघ के ख़िलाफ़ किया जा सकता था।
भारत की स्थिति
सुरक्षा परिषद के ज़रिये अमेरिका पूरी दुनिया में मनमानी करता रहा था। भारत को भी अमेरिकी बाहुबल का अंदाजा लग गया जब कश्मीर मामले में अमेरिका ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया। उसके बाद ही जवाहरलाल नेहरू ने तय किया कि दोनों देशों, अमेरिका और सोवियत यूनियन, से समान दूरी बनाते हुए नवस्वतंत्र देशों का एक संगठन बनायेंगे।
भारत की विदेश नीति का आधार शुरू से ही अमेरिका पर अविश्वास का रहा। यह बात १९७१ में सही और उपयोगी साबित हुयी जब बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में अमेरिका ने खुलकर भारत का विरोध किया था।
मोदी की अमेरिका परस्त नीति
बाद में जब शीत युद्ध ख़त्म हुआ, सोवियत संघ का विघटन हुआ, पूर्वी यूरोप के देशों में कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता समाप्त हुई, तो विश्व राजनीति में अमेरिका का पलड़ा भारी हो गया। भारत की अगुवाई में चल रहा निर्गुट देशों का संगठन कमज़ोर पड़ गया। भारत की नीति भी अमेरिका परस्ती की तरफ चल पड़ी।वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निर्गुट देशों का शिखर सम्मेलन वेनेज़ुएला और अज़रबैजान में हुआ। भारत ने एक बैठक में भी शिरकत नहीं की।
लेकिन अभी पिछले हफ़्ते कूटनीतिक ख़बरों पर नज़र रखे वालों को आश्चर्य हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविद-19 पर हुए निर्गुट देशों के सम्मलेन में वीडियो कॉन्फरेंसिंग के ज़रिये शिरकत की।
अब भारत की समझ में भी आने लगा है कि अमेरिका परस्त विदेश नीति से कोई लाभ नहीं होने वाला है। इसलिए निर्गुट देशों के सम्मेलन को फिर से सक्रिय करने की किसी योजना पर काम हो रहा है।
निर्गुट आन्दोलन की वापसी
यह बात एक और संकेत भी देती है कि उत्तर कोरोना युग में जब संयुक्त राष्ट्र बेमतलब हो जायेगा तो तीसरी दुनिया के देशों को चीन की झोली में जाने से रोकने के लिए निर्गुट सम्मेलन एक महत्वपूर्ण संगठन साबित हो सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के समाप्त होने के कारणों में उसकी उपयोगिता का सवाल तो है ही, उसमें होने वाले भारी खर्च पर भी सवाल उठेंगे।
उसके अंतर्गत काम करने वाली बीसियों संस्थाएं हैं, उनके खर्च का बहुत बड़ा बजट होता है। संयुक्त राष्ट्र के खर्च के लिए सदस्य देशों को चंदा देना पड़ता है। खर्च चलाने में अमेरिका से मिलने वाली धन राशि का सबसे बड़ा हिस्सा होता है। अपने सबसे बड़े योगदान के बल पर अमेरिका बाकी दुनिया के देशों में अपनी चौधराहट कायम करता है।
लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। चीन अब अमेरिकी हित के बहुत सारे मामलों को सफल नहीं होने देता।
चीन का दबदबा
जी-आठ के सभी सदस्य देशों की आर्थिक हालत उत्तर कोरोना समय में बहुत अच्छी नहीं रहने वाली है। इसके पलट चीन की अर्थव्यवस्था उत्तर कोरोना युग में मज़बूत रहने वाली है।
चीन अपनी आर्थिक ताक़त के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र में अपना दबदबा बनाने की कोशिश करेगा और दुनिया के उन देशों को एकजुट करेगा जो उसकी सहायता के मोहताज हैं।
आज भी ऐसे देशों की संख्या बहुत है। आज भी यूरोप और चीन से सबसे ज्यादा चंदा संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में आता है।
जब यह बात साफ़ हो जायेगी कि संयुक्त राष्ट्र चीन के प्रभाव को बढाने के लिए इस्तेमाल होने जा रहा है तो अमेरिका सहित पश्चिमी देश उसमें आर्थिक योगदान नहीं देंगे। संयुक्त राष्ट्र के संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन को अमेरिका के राष्ट्रपति कई बात चीन की कठपुतली बता चुके हैं और उसको किसी तरह का चंदा देने से मना कर चुके हैं।
ज़ाहिर है अन्य संगठन भी अमेरिकी राष्ट्रपति के गुस्से का शिकार हो सकते हैं। और इस मंदी के दौर में चीन को ताक़तवर बनाने के लिए अमेरिका कोई भी धन नहीं देगा। ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बंधित संगठनों का भविष्य अंधकारमय नज़र आ रहा है।