महामारी का ख़तरा उन लोगों के लिए भी उतना ही है, लेकिन जिस तरह से म्याँमार यानी बर्मा में सेना ने चुनी हुई सरकार को अपदस्थ कर सत्ता पर कब्जा किया है, जनता तमाम ख़तरों को नजरंदाज करते हुए सड़कों पर निकल आई है। जगह-जगह पर हुई गोलियों की बौछार के बावजूद ये लोग जिस तरह से डटे हुए हैं, वह सचमुच हैरत की बात है।
लेकिन इससे भी ज्यादा हैरत की बात वह चुप्पी है जो म्याँमार में सत्ता परिवर्तन और वहाँ हो रहे प्रदर्शनकारियों के दमन को लेकर भारत में दिखाई दे रही है।
पाबंदियों का असर?
अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देशों में ऐसा नहीं है। वहाँ इस पर खासा हंगामा हो रहा है। अमेरिका समेत कई देशों ने तो इसे लेकर म्याँमार पर कुछ नई पाबंदियाँ भी लगाई हैं। हालांकि वहाँ का मीडिया और तमाम सामाजिक संगठन यह भी कह रहे हैं कि जब तक चीन म्याँमार की मदद के लिए खड़ा है इन पाबंदियों से कुछ नहीं होने वाला।
वैसे भी म्यानमार के मिलिट्री जुंटा के पास पश्चिम की पाबंदियों के बीच शासन चलाने का पुराना अनुभव है। इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि ये सारे देश जो कुछ भी कर रहे हैं, वह सिर्फ जुबानी जमा खर्च ही है।
लेकिन दिक्क़त यह है कि भारत में तो इस तरह का जुबानी जमाखर्च भी नहीं हो रहा। वैसे म्याँमार का मामला भारत के लिए हमेशा से ही एक टेढ़ी खीर रहा है।
नई दिल्ली को यह डर है कि अगर उसने म्याँमार के सैनिक जुंटा के ख़िलाफ़ कुछ भी बोला तो यह पड़ोसी देश पूरी तरह से चीन की झोली में चला जाएगा। इसलिए वहाँ जब भी कुछ होता है तो सरकार उसे उसका आतंरिक मामला कहकर चुप हो जाती है।
मीडिया क्यों चुप है?
जबकि बाकी पड़ोसियों के मामले में ऐसा नहीं है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और यहां तक नेपाल में जब कोई अप्रत्याशित सत्ता परिवर्तन होता है तो अक्सर सरकार की तरफ से भी गाहे-बगाहे टिप्पणियाँ आ ही जाती हैं।
इन देशों में अगर कुछ हो जाए तो मीडिया भी काफी सक्रिय हो जाता है। टीवी चैनलों में बहस शुरू हो जाती है। अखबारों में फोटो, खबरें, विश्लेषण और कालम बहुत कुछ छपने लगता है। विदेश मामलों के तमाम आलिम-फाजिल अपने तब्सरे देने लगते हैं। लेकिन म्याँमार के मामले में ये सब भी चुप हैं। आप पश्चिम का कोई भी अख़बार या न्यूज़ चैनल देख लें, इन दिनों वहाँ आपको म्याँमार की जितनी खबरें दिख जाएंगी उतनी भारत के चैनलों और अखबारों में नहीं हैं।
सैनिकों को रोकती हुई ईसाई नन
म्याँमार पर राष्ट्रीय सहमति?
सरकार की तरह ही केंद्र में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की मजबूरी को भी समझा जा सकता है। इस समय जब दिल्ली की सीमाओं पर कई महीनों से आंदोलनकारी किसान डटे हुए हैं, बीजेपी नैतिक रूप से इस स्थिति में नहीं है कि बर्मा में तानाशाही के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन पर कुछ बोले। लेकिन अगर इस पर कांग्रेस पार्टी भी कुछ नहीं बोल रही तो सचमुच यह हैरत की बात ही है।
अपनी विश्व दृष्टि पर इतराने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी कुछ नहीं बोल रहीं। वे संगठन भी चुप हैं जो नागरिक अधिकारों की ही बात करते हैं। बर्मा के मामले में चुप रहा जाए, लगता है कि भारत में इस पर एक राष्ट्रीय आम सहमति बन चुकी है।
भारत से ही उम्मीद
वैसे एशिया के लगभग सभी देश इस पर चुप हैं। क्षेत्र के सबसे ताक़तवर देश चीन का लोकतंत्र से कोई नाता नहीं है, इसलिए उससे तो इसकी उम्मीद नहीं ही की जानी चाहिए। म्याँमार की बाकी ज्यादातर पड़ोसी या आस-पास के देशों में या तो लोकतंत्र नहीं है या आता-जाता रहता है, इसलिए वहाँ से कोई आवाज़ उठेगी, इसकी कोई बड़ी संभावना नहीं है।
घूम-फिरकर पूरे एशिया में उम्मीद सिर्फ भारत से ही बंध सकती है। भारत में लोकतंत्र की लंबी परंपरा है और फिर इसे दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र माना जाता है। इसके बावजूद जब दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र को मसला जाता है तो देश के सभी राजनीतिक दल और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाएं चुप्पी क्यों साध लेती हैं? इस सवाल के जवाब से ही हम जान पाएंगे कि हमारी लोकतांत्रिक निष्ठा में कहाँ और कितनी कसर बाकी है।